Tuesday, February 1, 2011

पानी के निजीकरण की आहट

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

निजीकरण का जिन्न एक बार फिर से सिर उठा रहा है। जी हां, खबर है कि दिल्ली में पेयजल आपूर्ति के निजीकरण के प्रयास चल रहे हैं। इस बात का प्रमाण यह है कि दक्षिणी दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में दिल्ली जल बोर्ड द्वारा एक निजी कंपनी को जल आपूर्ति एवं रख-रखाव का जिम्मा सौंपा जा रहा है। हालांकि यह पायलट प्रोजेक्ट है, लेकिन इसके दूरगामी निहितार्थ हैं।

दिल्ली सहित कई अन्य शहरों में जल आपूर्ति का एक बड़ा हिस्सा वितरण एवं पारेषण क्षति के रुप में नष्ट हो जाता है। दूसरे अर्थो में कहा जाए तो पानी की चोरी, अवैध कनेक्शनों एवं पाइपों में लीकेज के माध्यम से पानी की क्षति हो जाती है। इसी बात को आधार बनाकर दिल्ली जल बोर्ड द्वारा एक पायलट परियोजना के तौर पर एक निजी कंपनी को यह जिम्मा सौंपा जा रहा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार वसंत कुज में 14,500 फ्लैटों को करीब 31 लाख गैलन पानी की आपूर्ति प्रतिदिन होती है।

प्रस्तावित परियोजना 3 चरणों में 36 माह में पूरी की जाएगी। दिल्ली सरकार चाहती है कि निजी कंपनी प्रस्तावित क्षेत्र में जल आपूर्ति के दौरान होने वाले तमाम क्षति को समाप्त करे और राजस्व वसूली को अधिकतम करे। कहने को तो यह ‘पायलट परियोजना’ है लेकिन इसके लिए कोई अवधि निर्धारित नहीं की गई है। इसका मतलब हुआ कि दिल्ली के वसंत कुंज क्षेत्र के लोगों को हमेशा के लिए जल निजीकरण की सौगात मिलेगी। इसके बाद धीरे-धीरे पूरी दिल्ली को इसके गिरफ्त में लेने की योजना है।

जल आपूर्ति के निजीकरण का खतरा सिर्फ दिल्ली पर ही नहीं बल्कि देश के प्रमुख 12 शहरों पर मंडरा रहा है। कहा जा रहा है कि पहले एवं दूसरे श्रेणी के 12 शहर इस दौड़ में सबसे आगे हैं। इसकी प्रमुख वजह है विश्व बैंक द्वारा भारत सरकार को 1 अरब डॉलर कर्ज देने का प्रस्ताव है। हालांकि पानी से जुड़ी किसी परियोजनाओं के लिए कर्ज का प्रस्ताव जल संसाधन मंत्रालय को दिया जाता है लेकिन इस बार विश्व बैंक द्वारा शहरी विकास मंत्रालय को यह प्रस्ताव दिया गया है। जाहिर है कि जब बैंक कर्ज दे रहा है तो उसकी वसूली भी करेगा और वह भी ब्याज सहित। तो यह बात साफ है कि कर्ज का जहां इस्तेमाल होगा वहां से बेहतर वसूली भी होनी चाहिए। इस तरह सरकार की प्राथमिकता होगी कि कर्ज का उपयोग वहीं किया जाए जहां से बेहतर वसूली हो। जब से शहरी विकास मंत्रालय के पास यह प्रस्ताव है तब विभिन्न राज्य अपने प्रमुख शहरों को इसमें शामिल करने के दावे पेश कर रहे हैं। तो फिर दिल्ली इस दौड़ में पीछे क्यों रहे।

भारत ने देश के 12 प्रमुख शहरों में चैबीसों घंटे भुगतान युक्त जल आपूर्ति की सुविधा शुरू करने के लिए विश्व बैंक से 1 अरब डॉलर के कर्ज को इस्तेमाल करने का निर्णय किया है। केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय द्वारा सन 2012 तक परीक्षण आधार पर पूरे सप्ताह चैबीसों घंटे जल आपूर्ति परियोजना शुरू करने की योजना है। मंत्रालय के एक अधिकारी के अनुसार अभी विश्व बैंक के साथ परियोजना के तौर-तरीके

के बारे में बात हो रही है, जिसने सैद्धांतिक तौर पर 1 अरब डॉलर सहायता करने की स्वीकृति दे दी है। इसके लिए चुने हुए शहरों को उपभोग के लिए उपयोगकर्ता प्रभार, बरबादी रोकने के लिए मीटर लगाने जैसे बाध्यकारी सुधार करना होगा। इस तरह निजीकरण के माध्यम से चैबीसो घंटे महंगे पानी की सौगात मिलेगी। जाहिर है कि महंगा पानी खरीदने की औकात दिल्ली और देश के आम आदमी के बूते की बात नहीं है तो यह सौगात देश के तमाम संपन्न इलाकों के लिए ही है। जब नयी पंचवर्षीय योजना शुरू होगी, तब सन 2012 तक फंड आना शुरू होगा। वर्तमान में केवल दो शहर – जमशेदपुर एवं नागपुर – में ही सातो दिन चैबीसो घंटे पाइप से जल आपूर्ति की व्यवस्था है। भारत में केवल 66 प्रतिशत आबादी के पास पाइप युक्त जल की उपलब्धता है। पुराने एवं जर्जर हो चुके पाइपलाइनों के कारण पेयजल की भारी मात्रा रिसाव के कारण नष्ट हो जाती है, जिसका परिणाम असमान वितरण के रूप में दिखता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक रिपोर्ट का कहना है कि सन 2017 तक भारत ‘‘जल अभावग्रस्त’’ हो जाएगा, जबकि प्रति व्याक्ति उपलब्धता घटकर 1600 घनमीटर रह जाएगी।

सोचने वाली बात यह है एक तरफ तो देश में हर व्यक्ति को साफ पेयजल उपलब्ध नहीं वहीं देश के संपन्न इलाकों के लिए चैबीसो घंटे पेयजल आपूर्ति का क्या तुक है! इस तरह यह साफ है कि पैसे दो और मनचाहे पानी का इस्तेमाल करो। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि शहरों में सम्पन्न वर्ग द्वारा पेयजल को जरूरी उपयोग के अलावा तमाम व्यावसायिक उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

दिल्ली सरकार द्वारा एक बार पहले भी सन 2004-05 में जल आपूर्ति के निजीकरण का प्रयास किया गया था लेकिन जन आंदोलन एवं जन दबाव के कारण प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा था। उस समय सरकार ने पूरे दिल्ली में जल आपूर्ति के निजीकरण का खाका तैयार किया था और उस समय एडीबी ने इसके लिए अपने मनपसंद सलाहकार प्राइस वाटर हाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) को नियुक्त करने का सुझाव दिया था। गौरतलब है कि पीडब्ल्यूसी की पृष्ठभूमि काफी विवादास्पद रही है। इस तरह इस बार सरकार ने गुपचुप तरीके से दिल्ली के एक क्षेत्र में इसे आजमाने को सोचा है। हालांकि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित निजीकरण की पैरोकार हैं लेकिन इस बार वे जन आलोचना से बचने के लिए अपने विधायकों के माध्यम से इसकी सिफारिश करवा रही हैं। अभी हाल ही में कांग्रेस विधायक राजेश लिलोठिया ने दिल्ली में जल आपूर्ति में सुधार के लिए आपूर्ति का निजीकरण करने का अनुरोध किया है। खबर है कि दिल्ली सरकार ने पूरी दिल्ली में चैबीसो घंटे जल आपूर्ति के नाम पर विश्व बैंक से 5 करोड़ डॉलर कर्ज का प्रस्ताव भी भेजा है। यदि यह प्रस्ताव स्वीकार हो जाता है तो दिल्ली में जल आपूर्ति एवं प्रबंधन के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश का रास्ता साफ हो जाएगा। इसके अलावा गत 14-15 जनवरी को गुड़गांव के पास मानेसर में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जल आपूर्ति में सुधार के मुद्दे पर एक उच्च स्तरीय बैठक भी हुई। बैठक में दिल्ली जल बोर्ड के अलावा विश्व बैंक एवं यूएनडीपी के अधिकारी शामिल हुए। वास्तव में इस बैठक में जल आपूर्ति के निजीकरण के आसान रास्ते तलाशने की कोशिश की गई।

अतीत के तमाम उदाहरणों को देखा जाए तो यह साफ होता है कि निजी कंपनियों के साथ सरकारें इस प्रकार का करार करती हैं कि उन्हें किसी प्रकार का नुकसान न हो। यदि जल आपूर्ति के मामले में भी निजी कंपनियों को लाभ नहीं होता है तो सरकार उन्हें लाभ की गांरटी जरूर देगी। तो भले ही सरकार को पूरी वसूली न हो लेकिन सरकार तो बैंक का कर्ज चुकायेगी ही। इस तरह वह वह आम जनता के पैसे से अमीरों को लाभ पहुंचाएगी। इस तरह देश के कुछ सम्पन्न लोगों को चैबीसो घंटे जल आपूर्ति के लिए कर्ज लेकर उसे चुकता करने के लिए टैक्स लगाकर आम जनता से वसूलने का यह नायाब तरीका है। तो असल में यही है आम आदमी की सरकार का चेहरा जो चाहती है कि अमीरों की शानों शौकत की कीमत आम आदमी चुकायें! पानी जैसे बुनियादी चीज के लिए भी निजीकरण की कोशिश हो रही है तो फिर सरकार के क्या मायने है?

प्रकाशित :

  • आफ्टर ब्रेक हिंदी साप्ताहिक


Saturday, January 1, 2011

डा. विनायक सेनः अदालती फैसला या दरोगा का फरमान!

