Monday, January 19, 2009

चावल का गणित

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में इस बार चावल ही प्रमुख चुनावी मुद्दा रहा। जबकि बहुत सारे महत्वपूर्ण मुद्दे परदे के पीछे चले गए। आखिरकार ऐसी क्या वजह रही कि चावल के आगे विकास से लेकर भ्रष्टाचार आदि सभी मुद्दे बौने पड़ गए? पांच साल पहले सन 2003 में चुनकर आई भाजपा सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे आने वाले लोगों को 3 रुपये प्रति किलो की दर पर चावल उपलब्ध कराने का वादा किया था। जाहिर है राज्य में विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर मुख्यमंत्री रमन सिंह ने जनवरी 2008 से 'मुख्यमंत्री खाद्यान्न सहायता योजना' लागू किया था। इसका असर यह रहा कि इस बार राज्य में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में गरीब परिवारों को 2 रुपये प्रति किलो की दर से चावल देने का वादा किया था। तो इससे आगे बढ़कर भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में 1 रुपये प्रति किलो की दर से चावल उपलब्ध कराने का वादा कर दिया था। चुनाव से पहले जब मेरा छत्तीसगढ़ जाना हुआ तो मैने स्थानीय लोगों से भावी चुनावी मुद्दों के बारे में बात की थी। बातों का निष्कर्ष यह था कि राज्य में सबसे प्रमुख चुनावी मुद्दा चावल ही होगा। मजेदार बात यह थी कि तब तक किसी भी राजनैतिक दल ने अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी नहीं किया था। लेकिन जब सभी दलों ने चुनावी घोषणा पत्र जारी किया तो चावल को अपने घोषणा पत्र में सबसे प्रमुखता दी। तब मेरी जिज्ञासा और बढ़ी और मैने इस मुद्दे के तह में जाने की सोची। इसके लिए मैने कुछ ऐसे लोगों से बात की जो राज्य के आदिवासी इलाकों में काम करते हैं। तो तस्वीर कुछ और ही उभरकर आई। मालूम हुआ कि आदिवासी इलाके में काफी लोगों को मुफ्त में चावल दिया जा रहा है। सुनने में यह बात बहुत अटपटा लगा कि जो चावल सरकार 3 रुपये प्रति किलो उपलब्ध कराती है वह मुफ्त कैसे दिया जा रहा है?असल में सरकार की योजना मुताबिक गरीबी रेखा से नीचे आने वाले हरेक परिवार को 3 रुपये प्रति किलो के दर पर प्रति माह 35 किलो चावल उपलब्ध कराना है। और उन्हें यह चावल माह में एक बार एक साथ लेना पड़ता है। इस तरह एक परिवार को चावल लेने के लिए 105 रुपये एकमुश्त देना पड़ता है। राज्य में बहुत सारे गरीब और आदिवासियों की स्थिति ऐसी नहीं है कि वे एकमुश्त 105 रुपये भी दे सकें। ऐसे में राज्य में काफी गरीब परिवार शुरू में चावल की योजना से वंचित रह जाते थे। लेकिन राज्य सरकार का दबाव था कि गरीबों को यह चावल किसी न किसी तरह उपलब्ध कराया जाय। तो जिन लोगों या एजेसिंयों के माध्यम से वह चावल उपलब्ध होता था उन लोगों ने एक ऐसा तरीका खोज निकाला जिससे न सिर्फ उन गरीबों का काम आसान हो गया बल्कि उससे बहुत सारे दूसरे लोगों को भी लाभ पहुंचने लगा। वितरकों ने आदिवासी इलाकों में प्रति परिवार प्रति माह 35 किलो के बजाय 20 किलो चावल मुफ्त देना शुरू कर दिया। प्रति परिवार शेष बचे 15 किलो चावल को उसी इलाके में सामान्य उपभोक्ताओं को कालाबाजारी के तहत 8 से 10 रुपये प्रति किलो की