Monday, January 4, 2010

भारत के नियाग्रा का भाग्य

भारत के नियाग्रा का भाग्य


* बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी


अक्सर ऐसा होता है कि जो चीज आपके पास रहती है उसे हम अहमियत नहीं देते या उसमें हमारी रूचि उतनी नहीं रहती है। हम दूर के और खर्चीले चीजों पर ज्यादा आकृष्ट होते हैं। जहां तक मैं समझता हूं नियाग्रा फाल दुनिया में सबसे प्रसिद्ध प्रपातो में से एक है। जीं हां मैं उसी नियाग्रा फाल की बात कर रहा हूं जो कि कनाडा और यू.एस. के बीच बहने वाली नियाग्रा नदी पर स्थित है। जबरदस्त प्राकृतिक छटा से भरपूर फाल को देखने की चाहत हर प्रकृति प्रेमी को रहती है। इस प्राकृतिक स्थल को प्रचारित करने में यू.एस. सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। सन 2009 में करीब 2 करोड़ पर्यटक नियाग्रा फाल को देखने पहुंचे। लेकिन क्या आपको पता है कि उतनी ही प्राकृतिक छटा से भरपूर जगह हमारे देश में भी है जिसे देखने बहुत कम लोग जाते हैं। जी हां, भारत के केरल प्रांत में चालकुडी नदी पर स्थित अथिरापल्ली प्रपात की तुलना नियाग्रा फाल से की जा सकती है। चंचल ‘चालकुडी’ नदी से 80 फुट ऊंचाई से गिरते प्रपात की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है, जिसकी सुन्दरता यकीनन होश उड़ा देती है। इतना ही नहीं चालकुडी नदी के वाझाचल इलाके को राज्य में सबसे ज्यादा मछली घनत्व वाला क्षेत्र माना जाता है। यह क्षेत्र दुर्लभ प्रजाति के कछुओं का निवास स्थल है। इसके अलावा इंटरनेशनल बर्ड एसोसिएशन ने इस क्षेत्र को ‘प्रमुख पक्षी क्षेत्र’ घोषित किया है एवं वाईल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने इसे भारत के हाथियों के सर्वोत्तम संरक्षण प्रयास के तौर पर नामित किया है। लेकिन कहावत है कि घर की मुर्गी दाल बराबर। इसलिए हमारे देश की सरकारें ऐसे जगह को महत्व नहीं देना चाहती। ऐसा आरोप मैं इसलिए लगा रहा हूं क्योंकि केरल सरकार चालकुडी नदी पर एक पनबिजली परियोजना लगाना चाहती है। प्रस्तावित पनबिजली परियोजना से 163 मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है। यह बात सब जानते हैं कि बिजली पैदा करने के लिए नदी पर बांध बनाना पड़ता है और बांध बनने से नदी का प्रवाह नियंत्रित होता है। अब ऐसे मामलों पर तमाम विशेषज्ञ चिल्लाते रहते हैं लेकिन सरकार को शायद ही कभी फर्क पड़ता है। लेकिन इस बार देर से ही सही आखिर केन्द्र सरकार ने सही दिशा में सोचना शुरू किया। जी हां, केरल में प्रस्तावित अथिरापल्ली पनबिजली परियोजना पर ब्रेक लग गया। केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने गत 4 जनवरी 2010 को परियोजना को दी गई मंजूरी वापस लेने की सिफारिश कर दी। साथ ही मंत्रालय ने इस संबंध में केरल राज्य विद्युत बोर्ड से 15 दिनों में अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा है।


यह परियोजना केरल के चालकुडी शहर के 35 किमी पूरब में चालकुडी-अन्नामलाई अंतरराज्यीय राजमार्ग से सटे हुए त्रिसुर डिविजन के वाझाचल जंगल में प्रस्तावित है। अधिकारिक सूत्रों के अनुसार बांध 23 मीटर ऊंची एवं 311 मीटर चैड़ी होगी। यह बांध पेनस्टोक के माध्यम से नदी के पानी को टरबाइन में मोड़कर उच्च मांग अवधि में बिजली उत्पादन के लिए प्रस्तावित है। केरल में चालकुडी नदी पर प्रस्तावित इस 163 मेगावाट की पनबिजली परियोजना को जुलाई 2007 में केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने मंजूरी दी थी। केन्द्र ने अपनी मंजूरी रिवर वैली एंड हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्टस के विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा अप्रैल 2007 में परियोजना स्थल पर भ्रमण करने के बाद दी गई सिफारिश के बाद दी थी। जबकि विशेषज्ञों का दावा है कि इस पेनस्टोक में नदी का 86 प्रतिशत पानी मोड़ दिया जाएगा, इस तरह नदी में वाटरफाल के लिए पानी ही नहीं बचेगा। भारत के चालकुडी स्थित रिवर रिसर्च सेंटर की समन्वयक ए. लता के अनुसार, विशेषज्ञ समिति की सिफारिश में काफी कमियां हैं। इस परियोजना से कादर आदिवासियों के 80 परिवार गंभीर रूप से प्रभावित होंगे। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि पर्यावरण मंत्रालय ने जब इतने शर्त तय कर दिए हैं तो परियोजना आर्थिक रूप से भी व्यवहार्य नहीं रह गई है। परियोजना को सैद्धांतिक मंजूरी मिलने के बाद विशेषज्ञों एवं पर्यावरणविदों की ओर से जोरदार विरोध के स्वर उभरे थे। विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये 675 करोड़ की प्र्रस्तावित लागत से बनने वाली इस परियोजना से 138.6 हेक्टेयर वन भूमि प्रभावित होगा, इससे अथिरापल्ली का नैसर्गिक प्रपात सूख जाएगा और इलाके में रहने वाले आदिवासी परिवार गंभीर रूप से प्रभावित होंगे।