डा. बिनायक सेनः फैसला या दरोगा का फरमान!
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

डा. बिनायक सेन को राष्ट्रद्रोही करार देकर आजीवन कारावास की सजा दिये जाने के बाद देश व विदेशों में बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई। इससे देश में सरकारों की मनमानी एवं अदालती व्यस्था की एक भयानक तस्वीर उजागर होती है। देश भर में तमाम प्रतिक्रियाओं के बीच जाने माने पत्रकार एवं लेखक डा. वेद प्रताप वैदिक की टिप्पणी पढ़ने को मिली। वह टिप्पणी ‘‘कामरेडों का फिजूल रोदन’’ दैनिक भास्कर में 29 दिसम्बर के संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ है। उनकी टिप्पणी काफी दिलचस्प है, इसलिए मैं उनके लेख पर कुछ टिप्पणी करना चाहता हूं।

जिस तरह वैदिक जी ने डा. बिनायक सेन के माध्यम से उनके समर्थको के खिलाफ मोर्चा खोला है, उससे उनका पूर्वाग्रह स्पष्ट रूप से झलकता है, हालांकि उनके वैचारिक पृष्ठभूमि के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं। पिछले बीस सालों से विभिन्न कॉलमों के माध्यम से उनकी विचारों एवं टिप्पणियों को पढ़ता आया हूं। इस तरह उनके ज्ञान के बारे में कोई सवाल खड़ा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। लेकिन उन्होंने जिस तरह डा. बिनायक सेन के बारे में सवाल उठाये हैं वह निश्चित तौर पर उनके अधूरे ज्ञान को दर्शाता है। उनका पहला सवाल है कि बिनायक सेन कोलकाता या दिल्ली छोड़कर छत्तीसगढ़ ही क्यों गये? तो क्या डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद गरीबों एवं आदिवासियों के बीच काम करना अपराध है? जबकि गांवों में जाकर सेवा करना तो किसी भी डाक्टर के लिए त्याग की मिसाल माना जाता है। उन्होंने कहना चाहा है कि वे एक पूर्व नियोजित योजना के तहत छत्तीसगढ़ गये। लेकिन ऐसा कहते समय वैदिक जी भूल जाते हैं कि डा. सेन सन 1981 से छत्तीसगढ़ में हैं। इसके अलावा वे मध्य प्रदेश में 70 के दशक से ही सक्रिय रहे हैं, जबकि उस समय छत्तीसगढ़ भी मध्य प्रदेश का ही हिस्सा था। जबकि छत्तीसगढ़ में माओवाद की समस्या को सिर उठाए मात्र 20 साल ही हुए हैं।

उन्होंने टिप्पणी किया है कि यदि सचमुच बिनायक सेन ने शुद्ध सेवा का कार्य किया होता तो अब तक काफी तथ्य सामने आ जाते। आइए एक नजर डा. सेन के चिकित्सकीय उपलब्धियों पर भी डालते हैं। डा. सेन मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद से ही निजी प्रैक्टिस करने के बजाय सामुदायिक चिकित्सा के प्रति समर्पित रहे। एमबीबीएस एवं पेडियाट्रिक्स में एमडी करने के बाद उन्होंने नयी दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सोशल मेडिसिन एवं सामुदायिक स्वास्थ्य विभाग में बतौर फैकल्टी मेम्बर ज्वाइन किया। उसके बाद मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा से जुड़कर टीबी पर फोकस करते हुए उन्होंने सामुदायिक चिकित्सा केन्द्र के लिए कार्य किया। सत्तर के दशक में डा. सेन ‘मेडिको फ्रेंड्स सर्किल’ से जुड़े। शायद आप ‘मेडिको फ्रेंड्स सर्किल’ एवं उसके मिशन के बारे में अनजान नहीं होंगे। फिर भी बताते चलें कि यह भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति सामाजिक रूप से जागरूक लोगों का एक प्रतिष्ठित समूह है। सन 1974 में अपने स्थापना के समय से ही मेडिको फ्रेंड्स सर्किल ने भारत की मौजूदा स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था का विश्लेषण किया एवं देश की अधिकांश जनता के जरूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त वैकल्पिक मानवीय अवधारणा अपनाया। इसके बाद छत्तीसगढ़ में दल्ली राजहरा में श्रमिकों व खान मजदूरों के स्वास्थ्य के लिए काम करना शुरू किया और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ मिलकर शहीद अस्पताल का निर्माण किया। इसके बाद छत्तीसगढ़ के ही तिल्दा में मिशन अस्पताल की स्थापना की। अस्सी के दशक के उतराद्र्ध में वे रायपुर पहुंचकर छत्तीसगढ़ में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के विकासशील मॉडलों की स्थापना में अहम योगदान दिया। साथ ही राज्य सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवा सुधार कार्यक्रम के तहत ‘मितानीन’ कार्यक्रम में सलाहकार समिति के सदस्य नियुक्त किये गये। मितानीन कार्यक्रम के बारे में बताते चलें कि, यह ऐसा कार्यक्रम है जिसके तहत ग्रामीण स्तर पर मातृत्व एवं शिशु देखभाल के लिए महिलाओं को प्रशिक्षित किया जाता है। राज्य में एक समय यह कार्यक्रम काफी लोकप्रिय रहा, जो कि आगे चलकर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के ‘आशा’ कार्यक्रम के लिए मॉडल बना। साथ ही वे धमतरी जिले में आदिवासी समुदाय के क्लिीनिक में अपनी सेवा देते थे। डा. सेन ने राज्य के बिलासपुर जिले में ग्रामीण स्तर पर कम लागत वाले सामुदायिक स्वास्थ्य मॉडल ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ के लिए भी सलाहकार के तौर पर कार्य किया। क्या आज के दौर में किसी डॉक्टर से इससे ज्यादा निःस्वार्थ सेवा की उम्मीद की जा सकती है? डा. सेन के चित्सिकीय योगदान की वजह से मिलने वाले तमाम सम्मान एवं पुरस्कार भी उनकी सेवा की वजह से ही मिले हैं। सन 2004 में पॉल हरिसन अवार्ड, सन 2007 में इंडियन एकेडमी आॅफ सोशल साइंसेज द्वारा आर आर कैथन गोल्ड मेडल एवं 2008 में ग्लोबल हेल्थ कांउंसिल द्वारा जोनाथन मान अवार्ड फॉर हेल्थ एंड ह्यूमन राइट्स आवार्ड उनके सेवा के मिसाल हैं।

वे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ की अदालत के फैसले पर जिस तरह का आक्रमण हमारे छद्म वामपंथी कॉमरेड लोग कर रहे हैं, वैसी न्यायालय की अवमानना भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई। रायपुर के सत्र न्यायालय के फैसले पर जिस तरह से टिप्पणी हो रही है वह अदालत की अवमानना कतई नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय अदालती व्यवस्था को शर्मशार करने वाले फैसले पर सरकार एवं न्यायपलिका को अगाह करना मात्र है। मैने अदालत के 92 पेज के फैसले को पढ़ा है, और दावे के साथ कह सकता हूं कि यह किसी अदालत के फैसले बजाय एक दरोगा का फरमान नजर आता है। फैसला जबरदस्त खामियों से भरा है और उसमें पूरी तरह पूर्वाग्रह की बू आती है। बिनायक सेन तो एक जाने-माने व्यक्ति हैं और उनके साथ ऐसा हो सकता है तो राज्य के अन्य लोगों के साथ कैसा सूलूक हो रहा होगा? राज्य में दंतेवाड़ा के जेल में ही ऐसे सैकड़ों विचाराधीन कैदी हैं जिन्हें अब तक अदालत के सामने पेश तक नहीं किया गया है। उनमें से ज्यादातर को नक्सली गतिविधियों में लिप्त या नक्सली समर्थक कहकर कई सालों से हिरासत में रखा गया है। जेल के अधीक्षक तो इस पूरी व्यवस्था से व्यथित हैं और मानते हैं कि उनमें से अधिकतर बेकसूर हैं और उनके साथ जल्द न्याय होना चाहिए। अब सवाल यह है कि, क्या उनके साथ भी ऐसा ही न्याय होना चाहिए जिससे भारत की न्यायपालिका शर्मशार हो जाए? यहां सवाल किसी व्यक्ति के पार्टी लाइन का नहीं है। सवाल है देश के संविधान एवं कानून का, जिसकी धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। जिस तरह से बिनायक सेन को कानूनी जाल में फंसाये जाने की कोशिश की गई और मनमाने सबूत एवं गवाह तैयार किये गये, उससे से देश की कानून व्यवस्था मजाक बन कर रह गयी है। अब यदि इस मजाक पर कोई टिप्पणी करे तो अदालत की अवमानना कैसे कही जा सकती है? बिनायक सेन के मामले में रायपुर सत्र न्यायालय के निर्णय को देखकर देश की अदालती व्यवस्था का सच सामने आता है। यह सर्वविदित है कि डा. सेन को जो सजा मिली है वह राज्य में पीयूसीएल के माध्यम से मानवाधिकार के मुद्दे उठाने की वजह से मिली है। जाहिर है कि पीयूसीएल देश के अगुआ मानवाधिकार संगठनों में से एक है और इसका गठन स्वार्गीय जयप्रकाश नारायण ने की थी।

जिस तरह से वैदिक जी ने बिनायक सेन को बार-बार माओवादी कहने का प्रयास किया है, वह निश्चित तौर पर पूर्वाग्रहपूर्ण सोच है। इतना ही नहीं उनके सभी समर्थकों को माओवादी कहना भी पूर्वाग्रहपूर्ण है। देश भर में बिनायक सेन के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे और दिल्ली में जंतर मंतर पर 28 दिसम्बर को बिनायक सेन के समर्थन में इकट्ठा हुए सैकड़ो लोग क्या माओवादी थे? क्या वे हिंसा का समर्थन कर रहे थे? डा. बिनायक सेन पर झूठे केस लादे जाने के बाद पिछले साढ़े तीन सालों में देश भर में जो आंदोलन हुए क्या वे हिंसक रहे हैं? क्या बिनायक सेन के मामले में नक्सलवादियों या माओवादियों की ओर से कोई प्रतिक्रिया आयी है? इन सबका जवाब नहीं में मिलेगा।