दर पर बेचा जाने लगा। फिर भी यह बाजार में उपलब्ध होने वाले चावल के मुकाबले सस्ता ही है। इस तरह प्रति परिवार शेष बचे 15 किलो चावल से 120 से 150 रुपये तक वितरक को उपलब्ध होते हैं। उसमें से 105 रुपये सरकारी खाते में जमा करना होता है। शेष बचे रकम में वितरकों, स्थानीय अधिकारियों और कई अन्य स्तरों तक निर्धारित अनुपात में बांट लिया जाता है। इस तरह एक गरीब परिवार जिसकी इतनी क्षमता नहीं है कि वह 3 रुपये प्रति किलो का चावल खरीद सके उसे मुफ्त में चावल मिलने लगा। इसके अलावा बहुत सारे गरीब परिवार रोजगार के लिए साल में आठ महीने अपने गांवों से बाहर रहते हैं। ऐसे में उनके हिस्से का चावल भी बंदरबाट हो जाता है। रमन सिंह की सरकार ने जनवरी 2008 में जब योजना शुरू की थी तो उस समय राज्य के 34 लाख गरीब परिवारों को इस योजना में शामिल किया गया था। यह संख्या राज्य की पूरी आबादी की 65 प्रतिशत हैं। इस तरह योजना से प्रत्यक्ष रूप से राज्य के 65 प्रतिशत लोग लाभान्वित होते हैं। यदि 5 प्रतिशत लोग भी अप्रत्यक्ष तौर पर लाभान्वित होते हैं तो कुल मिलाकर करीब 70 प्रतिशत लोग होते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार योजना के अंतर्गत वितरित होने वाले चावल का 20 प्रतिशत इस तरीके से वितरित होता है। इस पूरे गोरखधंधे में राज्य के सत्ताधीशों के शामिल होने की बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। आखिर जो भी हो, मामला है तो 70 प्रतिशत लोगों के वोट बैंक का। इस मामले में खास बात यह है कि राज्य सरकार को इस योजना के लिए करीब 850 करोड़ रुपये सलाना खर्च करने पड़ते हैं। 'मुख्यमंत्री खाद्यान्न सहायता योजना' को लागू करते समय राज्य सरकार ने केन्द्र सरकार से चावल के अतिरिक्त कोटे की मांग की थी। लेकिन उपलब्ध न हो पाने की स्थिति में खुले बाजार से 14 रुपये प्रति किलो की दर से अतिरिक्त चावल खरीदकर इस योजना के अंतर्गत देना पड़ता है। इस पूरे मामले में सबसे चिंतनीय बात यह है कि राज्य में ऐसे तमाम गरीब आदिवासी परिवार हैं जो एक माह में एकमुश्त 105 रुपये भी व्यवस्था नहीं कर पाते हैं। ऐसे में वे चावल से आगे कहां सोच पाएंगे! वे तो बस इतना ही समझ पाते हैं कि, ''ये सरकार ह हमन ल फोकट में चाउर देथे''। इसके अलावा जो गरीब लोग 3 रुपये प्रति किलो कीमत देकर चावल खरीद भी लेते हें वो भी बाजार की वास्तविक कीमत की सच्चाई से वाकिफ नहीं हो पाते हैं। आखिरकार राज्य के खजाने से प्रति वर्ष 850 करोड़ रुपये लुटाकर वोट बैंक खरीदने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है? इससे राज्य के खजाने पर बोझ तो बढ़ेगा ही क्योंकि अबकि बार इससे कम कीमत पर चावल देने का वादा किया गया है। दुखद बात यह है कि जहां भारत में गरीबी रेखा से नीचे आने वाले परिवारों की संख्या कुल आबादी का करीब 26 प्रतिशत है वहीं छत्तीसगढ़ में यह 65 प्रतिशत है। लगता है सरकार इन गरीबों की दशा नहीं सुधारना चाहती। लेकिन चाहे जो हो, इससे राज्य सरकार को सत्ता की ऐसी चावी मिल गई है जो गरीबों को सक्षम बनाने के बजाय उन्हें गरीब बनाए रखने में ही अपना फायदा देखती है।

जनसत्ता, दिल्ली : १३ दिसम्बर, 2008