इस परियोजना की कल्पना सबसे पहले सन 1998 में की गई थी। इसके लिए पोरिंगालकुथु बांध के अंतिम छोर के पानी को इस्तेमाल किए जाने का प्रस्ताव था। फरवरी 2000 में राज्य ने 138.6 हेक्टेयर वन भूमि के हस्तांतरण को मंजूरी दी। लेकिन व्यापक विरोध के कारण केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने इसे मंजूरी देने में काफी देर कर दी, और वह मंजूरी भी शर्तों के आधार पर मिली। वास्तव में जुलाई 2007 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दी गई मंजूरी शर्तों पर आधारित थी। इनमें आदिवासियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू करना, नदी से सिंचाई चैनल बंद करना, अथिरापल्ली वाटरफाल में नियमित न्यूनतम प्रवाह बनाए रखना, शिकार रोकने के उपाय करना और बांध की स्थापना से उत्पन्न हो सकने वाले पारिस्थितिकी बदलाव पर निगरानी करने के लिए निगरानी समिति की स्थापना के शर्त शामिल थे। इसके अलावा मंजूरी में निर्धारित अवधि में ही बिजली उत्पादन के लिए अनुमति दी गई थी, जो कि हर साल 1 फरवरी से 31 मई के बीच सायं 7 बजे से रात 11 बजे तक सिर्फ चार घंटे प्रतिदिन के लिए थी। मंत्रालय ने इस शर्त का प्रावधान खासकर इसलिए किया था ताकि कम प्रवाह वाले मौसम में उस क्षेत्र में आने वाले पर्यटकों का ध्यान रखा जा सके। शर्त में यह भी कहा गया था कि अथिरापल्ली वाटरफाल में प्रति सेकेंड 7.65 घनमी. का नियमित प्रवाह को बनाए रखने की प्राथमिकता के लिए जरूरत पड़ी तो बिजली बोर्ड को बिजली उत्पादन में समझौता करना चाहिए।


लेकिन तब से लेकर आज तक की परिस्थितियों में काफी बदलाव हो चुका है। अब केन्द्र सरकार ने सही दिशा में सोचना शुरू किया है लेकिन केरल सरकार परियोजना के निर्माण करने पर अड़ी हुई है। सवाल है कि जब यू.एस. सरकार नियाग्रा को बहुप्रचारित करके हर साल करोड़ो पर्यटकों को आकर्षित करके करोड़ो डाॅलर बटोर सकती है तो भारत सरकार अथिरापल्ली के लिए ऐसा क्यों नहीं करना चाहती? भारत में प्राकृतिक पर्यटन को अब तक उतना महत्व नहीं मिला है जितना मिलना चाहिए। नियाग्रा में आने वाले पर्यटकों से जितनी आय होती है उसका दस फीसदी भी अथिरापल्ली से नहीं होता है। इस मामले को औद्योगिक विकास बनाम प्रकृति के नजरिये से देखने के बजाय एक व्यापक नजरिये से देखने की जरूरत है। इस व्यापक नजरिये में सबसे महत्वपूर्ण है नदी को नदी बनाए रखा जाए, अर्थात नदी को बहने की पूरी आजादी दी जाए। अब पर्यावरण मंत्रालय के इस नये कदम से पर्यावरणवादियों एवं वन्यजीव प्रेमियों को एक उम्मीद जगी है कि जैवविविधता के मामले में भारत के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में से एक इस वाझाचल वन क्षेत्र के जैवविविधता को कायम रखा जा सकेगा और नदी का नियमित प्रवाह कायम रह पाएगा। इस तरह भारत के नियाग्रा के बचे रहने की उम्मीद अभी बाकी है।




Tags: Athirapalli, Kerala, Thrisur, Hydropower, MoEF, Waterfall, Chalkudy, River, Wazachal


Published in: http://hindi.indiawaterportal.org/node/5979