वैदिक जी का कहना है कि छत्तीसगढ़ में पकड़े गये सभी लोगों को दंडित किया जाना चाहिए। साथ ही वे कहते हैं कि जो भी दंड उन्हें दिया गया है, उसे वे खुशी-खुशी स्वीकार क्यों नहीं करते? सवाल है कि यदि पकड़े गये लोग दोषी हैं तभी तो उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा है कि माओवादियों की दलाली कर रहे लोगों को कहीं उनके प्रशंसक भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और बिस्मिल के उच्चासन पर बिठाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? इस तरह वैदिक जी के सोच पर तरस आती है लेकिन जब आप किसी विचारधारा से प्रेरित हैं तो फिर आपसे निष्पक्ष विचार की उम्मीद करना बेमानी है।

आज के दौर में हिंसा के सारे समर्थक मानवता विरोधी हैं, चाहे वह हिंसा सरकारी हो या गैर-सरकारी हो। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सलवा-जुड़ुम के नाम पर भोले-भाले आदिवासियों को आपस में लड़ाने का जो प्रयास पिछले 6 सालों से किया जा रहा है, उसका सच अब दुनिया के सामने उजागर हो रहा है। इस तरह यह नक्सली हिंसा के खिलाफ सरकार प्रायोजित हिंसा द्वारा सच ठहराने की कोशिश है। और इस हिंसा एवं प्रतिहिंसा का विरोध करने वाले सभी लोगों को राष्ट्रद्रोही साबित करके मुंह बंद करने का यह सरकारी प्रयास है। यह सरकार की ओर से चेतावनी है कि यदि कोई भी हमारी नीतियों के खिलाफ मुंह खोलेगा तो उसका भी यही हाल होगा जैसा कि डा. बिनायक सेन के खिलाफ किया गया है!

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डॉ वेद प्रताप वैदिक का मूल लेख: http://www।bhaskar।com/article/ABH-comrades-of-the-nonsense-roadan-1700131.html

डॉ बिनायक सेन को लेकर देश का अंग्रेजी मीडिया और हमारे कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी जिस तरह आपा खो रहे हैं, उसे देखकर देश के लोग दंग हैं। इतना हंगामा तो प्रज्ञा ठाकुर वगैरह को लेकर हमारे तथाकथित राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी तत्वों ने भी नहीं मचाया। वामपंथियों ने आरएसएस को भी मात कर दिया। आरएसएस ने जरा भी देर नहीं लगाई और ‘भगवा आतंकवाद’ की भत्र्सना कर दी। अपने आपको हिंसक गतिविधियों का घोर विरोधी घोषित कर दिया। ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द ही मीडिया से गायब हो गया। लेकिन बिनायक सेन का झंडा उठाने वाले एक भी संगठन या व्यक्ति ने अभी तक माओवादी हिंसा के खिलाफ अपना मुंह तक नहीं खोला। क्या यह माना जाए कि माओवादियों द्वारा मारे जा रहे सैकड़ों निहत्थे और बेकसूर लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है? क्या वे भोले आदिवासी भारत के नागरिक नहीं हैं? उनकी हत्या क्या इसलिए उचित है कि उसे माओवादी कर रहे हैं? माओवादियों द्वारा की जा रही लूटपाट क्या इसीलिए उचित है कि आपकी नजर में वे किसी विचारधारा से प्रेरित होकर लड़ रहे हैं? मैं पूछता हूं कि क्या जिहादी आतंकवादी और साधु-संन्यासी आतंकवादी चोर-लुटेरे हैं? वे भी तो किसी न किसी ‘विचार’ से प्रेरित हैं। विचारधारा की ओट लेकर क्या किसी को भी देश के कानून-कायदों की धज्जियां उड़ाने का अधिकार दिया जा सकता है? क्या यही मानव अधिकार की रक्षा है?

यदि नहीं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ में जो लोग पकड़े गए हैं, उन्हें दंडित क्यों न किया जाए? जो भी दंड उन्हें दिया गया है, उसे वे खुशी-खुशी स्वीकार क्यों नहीं करते? यदि वे सचमुच माओवादी हैं या माओवाद के समर्थक हैं, तो उन्हें वैसी घोषणा खम ठोककर करनी चाहिए थी, देश के सामने और अदालत के सामने भी। जरा पढ़ें, 1921 में अहमदाबाद की अदालत में महात्मा गांधी ने अपनी सफाई में क्या कहा था। यदि वे लोग माओवादी नहीं हैं और उन्होंने छत्तीसगढ़ के खूनी माओवादियों की कोई मदद नहीं की है, तो वे वैसा साफ-साफ क्यों नहीं कहते? वे सरकारी हिंसा के साथ-साथ माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते? यदि वे ऐसा नहीं करते, तो जो अदालत कहती है, उस पर ही आम आदमी भरोसा करेगा। छत्तीसगढ़ की अदालत के फैसले पर जिस तरह का आक्रमण हमारे छद्म वामपंथी कॉमरेड लोग कर रहे हैं, वैसी न्यायालय की अवमानना भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई।

यदि बिनायक सेन और उनके साथी सचमुच बहादुर होते या सचमुच आदर्शवादी होते तो सच बोलने का नतीजा यही होता न कि उन्हें फांसी पर लटका दिया जाता। जिसने अपने सिर पर कफन बांध रखा है, वह एक क्या, हजार फांसियों से भी नहीं डरेगा। आदर्श के आगे प्राण क्या चीज है? अपने प्राणों की रक्षा के लिए बहादुर लोग क्या झूठ बोलते हैं? क्या कायरों की तरह अपनी पहचान छुपाते हैं? भारत जैसे लोकतांत्रिक और खुले देश में जो ऐसा करते हैं, वे अपने प्रशंसकों को मूर्ख और मसखरा बनने के लिए मजबूर करते हैं। माओवादियों की दलाली कर रहे लोगों को कहीं उनके प्रशंसक भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और बिस्मिल के उच्चासन पर बिठाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं?

डॉ बिनायक सेन और उनकी पत्नी यदि सचमुच आदिवासियों की सेवा के लिए अपनी मलाईदार नौकरियां छोड़कर छत्तीसगढ़ के जंगलों में भटक रहे हैं तो वे निश्चय ही वंदनीय हैं, लेकिन उनके बारे में आग उगल रहे अंग्रेजी अखबार यह क्यों नहीं बताते कि उन्होंने किन-किन क्षेत्रों के कितने आदिवासियों की किन-किन बीमारियों को ठीक किया? यदि सचमुच उन्होंने शुद्ध सेवा का कार्य किया होता तो अब तक काफी तथ्य सामने आ जाते। लोग मदर टेरेसा को भूल जाते हैं। पहला प्रश्न तो यही है कि कोलकाता या दिल्ली छोड़कर वे छत्तीसगढ़ ही क्यों गए? कोई दूसरा इलाका उन्होंने क्यों नहीं चुना? क्या यह किसी माओवादी पूर्व योजना का हिस्सा था या कोई स्वत:स्फूर्त माओवादी प्रेरणा थी? जेल में फंसे माओवादियों से मिलने वे क्यों जाते थे? क्या वे उनका इलाज करने जाते थे? क्या वे सरकारी डॉक्टर थे? जाहिर है कि ऐसा नहीं था।

इसीलिए चिट्ठियां आर-पार करने का आरोप निराधार नहीं मालूम पड़ता। मैंने खुद कई बार आंदोलन चलाए और जेल काटी है। जो लोग जेल में रहे हैं, उन्हें पता है कि गुप्त संदेश आदि कैसे भेजे और मंगाए जाते हैं। पीयूसीएल के अधिकारी के नाते बिनायक का कैदियों से मिलना डॉक्टरी कम, वकालत ज्यादा थी। यदि कॉमरेड पीयूष गुहा के थैले से वे तीन चिट्ठियां पकड़ी गईं, जो कॉमरेड नारायण सान्याल ने बिनायक सेन को जेल में दी थीं, तो गुहा की कही हुई इस बात को झुठलाने के लिए वकीलों को खड़ा करने की जरूरत क्या थी? भारत को शोषकों से मुक्त करवाने वाला क्रांतिकारी इतना छोटा-सा ‘गुनाह’ करने से भी क्यों डरता है? पकड़े गए कॉमरेडों को किराए पर मकान दिलवाने और बैंक खाता खुलवाने की बात खुद बिनायक ने स्वीकार की है। अदालत को बिनायक की सांठ-गांठ के बारे में अब तक जितनी बातें मालूम पड़ी हैं, वे सब ऊंट के मुंह में जीरे के समान हो सकती हैं। असली बातों तक वे बेचारे पुलिसवाले क्या पहुंच पाएंगे, जो इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट को आईएसआई (पाकिस्तानी जासूसी संगठन) समझ लेते हैं। पुलिसवालों का दिल गुस्से से लबालब हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि माओवादी हिंसा में वे ही थोक में मारे जाते हैं। वे नेता हैं, न धन्ना सेठ। उनके लिए कौन रोएगा? हमारे गालबजाऊ और आरामफरमाऊ बुद्धिजीवी तो उन्हें मच्छर के बराबर भी नहीं समझते। एक माओवादी के लिए जो आसमान सिर पर उठाने को तैयार है, वे सैकड़ों पुलिसवालों की हत्या पर मौनी बाबा का बाना धारण कर लेते हैं।

कौन हैं ये लोग? असल में ये ही ‘बाबा लोग’ हैं। अंग्रेजीवाले बाबा! इनकी पहचान क्या है? शहरी हैं, ऊंची जात हैं, मालदार हैं और अंग्रेजीदां हैं। आम लोगों से कटे हुए, लेकिन देश और विदेश के अंग्रेजी अखबारों और चैनलों से जुड़े हुए। इन्हें महान बौद्धिक और देश का ठेकेदार कहकर प्रचारित किया जाता है। ये देखने में भारतीय लगते हैं, लेकिन इनके दिलो-दिमाग विदेशों में ढले हुए होते हैं। इनकी बानी भी विदेशी ही होती है। भारतीय रोगों के लिए ये विदेशी नुस्खे खोज लाने में बड़े प्रवीण होते हैं। इसीलिए शोषण और अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए गांधी, लोहिया और जयप्रकाश इन्हें बेकार लगते हैं। ये अपना समाधान लेनिन, माओ, चे ग्वारा और हो ची मिन्ह में देखते हैं। अहिंसा को ये नपुंसकता समझते हैं, लेकिन इनकी हिंसा जब प्रतिहिंसा के जबड़े में फंसती है तो वह कायरता में बदल जाती है। इसी मृग-मरीचिका में बिनायक, सान्याल, गुहा, चारु मजूमदार, कोबाद गांधी - जैसे समझदार लोग भी फंस जाते हैं। ऐसे लोगों के प्रति मूल रूप से सहानुभूति रखने के बावजूद मैं उनसे बहादुरी और सत्यनिष्ठा की आशा करता हूं। ऐसे लोगों को अगर अदालतें छोड़ भी दें तो यह छूटना उनके जीवन-भर के करे-कराए पर पानी फेरना ही है। क्या वामपंथी बुद्धिजीवी यही करने पर उतारू हैं?

Saturday, December 18, 2010

सुरेंद्र मोहनः समाजवादी सिद्धांत के जीवंत प्रतीक का अंत

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

17 दिसम्बर की सुबह ही जानकारी हुई कि सुरेन्द्र मोहन जी नहीं रहे। उनके अचानक निधन की खबर स्तब्ध करने वाली थी। हम सब के लिए एक बड़ी क्षति है। अभी कल ही तो वे जंतर-मंतर पर एक धरने में शामिल हुए थे, बिल्कुल चलते-फिरते हालत में। अभी इसी माह 4 दिसम्बर को उन्होंने अपना 84वां साल पूरा किया था। उनके निधन की खबर सुनते ही मुझे धीरे-धीरे उनके जीवन से जुड़ी यादें सामने आने लगीं।

सुरेन्द्र मोहन जी के साथ सबसे पहली बार निकट से मिलने का जो मौका मिला वह मुझे अब भी याद है। सन 1998 की बात है कि दिल्ली एवं देश भर में ‘‘भूमि अधिग्रहण कानून’’ के नकारात्मक असरों के बारे में बहस छिड़ी हुई थी। तो जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय ने तय किया कि इस मुद्दे पर देश भर में वरिष्ठ लोगों से लेख लिखने का आग्रह किया जाए। इसी के तहत कुछ प्रमुख दस्तावेज लेकर मैं उनके सहविकास स्थित आवास पर पहुंचा था। उनकी सरलता देखकर मैं काफी प्रभावित हुआ, बहुत ही सहज तरीके से बात करते हुए उन्होंने खुद ही पानी लाकर मुझे दिया। उन्होंने मेरे हाथ से दस्तावेज लेकर रख लिया। मेरा मानना है कि राजनीतिज्ञ लोग वास्तविक मुद्दों के प्रति गंभीर नहीं होते हैं। लेकिन सुरेन्द्र मोहन जी बिल्कुल अलग थे, तीसरे ही दिन हमने देखा कि उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून पर बहुत ही सहज भाषा में अखबार में अपना पक्ष रखा था। वे हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों ही भाषा में बहुत सहजता से लिखते थे। उसके बाद किसी भी अखबार या पत्रिका में उनके लेखन को मैं जरूर पढ़ता था। उन्हें लगातार पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि सुरेन्द्र मोहन जी एक राजनेता, लेखक या टिप्पणीकार होने के साथ-साथ वास्तव में चिंतक थे। अपने लेखन में वे मुद्दों के तकनीकी पक्ष के बजाय उसके राजनैतिक-सामाजिक व आर्थिक पक्ष के साथ अपने चिंतन को जोड़ते थे। समाजवाद के प्रति उनकी सोच इतनी गहरी थी कि उनके साथ काम शुरू करने वाले लोगों ने अपनी जड़ें छोड़ दी, लेकिन वे किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों एवं हाशिये पर खड़े जनसमूह की आवाज लगातार विभिन्न मंचो से उठाते रहे। उनकी एक खासियत यह थी कि वे किसी दल, संगठन या उसकी विचारधारा से भले ही सहमत न हों, लेकिन किसी अधिकार आधारित मुद्दे पर खुलकर उनके पक्ष में बोलते थे। वास्तव में कहा जाए तो दिल्ली में रहते हुए हमलोग उन्हें अपने गार्जियन की तरह मानते थे। पिछले सालों में हमने उनसे सैकड़ो बार विभिन्न आंदोलनों के लिए सहयोग का आग्रह किया और वे बहुत ही आसानी से हमें उपलब्ध हो जाते थे और हर संभव मदद करते थे।

हरियाणा के अंबाला में 4 दिसंबर 1926 को जन्में सुरेन्द्र मोहन जी छात्र जीवन से ही सन 1946 से समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए थे। काशी विद्यापीठ में दो साल तक समाजशास्त्र अध्यापन करने के बाद उन्होंने पूर्णकालिक राजनैतिक कार्यकर्ता बने रहने का रास्ता चुना। वे 1973 से 1977 तक सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव रहे। जब 1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ तो वे उसके संस्थापक महासचिव थे और 1977 में जनता पार्टी की सरकार को बनाने में उन्होंने ऐतिहासिक भूमिका अदा की। सन 1978 से 1984 तक वे राज्य सभा के लिए चुने गये। वे सन 1995 से 1998 तक ‘खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग’ के अध्यक्ष रहे। वे नियमित रूप से जनता पार्टी, जनता दल, जनता दल (सेकुलर) में बने रहे और अंततः हाल ही में गठित सोशलिस्ट जनता पार्टी के अध्यक्ष चुने गये थे। सुरेंद्र मोहन जी की राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों के बीच राजनैतिक निष्ठा और सादगीपूर्ण जीवन के लिए गहरी साख थी। पूरे देश में समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, मजदूर अधिकार, नागरिक अधिकार, महिला अधिकार आदि से जुड़े आंदोलनों के पहरुए के रूप में उनकी प्रतिष्ठा थी। वे ‘जनता’ साप्ताहिक के संपादक थे। हिंदी और अंग्रेजी में सामयिक विषयों पर अखबारों और पत्रिकाओं में उनके लेख लगातार प्रकाशित होते थे। हिंदी और अंग्रेजी में उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

मेरे जीवन का बहुत बड़ा समय बनारस में गुजरा है तो, वहां से जुड़े किसी भी व्यक्ति के बारे में रुचि बढ़ना स्वाभाविक है। मुझे जब मालूम हुआ कि सुरेन्द्र मोहन जी ने काशी विद्यापीठ में अध्यापन किया था तो जब मैं बनारस जाता तो अपने लोगों से उनके बारे में चर्चा करता था। एक बार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के विभाग प्रमुख श्री बलदेव राज गुप्ता से चर्चा में मैंने बताया कि सुरेन्द्र मोहन जी से काफी मिलना होता है। तब गुप्ता जी ने कहा था कि, ‘‘अरे सुरेन्द्र मोहन, वे तो खांटी समाजवादी हैं। वे समाजवादी तरीके से सोचते, लिखते एवं जीते हैं।’’ तब से लेकर आज तक मैंने उनके जीवन में इसे महसूस किया है।

सुरेंद्र मोहन की विशेषता यह थी कि उनकी सक्रियता केवल समाजवादी आंदोलन तक सीमित नहीं रही। भारत के मजदूर और किसान आंदोलन से लेकर सर्वोदय आंदोलन और विभिन्न जनांदोलनों तक उनकी सक्रियता का विस्तार रहा। पीयूसीएल, जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम), आजादी बचाओ आंदोलन, देश बचाओ आंदोलन, लोक राजनीतिक मंच, सोशलिस्ट फ्रंट, राष्ट्र सेवा दल जैसे संगठनों के गठन और संचालन में उनकी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रही। वे एक ऐसे विरल राजनेता थे जिन्होंने समता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार आदि के लिए न केवल निरंतर संघर्ष किया बल्कि एक महत्वपूर्ण विचारक के रूप में उन विषयों, मुद्दों, समस्याओं और चुनौतियों पर गंभीर लेखन भी किया है।

आज ऐसे समय में जब राजनैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है तब सुरेन्द्र मोहन जी व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक समग्रता के तौर पर जाने जाते थे। वे उन लोगों में थे जो अपने आदर्शों के लिए कुछ भी त्याग करने को तैयार रहते थे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने के लिए आपातकाल के दौरान उन्हें 1975 में जेल भी जाना पड़ा। वे देश में समतावादी समाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए हमेशा प्रयासरत रहे। उन्हें लगभग सभी प्रमुख समाजवादी नेताओं के साथ काम करने का मौका मिला। आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, किशन पटनायक, मधु दंडवते, अशोक मेहता, मधु लिमिये, सुरेन्द्र द्विवेदी, तिलक राज, प्रेम भसीन आदि सभी के साथ करीब से जुड़े रहे। हालांकि वे हमेशा पार्टीलाइन से जुड़े रहे लेकिन विभिन्न आंदोलनों के पक्ष में खुलकर बोलते थे। उन्होंने एक बार वरिष्ठ गांधीवादी श्री सिद्धराज ढड्ढा के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन के पक्ष में तीन दिन तक उपवास भी किया। हमारे देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं के गिरते हालात, पर्यावरणीय विनाश, बड़े बांधों द्वारा इकोसिस्टम एवं अर्थव्यवस्था का विनाश, आधुनिक जीवन शैली के बढ़ते खतरे, सार्वजनिक मूल्यों एवं जीवन के प्रति घटती प्रतिबद्धता, कृषि क्षेत्र के प्रति उदासीनता, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश के कारण नकारात्मक परिणामों, औद्योगिक मजदूरों के दर्द, संस्कृतियों के एकरूपता के प्रयास आदि के प्रति वे काफी गंभीरता से चिंता व्यक्त करते रहे। इस तरह वे राजनैतिक दल, संसदीय राजनीति एवं जन आंदोलनों के बीच आपसी समन्वय के पक्षधर रहे। भारत के राजनैतिक क्षितिज में छः दशक से ज्यादा तक सक्रिय रहने वाले सुरेन्द्र मोहन समाजवादी सिद्धांतों के जीवंत प्रतीक थे।

आखिर सुरेन्द्र मोहन जी का अचानक निधन हम सब के लिए एक बड़ी क्षति है, लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि वे 84 साल की उम्र में भी बिल्कुल सक्रिय स्थिति में अपने विचारों के अनुरूप कार्य एवं लेखन करते हुए दुनिया से विदा हुए। उनके चिंतन एवं विरासत को आगे बढ़ाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Tuesday, May 25, 2010

समय बड़ा क्रूर है!

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
समय बड़ा क्रूर है! उसने हमारे प्रिय साथी, आशीष मंडलोई को असमय हमसे जुदा कर दिया। 38 साल की उम्र दुनिया छोड़ने की नहीं होती है, लेकिन जब आज नर्मदा घाटी एक चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है, तभी आशीष हमसे दूर हो गये। नर्मदा आन्दोलन के एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर वे घाटी के तमाम प्रभावितों एवं बाहर की दुनिया के साथ एक मजबूत कड़ी की भूमिका निभाते थे। वे नर्मदा आन्दोलन के उन पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं में से थे जो कि खुद विवादास्पद सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र के प्रभावित हैं।

20 मई को रात करीब सवा ग्यारह बजे अशोक भाई का फोन आया कि, ‘‘अपने आशीष भाई नहीं रहे।’’ भौचक होकर अशोक भाई की बातें सुनता रहा और जैसे ही फोन रखा आंखो से नींद गायब हो चुकी थी। फिर कंप्यूटर खोल कर काम करने लगा। तभी मेरे जेहन में संजय संगवई और शोभा वाघ के चित्र उकर आये। वे दोनों भी नर्मदा आन्दोलन के मजबूत कड़ी थे और असमय काल के शिकार हो गये थे। तभी कई पुरानी यादें फिर से ताजा हो गईं।

अभी हाल की बात है, फरवरी माह में दिल्ली में पुस्तक मेले में गया हुआ था। कई स्टालों पर घुमते हुए वाणी प्रकाशन के स्टाल पर पहुंचा तो देखा काफी भीड़ लगी हुई है। मैं भी उत्सुकतावश भीड़ के करीब पहुंचा तो देखा कि एड्वोकेट संजय पारीख के एक कविता संकलन को मेधा पाटकर द्वारा विमोचन किया जाना था। अपनी आदत के अनुसार मैं भीड़ से थोड़ा दूर ही रहकर देखने को कोशिश करने लगा। देखा कि कई चिर-परिचित लोग वहां मौजूद थे। मेरा मन ललचा उठा कि जल्द ही पुस्तक का विमोचन पूरा हो और भीड़ कम हो ताकि अपने कई पुराने परिचितों से एक साथ मिल सकूं। तभी पूजा (मेरी पत्नि) ने कहा कि अन्दर चलो या फिर दूसरे स्टॉल पर चलो, बाहर खड़े रहने से क्या फायदा! तभी अचानक आशीष दिखाई पड़ गये, और मुझे भीड़ में जाने से छुटकारा मिल गया। वे नर्मदा के अदालती केस के सिलसिले में दिल्ली आए हुए थे। काफी समय बाद आशीष से मुलाकात हुई थी तो हमने बहुत सारी पुरानी यादों को फिर से ताजा किया। मैंने आशीष को पूजा से मिलवाया। आशीष ने पूजा से मिलते हुए मुझसे शिकायती लहजे में कहा कि, ‘‘आपको तो घाटी आये बहुत समय हो गया, एक बार पूजा के साथ आओ और इनको को भी नर्मदा घाटी दिखाओ। क्या हमलोगों से कोई परेशानी है क्या?’’ मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि ठीक है इस साल मॉनसून में घाटी आएंगे। ऐसा मैंने इसलिए कहा कि उस समय नर्मदा नदी उफान पर रहती है और अन्यायकारी डूब का सामना करने वाले प्रभावितों की सच्चाई से पूजा को रूबरू करा सकूंगा। साथ ही नर्मदा आन्दोलन के 25 साल पूरे होने के उपलक्ष्य पर इस साल घाटी में एक बड़े समारोह का आयोजन भी संभावित है। लेकिन आशीष की शिकायत में दम था और मेरा आश्वासन कमजोर, तभी तो उसके जीते जी मैं एक बार फिर नर्मदा घाटी नहीं जा पाया।

आशीष जूझारू होते हुए भी स्वभाव से काफी संवेदनशील थे। सन 2001 जुलाई की बात है, नर्मदा घाटी स्थित मान परियोजना स्थल पर एक गोष्ठी में शामिल होकर हम बड़वानी लौटे थे। बड़वानी में एनबीए कार्यालय पर पहुंचने के बाद शोभा ने आशीष भाई से पूछा कि, ‘‘कुछ खाने के लिए है क्या?’’ आशीष भाई ने कहा कि, ‘‘अरे खाना तैयार हो रहा है।’’ तभी शोभा ने कहा कि, ‘‘तुमलोग कुछ फल वैगरह नहीं रखते हो क्या?’’ आशीष भाई ने कहा, ‘‘यहां तो बस यही मिलेगा।’’ लेकिन पांच मिनट बाद ही आशीष मुझे लेकर धीरे से कार्यालय से बाहर निकले और शोभा के लिए थोड़े से आम और केले खरीदा और बड़े दुःखी मन से कहा, ‘‘घाटी में तो लोगों के लिए फल भी दुर्लभ है।’’ ये वही शोभा थी जो कि घाटी में जीवनशाला के बच्चों के साथ पूर्णकालिक समय दे रही थी। लेकिन 22 मई 2003 को नर्मदा के दलदल में फंस कर जान से हाथ धो बैठी, वह भी मात्र 25 साल की उम्र में। आज जब जीवनशाला के कई बच्चे घाटी से निकलकर कॉलेजों में दाखिला ले चुके हैं और नित नये प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं, तब उनकी शोभा दीदी खुशी बांटने के लिए दुनिया में नहीं है।

सन 2006 की बात है, नर्मदा घाटी के प्रभावित अपनी मांगों को लेकर दिल्ली में जंतर मंतर पर धरने पर बैठे थे, और मेधा दीदी अनिश्चितकालीन उपवास पर थीं। संजय संगवई का स्वास्थ्य काफी दिनों से ठीक नहीं था, फिर भी वे कुछ दिनों के लिए दिल्ली पहुंचे थे। वे खान-पान में काफी परहेज करते थे और उन्हें नियमित दवाईयां लेनी पड़ती थी। हालांकि हम सब साथी संजय भाई का ध्यान रखते थे, लेकिन अपनी आदत के अनुसार आशीष उनके खान-पान का काफी ध्यान रखते थे। लेकिन उन्हें बीच-बीच में बड़वानी भी जाना पड़ता था। ऐसे में उन्होंने मुझसे अधिकार पूर्वक कहा कि, ‘‘यार तुम लोग तो दिल्ली वाले हो, थोड़ा संजय भाई का ध्यान रखा करो।’’ संजय भाई बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हिन्दी, अंग्रेजी एवं मराठी तीनों भाषाओं में गड़ी गहराई से विभिन्न प्रकाशनों के लिए लिखते थे। नर्मदा आन्दोलन के बारे में उनकी गहन समझ को उनके एक ही पुस्तक ‘‘रिवर एण्ड लाईफ’’ से समझा जा सकता है। संजय भाई मुझसे हमेशा पुणे आने का आग्रह करते थे, और मैं हमेशा आने का आश्वासन देता था। लेकिन 29 मई 2007 को उनके इंतकाल की खबर आई, और 48 साल की उम्र में दुनिया से जुदा हो गये। लेकिन दुर्भाग्यवश उनके जीते जी मैं पुणे नहीं जा सका।

संजय, आशीष और शोभा, तीनों आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। तभी तो मुझे लगता है कि समय बड़ा क्रूर है, कि उसने इन तीनों से औसत जिंदगी जीने का हक भी छीन लिया। लेकिन खास संयोग यह कि तीनों की मौत मई महीने में ही हुई थी। तभी तो मुझे मई का महीना काफी भयावह लगने लगा है। लेकिन जब मैं इन लोगों के जज्बे को महसूस करता हूं तो यह भय हावी नहीं हो पाता है।

संजय भाई, शोभा और अब आशीष को श्रद्धांजलि देना सिर्फ खुद को सांत्वना देने जैसा है, क्योंकि जब तक हम सब उनके बचे हुए जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर लेते तब तक उनके प्रति श्रद्धांजलि अधूरी ही रहेगी। यदि हमें विस्थापन, अन्याय एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना है तो हमें उस जज्बे को जिंदा रखना होगा, जिसे इन लोगों ने जीवन पर्यन्त कायम रखा।



Friday, January 29, 2010

नजरिए का फर्क

नजरिए का फर्क
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

वर्ष 2009 के अंत में रिलीज हुई फिल्म ‘‘थ्री इडियट्स’’ को बॉक्स आफिस पर जबरदस्त सफलता मिली। फिल्म को सफलता मिली तो स्वाभाविक रूप से फिल्म चर्चा के साथ-साथ विवादों में भी रही। ऐसे में मुझे फिल्म के बारे में बहुत सारी टिप्पणियां पढ़ने को मिली। कुछ तो अखबारों में, तो कुछ ईमेल व इंटरनेट के जरिये पढ़ने को मिली। मैने देखा कि कुछ ऐसे लोगों ने फिल्म पर टिप्पणी की है जो लेखक, शोधार्थी, समाजकर्मी या टिप्पणीकार तो हैं लेकिन फिल्मों पर टिप्पणी कभी-कभार ही करते हैं। उनमें सबसे रोचक टिप्पणी हमारे वरिष्ठ साथी श्रीपाद ने की है। श्रीपाद धर्माधिकारी के बारे में बताते चलें कि वे अस्सी के दशक के आईआईटी मुम्बई के प्रोडक्ट हैं, और करीब दो दशक तक नर्मदा एवं विभिन्न आंदोलनों से जुड़े रहने के बाद वर्तमान में ‘‘मंथन’’ अध्ययन केन्द्र के माध्यम से शोध एवं विश्लेषण में लगे हुए हैं। मंथन का विशेष फोकस अर्थव्यवस्था के उदारीकरण, वैश्वीकरण एवं निजीकरण के फलस्वरूप होने वाले नवीनतम विकास के मुद्दों पर रहता है।

हां, तो श्रीपाद की टिप्पणी इसलिए रोचक हैं क्योंकि उन्होंने इसे अपने जीवन में देखे गए तमाम फिल्मों में से सबसे बेकार फिल्म की श्रेणी में रखा है। श्रीपाद इसे बेहूदा हरकतों वाली एक उबाऊ फिल्म मानते हैं। इस टिप्पणी के बाद मैं भी इस फिल्म पर टिप्पणी करने से खुद को नहीं रोक पाया। या यूं कह सकते हैं कि अन्य लोगों की ही तरह इस बहती गंगा में हाथ धोने के लोभ से खुद को रोक नहीं पाया। मैंने भी यह फिल्म देखी है। यह फिल्म मुझे लीक से हटकर लगी। इसलिए फिल्म के बारे में तमाम टिप्पणियों को मैने पढ़ा, लेकिन श्रीपाद के अलावा किसी ने भी फिल्म पर नकारात्मक टिप्पणी नहीं की है।

शिक्षाविद एवं आईआईपीएम के प्रमुख अरिंदम चैधरी जो कि मैनेजमेंट गुरू माने जाते हैं, उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि, ‘‘दुनिया के किसी भी हिस्से में शिक्षा तंत्र पर बनी तकरीबन सभी फिल्मों को देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि मैंने इससे बेहतर फिल्म नहीं देखी है।’’ उनका मानना है कि लेखक नैतिकतावादी हुए बगैर विशुद्ध वाणिज्यिक अंदाज में लोगों तक एक सार्थक संदेश पहुंचाते हैं। वास्तव में इस फिल्म के जरिए हमारी शिक्षा व्यवस्था को चलाने वाले कई इडियट्स और इसे बगैर कोई सवाल किए अपनाने वाले लाखों इडियट्स को एक ठोस संदेश दिया गया है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी हर्ष मंदर जी को एक विचारवान व सिद्धांतवादी समाजकर्मी के तौर पर जाना जाता है। वे मानते हैं कि, दोस्ती के शानदार उत्सव, लीक से हटकर और रचनात्मकता से भरी इस फिल्म ने जल्द ही पूरे देश का दिल जीत लिया। वे कहते हैं कि, इस फिल्म के लेखक अपने दर्शकों से जिंदगी के सार्वजनिक सबकों की बात करते हैं, लहरों के खिलाफ तैरने के साहस की बात करते हैं, वे उन बातों के बारे में कहते हैं, जो पैसे से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे ज्ञान प्राप्ति और परीक्षा में सफलता के बीच अंतर की बात कहते हैं। वे ये तमाम बातें बुद्धि, कोमलता और अंतर्दृष्टि के साथ करते हैं। वे लोकप्रिय सिनेमा के व्याकरण और मुहावरे का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन शरारत के साथ। ऐसा करते हुए वे एक मौलिक और विचारमान सिनेमा का सृजन करते हैं, लेकिन वह उपदेशात्मक नहीं है, वह मनोरंजन प्रधान है, लेकिन बेतुका नहीं है, वह विध्वंसकारी है, लेकिन दोषदर्शी नहीं है। कुल मिलाकर इसे वे फिल्मों में असली किरदारों की वापसी के नजरिए से देखते हैं।

फिल्मों के बारे में ज्यादातर गॉशिप पढ़ने को मिलता है। लेकिन कुछ ऐसे भी लेखक हैं जो कि पूरी संवेदना के साथ भारतीय फिल्म के हर पहलू पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हैं, इनमें जयप्रकाश चौकसे का नाम प्रमुख है। इनका कहना है कि ‘थ्री इडियट्स’ की समीक्षा पारंपरिक मानदंडों पर नहीं की जानी चाहिए। यह फिल्म स्वतंत्र विचार शैली के महत्व को रेखांकित करते हुए घोटा लगाने वाली शास्त्रीयता के खिलाफ सार्थक विरोध प्रकट करती है। ‘कैसे कहा गया’ से ज्यादा महत्व ‘क्या कहा जा रहा है’ पर है। सदियों से व्यवस्थाएं स्वतंत्र सोच और निष्पक्ष विचार शैली को दबाकर ही अपनी सड़ांध और स्वार्थ को टिकाए रखे हैं, और यह फिल्म उनके गढ़ में विस्फोट करती है।

जहां तक फिल्म में चेतन भगत के किताब ‘‘फाइव प्वाइंट समवन’’ को श्रेय देने का विवाद है तो इसमें कोई दम नहीं है। सोचने वाली बात है कि फिल्म के बनने के बहुत पहले ही चेतन भगत को एक अनुबंध के जरिए रुपये 10 लाख का भुगतान कर दिया गया था, और उन्हें क्लोजिंग क्रेडिट देने पर सहमति हुई थी। फिल्म में उन्हें वह क्रेडिट दिया भी गया। लेकिन जब फिल्म चल निकली तो वे फिल्म में ओपनिंग क्रेडिट की बात करने लगे। यदि फिल्म फ्लॉप हो जाती तो क्या वे ऐसी मांग करते? इसके बावजूद सच तो यह है कि फिल्म किताब से बिल्कुल अलग है, और उनमें मात्र 10-12 फीसदी ही समानता है। यह किताब जबरदस्त फिलॉस्फी से भरी पड़ी है, और यह ज्यादातर आईआईटी के माहौल की डायरी की तरह है जो कि किसी शिक्षा तंत्र में बदलाव के लिए सोचने पर विवश नहीं करती है।

यदि हम अपने दायरे को और बड़ा करें तो हो सकता है कि श्रीपाद जैसे या कुछ भिन्न विचार वाले कुछ और लोग मिल जाएं। आखिर एक ही चीज पर सोच में इतना बड़ा अंतर क्यों है? इस बारे में मेरा मानना है कि यह ‘‘नजरिए का फर्क’’ है। नजरिए में इस फर्क का पहली बार अहसास मुझे सन 1993 में हुआ जब मैं रिलीज के पहले दिन फिल्म ‘1942 ए लव स्टोरी’ देखने पहुंचा। मेरी समझ से वह देशभक्ति की चासनी में लपेटी हुई एक अच्छी संगीत प्रधान फिल्म थी। लेकिन हाॅल में घुसने से पहले फिल्म देखकर निकल रहे दर्शकों से उनकी राय के बारे में पूछा। ज्यादातर दर्शकों ने काफी निराशाजनक टिप्पणी की थी। लेकिन पूरी फिल्म देखने के बाद पता चला कि रिलीज के पहले दिन फिल्म देखने आने वाले दर्शकों का नजरिया बिल्कुल अलग होता है। ऐसे दर्शक फिल्म से कुछ और ही उम्मीद करते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि किसी भी फिल्म को देखने के पहले बहुत बड़ी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। यदि किसी फिल्म से बहुत ज्यादा उम्मीद कर ली जाय तो उसे देखने पर निराशा हाथ लगती है। लोगों के नजरिए में फर्क होने के कारण ही कई बार कुछ फिल्में एकल सिनेमा हाॅल में सफल होती हैं तो वे मल्टीप्लेक्स में नहीं चलती, और कई बार इसका उल्टा होता है। इसी नजरिए के फर्क के कारण सत्तर अस्सी के दशक के कई सफल निर्माता व निर्देशक आज लाचार नजर आते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अब तक दुनिया भर में बहुत बदलाव आए हैं। इन बदलावों ने जहां तकनीक को ज्यादा उन्नत बनाया है तो परिस्थिति के अनुसार लोगों का विचार भी बदला है। इसी वजह से सन 1975 में रिलीज हुई फिल्म ‘शोले’ या ‘जय संतोषी मां’ को जो जबरदस्त सफलता मिली वह शायद आज की परिस्थिति में न हो पाता। ज्यादातर फिल्में काल्पनिक कथाओं पर आधारित होती हैं, लेकिन कई बार उनमें यथार्थ का पुट होता है। यही यथार्थ का पुट उन्हें अन्य फिल्मों से अलग साबित करता है, और ऐसी फिल्में कई बार खास संदेश दे जाती हैं। किसी खास अंदाज में कहे गए ऐसे बहुतेरे संदेश या फिलॉस्फी का फंडा काफी बोरिंग लगता है तो कई लोगों के लिए वह सीख का विषय होती है। दादा साहब फाल्के ने कहा था कि जब सिनेमा अपने मनोरंजन तत्व से सामाजिक प्रतिबद्धता को निकाल देगा, तब वह महज तमाशा बनकर रह जाएगा। अनेक लोग आज तमाशा बना रहे हैं, लेकिन कुछ निर्माता या निर्देशक दर्शक के विश्वास को जीवित रखते हैं।

जहां तक मैं समझता हूं कि श्रीपाद जैसे लोग ऐसे माहौल में बड़े हुए हैं जहां उन पर जिंदगी थोपी नहीं गई है। जरा देश के उन लाखों बेबस युवाओं के बारे में भी विचार करें कि जिन्हें थोपी हुई हुई जिंदगी मिली है। स्कूलों में 12-13 साल गुजारने वाले ज्यादातर बच्चों को यह पता नहीं होता कि वे क्या पढ़ रहे हैं और इससे उनके जीवन में क्या बदलाव आने वाला है। शिक्षकों के मन में किसी के जीवन में थोड़ा भी बदलाव लाने या पढ़ाई को दिलचस्प बनाने का भाव नहीं होता है। अभिभावक भी अपने बच्चों के जरिए अपने अधूरे सपनों को पूरा करना चाहते हैं, और इस चक्कर में वे अपने बच्चों का जीवन बर्बाद कर रहे हैं। इन तथाकथित सपनों को पूरा करने के लिए अभिभावक अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा अंक हासिल करने की गलाकाट होड़ के लिए मजबूर करते हैं। यह ऐसी होड़ है जिससे किसी को फायदा नहीं होता है। अस्सी के दशक के आईआईटी कैंपस और आज के आईआईटी कैंपस में काफी फर्क आ चुका है, और शायद यह फर्क विचारों का है। इसीलिए आज के आईआईटी के छात्र गुनगुना रहे हैं, ‘‘गिव मी सम सनशाइन, गिव मी सम रेन, गिव मी अनदर चांस, आई वाना ग्रो अप वंस अगेन।’’ यदि हम नई पीढ़ी के इस नजरिए को समझने की कोशिश करें तो ‘‘थ्री इडियट्स’’ को बेहतर समझ पाएंगे।

See Shripad's Original Comment at: http://shripadblog.blogspot.com/


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Monday, January 4, 2010

भारत के नियाग्रा का भाग्य

भारत के नियाग्रा का भाग्य


* बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी


अक्सर ऐसा होता है कि जो चीज आपके पास रहती है उसे हम अहमियत नहीं देते या उसमें हमारी रूचि उतनी नहीं रहती है। हम दूर के और खर्चीले चीजों पर ज्यादा आकृष्ट होते हैं। जहां तक मैं समझता हूं नियाग्रा फाल दुनिया में सबसे प्रसिद्ध प्रपातो में से एक है। जीं हां मैं उसी नियाग्रा फाल की बात कर रहा हूं जो कि कनाडा और यू.एस. के बीच बहने वाली नियाग्रा नदी पर स्थित है। जबरदस्त प्राकृतिक छटा से भरपूर फाल को देखने की चाहत हर प्रकृति प्रेमी को रहती है। इस प्राकृतिक स्थल को प्रचारित करने में यू.एस. सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। सन 2009 में करीब 2 करोड़ पर्यटक नियाग्रा फाल को देखने पहुंचे। लेकिन क्या आपको पता है कि उतनी ही प्राकृतिक छटा से भरपूर जगह हमारे देश में भी है जिसे देखने बहुत कम लोग जाते हैं। जी हां, भारत के केरल प्रांत में चालकुडी नदी पर स्थित अथिरापल्ली प्रपात की तुलना नियाग्रा फाल से की जा सकती है। चंचल ‘चालकुडी’ नदी से 80 फुट ऊंचाई से गिरते प्रपात की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है, जिसकी सुन्दरता यकीनन होश उड़ा देती है। इतना ही नहीं चालकुडी नदी के वाझाचल इलाके को राज्य में सबसे ज्यादा मछली घनत्व वाला क्षेत्र माना जाता है। यह क्षेत्र दुर्लभ प्रजाति के कछुओं का निवास स्थल है। इसके अलावा इंटरनेशनल बर्ड एसोसिएशन ने इस क्षेत्र को ‘प्रमुख पक्षी क्षेत्र’ घोषित किया है एवं वाईल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने इसे भारत के हाथियों के सर्वोत्तम संरक्षण प्रयास के तौर पर नामित किया है। लेकिन कहावत है कि घर की मुर्गी दाल बराबर। इसलिए हमारे देश की सरकारें ऐसे जगह को महत्व नहीं देना चाहती। ऐसा आरोप मैं इसलिए लगा रहा हूं क्योंकि केरल सरकार चालकुडी नदी पर एक पनबिजली परियोजना लगाना चाहती है। प्रस्तावित पनबिजली परियोजना से 163 मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है। यह बात सब जानते हैं कि बिजली पैदा करने के लिए नदी पर बांध बनाना पड़ता है और बांध बनने से नदी का प्रवाह नियंत्रित होता है। अब ऐसे मामलों पर तमाम विशेषज्ञ चिल्लाते रहते हैं लेकिन सरकार को शायद ही कभी फर्क पड़ता है। लेकिन इस बार देर से ही सही आखिर केन्द्र सरकार ने सही दिशा में सोचना शुरू किया। जी हां, केरल में प्रस्तावित अथिरापल्ली पनबिजली परियोजना पर ब्रेक लग गया। केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने गत 4 जनवरी 2010 को परियोजना को दी गई मंजूरी वापस लेने की सिफारिश कर दी। साथ ही मंत्रालय ने इस संबंध में केरल राज्य विद्युत बोर्ड से 15 दिनों में अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा है।


यह परियोजना केरल के चालकुडी शहर के 35 किमी पूरब में चालकुडी-अन्नामलाई अंतरराज्यीय राजमार्ग से सटे हुए त्रिसुर डिविजन के वाझाचल जंगल में प्रस्तावित है। अधिकारिक सूत्रों के अनुसार बांध 23 मीटर ऊंची एवं 311 मीटर चैड़ी होगी। यह बांध पेनस्टोक के माध्यम से नदी के पानी को टरबाइन में मोड़कर उच्च मांग अवधि में बिजली उत्पादन के लिए प्रस्तावित है। केरल में चालकुडी नदी पर प्रस्तावित इस 163 मेगावाट की पनबिजली परियोजना को जुलाई 2007 में केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने मंजूरी दी थी। केन्द्र ने अपनी मंजूरी रिवर वैली एंड हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्टस के विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा अप्रैल 2007 में परियोजना स्थल पर भ्रमण करने के बाद दी गई सिफारिश के बाद दी थी। जबकि विशेषज्ञों का दावा है कि इस पेनस्टोक में नदी का 86 प्रतिशत पानी मोड़ दिया जाएगा, इस तरह नदी में वाटरफाल के लिए पानी ही नहीं बचेगा। भारत के चालकुडी स्थित रिवर रिसर्च सेंटर की समन्वयक ए. लता के अनुसार, विशेषज्ञ समिति की सिफारिश में काफी कमियां हैं। इस परियोजना से कादर आदिवासियों के 80 परिवार गंभीर रूप से प्रभावित होंगे। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि पर्यावरण मंत्रालय ने जब इतने शर्त तय कर दिए हैं तो परियोजना आर्थिक रूप से भी व्यवहार्य नहीं रह गई है। परियोजना को सैद्धांतिक मंजूरी मिलने के बाद विशेषज्ञों एवं पर्यावरणविदों की ओर से जोरदार विरोध के स्वर उभरे थे। विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये 675 करोड़ की प्र्रस्तावित लागत से बनने वाली इस परियोजना से 138.6 हेक्टेयर वन भूमि प्रभावित होगा, इससे अथिरापल्ली का नैसर्गिक प्रपात सूख जाएगा और इलाके में रहने वाले आदिवासी परिवार गंभीर रूप से प्रभावित होंगे।


इस परियोजना की कल्पना सबसे पहले सन 1998 में की गई थी। इसके लिए पोरिंगालकुथु बांध के अंतिम छोर के पानी को इस्तेमाल किए जाने का प्रस्ताव था। फरवरी 2000 में राज्य ने 138.6 हेक्टेयर वन भूमि के हस्तांतरण को मंजूरी दी। लेकिन व्यापक विरोध के कारण केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने इसे मंजूरी देने में काफी देर कर दी, और वह मंजूरी भी शर्तों के आधार पर मिली। वास्तव में जुलाई 2007 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दी गई मंजूरी शर्तों पर आधारित थी। इनमें आदिवासियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू करना, नदी से सिंचाई चैनल बंद करना, अथिरापल्ली वाटरफाल में नियमित न्यूनतम प्रवाह बनाए रखना, शिकार रोकने के उपाय करना और बांध की स्थापना से उत्पन्न हो सकने वाले पारिस्थितिकी बदलाव पर निगरानी करने के लिए निगरानी समिति की स्थापना के शर्त शामिल थे। इसके अलावा मंजूरी में निर्धारित अवधि में ही बिजली उत्पादन के लिए अनुमति दी गई थी, जो कि हर साल 1 फरवरी से 31 मई के बीच सायं 7 बजे से रात 11 बजे तक सिर्फ चार घंटे प्रतिदिन के लिए थी। मंत्रालय ने इस शर्त का प्रावधान खासकर इसलिए किया था ताकि कम प्रवाह वाले मौसम में उस क्षेत्र में आने वाले पर्यटकों का ध्यान रखा जा सके। शर्त में यह भी कहा गया था कि अथिरापल्ली वाटरफाल में प्रति सेकेंड 7.65 घनमी. का नियमित प्रवाह को बनाए रखने की प्राथमिकता के लिए जरूरत पड़ी तो बिजली बोर्ड को बिजली उत्पादन में समझौता करना चाहिए।


लेकिन तब से लेकर आज तक की परिस्थितियों में काफी बदलाव हो चुका है। अब केन्द्र सरकार ने सही दिशा में सोचना शुरू किया है लेकिन केरल सरकार परियोजना के निर्माण करने पर अड़ी हुई है। सवाल है कि जब यू.एस. सरकार नियाग्रा को बहुप्रचारित करके हर साल करोड़ो पर्यटकों को आकर्षित करके करोड़ो डाॅलर बटोर सकती है तो भारत सरकार अथिरापल्ली के लिए ऐसा क्यों नहीं करना चाहती? भारत में प्राकृतिक पर्यटन को अब तक उतना महत्व नहीं मिला है जितना मिलना चाहिए। नियाग्रा में आने वाले पर्यटकों से जितनी आय होती है उसका दस फीसदी भी अथिरापल्ली से नहीं होता है। इस मामले को औद्योगिक विकास बनाम प्रकृति के नजरिये से देखने के बजाय एक व्यापक नजरिये से देखने की जरूरत है। इस व्यापक नजरिये में सबसे महत्वपूर्ण है नदी को नदी बनाए रखा जाए, अर्थात नदी को बहने की पूरी आजादी दी जाए। अब पर्यावरण मंत्रालय के इस नये कदम से पर्यावरणवादियों एवं वन्यजीव प्रेमियों को एक उम्मीद जगी है कि जैवविविधता के मामले में भारत के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में से एक इस वाझाचल वन क्षेत्र के जैवविविधता को कायम रखा जा सकेगा और नदी का नियमित प्रवाह कायम रह पाएगा। इस तरह भारत के नियाग्रा के बचे रहने की उम्मीद अभी बाकी है।




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Tuesday, December 22, 2009

कितना दहशत फैलाना ठीक है!

कितना दहशत फैलाना ठीक है!

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

जी हां, यह सवाल मेरे जेहन में आया कि किस स्तर तक दहशत फैलाना ठीक होगा? यहां पर मैं कोई बालीवुड या हालीवुड की कोई डरावनी फिल्म की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि मैं तो सिर्फ एक टिप्पणी पर टिप्पणी करना चाहता हूं। यह टिप्पणी हमारे देश के पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने की है। यह टिप्पणी उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट को खारिज करते हुए की है जिसमें हिमालय के ग्लेशियरों के 2035 तक पूरी तरह गायब हो जाने का दावा किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) की 2007 की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय के ग्लेशियर दुनिया में सबसे तेजी से पिघलने वाले ग्लेशियर हैं। अगर यही हाल रहा तो 2035 तक या इससे पहले वे पूरी तरह गायब हो जाएंगे। इस रिपोर्ट के जवाब में जयराम रमेश ने कहा कि इतनी दहशत फैलाने की जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं केन्द्रीय मंत्री ने आईपीसीसी की रिपोर्ट पर सवालिया निशान लगाते हुए हिमालय के ग्लेशियरों पर एक अलग रिपोर्ट जारी की है। इस नयी रिपोर्ट ‘‘हिमालयन ग्लेशियर्स: ए स्टेट आॅफ दि आर्ट रिव्यू आॅफ ग्लेशियर स्टडीज, ग्लेशियर रिट्रीट एंड क्लाइमेट चेंज’’ को भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक वी. के. रैना ने तैयार किया है। मंत्री ने दावा किया है कि हिमालय के ग्लेशियरों में ऐसी कोई असमान्य स्थिति नहीं दिख रही है, जिससे लगे कि वे कुछ ही दशक में गायब हो जाएंगे।

अब सवाल यह उठता है कि एक ही बात के लिए दो रिपोर्ट मौजूद हैं और दोनों एक दूसरे के विपरीत दावे कर रहे हैं तो किसे सही माना जाय? या तो इस मामले पर कोई एक पक्ष झूठ बोल रहा है या तो उनके अध्ययन का तरीका ही गलत है। दोनों ही परिस्थिति में नुकसान तो हमारा ही है। चलिए हम भारत के पर्यावरण मंत्रालय के दावे पर एक नजर डाल लेते हैं। जयराम रमेश ने कहा कि छह साल पहले तक गंगोत्री ग्लेशियर प्रति वर्ष 22 मीटर की दर से घट रहा था, लेकिन 2004-05 में यह दर 12 मीटर रही। वर्ष 2007 से लेकर इस साल के मध्य तक ग्लेशियर यथावत ही हैं। उन्होंने इस आशंका को भी खारिज किया कि गलेशियर घटने से गंगा और अन्य हिमालयी नदियां सूख जाएंगी। उनका यह भी कहना है कि हिमालय के ग्लेशियरों की अंटार्टिक ग्लेशियर से तुलना ठीक नहीं है, क्योंकि हिमालय के ग्लेशियर ज्यादा ऊंचाई पर हैं। अपने दावे के पक्ष में उन्होंने कई उदाहरण भी दिए हैं। इनमें प्रमुख रूप हिमालय के पूर्वी और पश्चिमी ग्लेशियरों में पिछले कुछ वर्षों में परिवर्तन की दर को मुख्य आधार मानते हुए दो साल का अवलोकन शामिल है। अब मोटी सीे बात यह है कि ये बाते हमारे देश के अधिकारिक विभाग के माध्यम से कहा जा रहा है तो फिर आईपीसीसी के रिपोर्ट पर ही सवाल उठते हैं!

चलिए अब आईपीसीसी के पक्ष पर भी विचार करते हैं। जयराम रमेश के दावे को तो सबसे पहले आईपीसीसी प्रमुख ने ही खारिज कर दिया है। यह बात काफी दिलचस्प है कि आईपीसीसी के प्रमुख और कोई नही बल्कि भारत और खासकर भारत के हिमालयी क्षेत्र नैनीताल में जन्में आर. के. पचैरी हैं। वे जलवायु परिवर्तन पर हमारे देश के प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में सदस्य हैं। इसके अलावा भारत के एक महत्वपूर्ण संस्थान दि एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टेरी) के महानिदेशक हैं। इतना ही नहीं वे भारत के चुनिंदा नोबल पुरस्कार प्राप्त व्यक्तियों मे से एक हैं। उनका कहना है कि आईपीसीसी के हजारो वैज्ञानिकों के शोध को रैना ने मात्र दो साल के अवलोकन के आधार ठुकरा दिया है जो कि जल्दबाजी वाली बात है। इसके अलावा आईपीसीसी की रिपोर्ट ठोस वैज्ञानिक एवं प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर तैयार किए गए हैं, जबकि भारत की सरकारी रिपोर्ट में ज्यादातर द्वितीयक आंकड़ों का सहारा लिया गया है।

इतना ही नहीं जयराम रमेश के दावे के विपरीत भारत की एक पर्यावरणीय संगठन ‘रिसर्च फांउडेशन फाॅर सांइस टेक्नाॅलाजी एंड इकोलाजी’ ने अपने नवीनतम शोध के आधार पर दावा किया है कि पिछले कुछ दशक में उत्तराखंड की 34 प्रतिशत जलधाराएं अब मौसमी बन चुकी हैं। जल की निकासी में 67 प्रतिशत तक कमी आई है। रिसर्च फांउडेशन की प्रमुख डा. वंदना शिवा का कहना है कि सरकारी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन जैसी जटिल समस्या को केवल तापमान वृद्धि तक ही सीमित कर दिय गया है। हालांकि रिपोर्ट में मौसमी बर्फबारी व ग्लेश्यिरों के खिसकने की बात स्वीकार की गई है। बावजूद इसके पर्यावरण मंत्री यह दावा कर रहे हैं कि हिमालय के ग्लेशियर पिघल नहीं रहे हैं। इन सबके बावजूद सरकारी रिपोर्ट के दावों में ही आपसी विरोधाभास स्पष्ट दिखता है।

हालांकि सरकार अपने रिपोर्ट को रक्षा विभाग से जोड़कर और उसे गोपनीय बताकर इसे सावर्जनिक नहीं कर रही है। ऐसे में रिपोर्ट को कुछ सरकारी लोगों द्वारा ही अवलोकन करके बड़े बड़े दावे करना कितना उचित है? अब सवाल उठता है कि क्या इन विरोधाभासी बातों में किसी का निहित स्वार्थ है? सवाल है कि रिपोर्ट ऐसे समय जारी की गई है जब कोपेनहेगन में 7 से 18 दिसम्बर 2009 तक संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होने वाला है। तो ऐसा तो नहीं कि भारत सरकार के प्रतिनिधि सम्मेलन में जो अपना पक्ष रखने चाहते हैं उसके पूर्व तैयारी के तौर पर ही ऐसे बयान सार्वजनिक किए जा रहे हैं। हो सकता है कि ऐसे बयान से भारतीय पक्ष को सुविधा हो सकती है, लेकिन भारत के हिमालयी क्षेत्र के निवासी जो प्रत्यक्ष रूप से संकट का सामना कर रहे हैं उससे कौन निजात दिलाएगा? पर्यावरण सम्बंधी ऐसे महत्वपूर्ण रिपोर्ट के आंकड़ों को ही आधार बनाकर दुनिया भर के शोधार्थी छोटे-छोटे स्तर पर शोध करते हैं, क्योंकि इतने व्यापक स्तर पर शोध करना किसी छोटी संस्था या व्यक्ति के औकात से बाहर की बात है। जब बड़े शोध में ही आपस में विरोधाभास हो तो फिर द्वितीयक आंकड़े के तौर पर इनकी क्या प्रासंगिकता रह जाती है? यह बात तो जग जाहिर है कि दुनिया के हरे देशों में प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है, क्योंकि उस समय ज्यादातर ऐतिहासिक घटनाओं का सिलसिलेवार दस्तावेजीकरण नहीं किया था। ऐतिहासिक सन्दर्भों में विरोधाभास तो मौजूदा विचारधारा के विरोधाभास के कारण भी होता है। लेकिन क्या पर्यावरणीय मुद्दों पर भी विचारधारा में अंतर की वजह से ऐसा विरोधाभास है?

बात चाहे कुछ भी हो आखिर दोनो स्थितियों में नुकसान तो आम लोगों का ही है। भागीरथी, मंदाकिनी, यमुना एवं अलंकनंदा घाटियों में पर्यावरणीय संकट के असर दिखने शुरू हो चुके हैं। इन इलाकों में चारों एवं पशुओं की संख्या बहुत तेजी से घट रही है। जिन जगहों में साल के ज्यादातर समय बर्फ बिछी रहती थी वहां के जंगलों में आग लगने की घटनाएं आम हो चुकी हैं। गंगोत्री अपने मूल स्थान से पीछे हट चुकी है। पहाड़ी फलों पर गर्मियों के असर के कारण उन्हें अब दो हजार मीटर ऊपर लगाया जा रहा है। हिमालयी क्षेत्र के निवासी इन परिस्थितियों का सामना करते हुए दहशत में जी रहे हैं। लेकिन हमारे देश के पर्यावरण मंत्री कहते हैं कि इतनी दहशत फैलाने की जरूरत नहीं है। तो ठीक है आप ही बताएं कि कितने दहशत में रहना ठीक है? माननीय जयराम रमेश जी, अब बस कीजिए। लोगों को बहलाना बंद करें और सच का समाना करें और समस्या का हल खोजना शुरू करें। बहुत भला होगा यदि भारत के प्रतिनिधि कोपेनहेगन सम्मेलन में सच स्वीकार करके समस्या के हल के लिए दुनिया का आह्वान करें। नहीं तो इतनी देर हो चुकी होगी कि परिस्थिति किसी के काबू में नहीं रहेगी।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 30 नवम्बर 2009)

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