Friday, January 29, 2010

नजरिए का फर्क

नजरिए का फर्क
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

वर्ष 2009 के अंत में रिलीज हुई फिल्म ‘‘थ्री इडियट्स’’ को बॉक्स आफिस पर जबरदस्त सफलता मिली। फिल्म को सफलता मिली तो स्वाभाविक रूप से फिल्म चर्चा के साथ-साथ विवादों में भी रही। ऐसे में मुझे फिल्म के बारे में बहुत सारी टिप्पणियां पढ़ने को मिली। कुछ तो अखबारों में, तो कुछ ईमेल व इंटरनेट के जरिये पढ़ने को मिली। मैने देखा कि कुछ ऐसे लोगों ने फिल्म पर टिप्पणी की है जो लेखक, शोधार्थी, समाजकर्मी या टिप्पणीकार तो हैं लेकिन फिल्मों पर टिप्पणी कभी-कभार ही करते हैं। उनमें सबसे रोचक टिप्पणी हमारे वरिष्ठ साथी श्रीपाद ने की है। श्रीपाद धर्माधिकारी के बारे में बताते चलें कि वे अस्सी के दशक के आईआईटी मुम्बई के प्रोडक्ट हैं, और करीब दो दशक तक नर्मदा एवं विभिन्न आंदोलनों से जुड़े रहने के बाद वर्तमान में ‘‘मंथन’’ अध्ययन केन्द्र के माध्यम से शोध एवं विश्लेषण में लगे हुए हैं। मंथन का विशेष फोकस अर्थव्यवस्था के उदारीकरण, वैश्वीकरण एवं निजीकरण के फलस्वरूप होने वाले नवीनतम विकास के मुद्दों पर रहता है।

हां, तो श्रीपाद की टिप्पणी इसलिए रोचक हैं क्योंकि उन्होंने इसे अपने जीवन में देखे गए तमाम फिल्मों में से सबसे बेकार फिल्म की श्रेणी में रखा है। श्रीपाद इसे बेहूदा हरकतों वाली एक उबाऊ फिल्म मानते हैं। इस टिप्पणी के बाद मैं भी इस फिल्म पर टिप्पणी करने से खुद को नहीं रोक पाया। या यूं कह सकते हैं कि अन्य लोगों की ही तरह इस बहती गंगा में हाथ धोने के लोभ से खुद को रोक नहीं पाया। मैंने भी यह फिल्म देखी है। यह फिल्म मुझे लीक से हटकर लगी। इसलिए फिल्म के बारे में तमाम टिप्पणियों को मैने पढ़ा, लेकिन श्रीपाद के अलावा किसी ने भी फिल्म पर नकारात्मक टिप्पणी नहीं की है।

शिक्षाविद एवं आईआईपीएम के प्रमुख अरिंदम चैधरी जो कि मैनेजमेंट गुरू माने जाते हैं, उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि, ‘‘दुनिया के किसी भी हिस्से में शिक्षा तंत्र पर बनी तकरीबन सभी फिल्मों को देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि मैंने इससे बेहतर फिल्म नहीं देखी है।’’ उनका मानना है कि लेखक नैतिकतावादी हुए बगैर विशुद्ध वाणिज्यिक अंदाज में लोगों तक एक सार्थक संदेश पहुंचाते हैं। वास्तव में इस फिल्म के जरिए हमारी शिक्षा व्यवस्था को चलाने वाले कई इडियट्स और इसे बगैर कोई सवाल किए अपनाने वाले लाखों इडियट्स को एक ठोस संदेश दिया गया है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी हर्ष मंदर जी को एक विचारवान व सिद्धांतवादी समाजकर्मी के तौर पर जाना जाता है। वे मानते हैं कि, दोस्ती के शानदार उत्सव, लीक से हटकर और रचनात्मकता से भरी इस फिल्म ने जल्द ही पूरे देश का दिल जीत लिया। वे कहते हैं कि, इस फिल्म के लेखक अपने दर्शकों से जिंदगी के सार्वजनिक सबकों की बात करते हैं, लहरों के खिलाफ तैरने के साहस की बात करते हैं, वे उन बातों के बारे में कहते हैं, जो पैसे से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे ज्ञान प्राप्ति और परीक्षा में सफलता के बीच अंतर की बात कहते हैं। वे ये तमाम बातें बुद्धि, कोमलता और अंतर्दृष्टि के साथ करते हैं। वे लोकप्रिय सिनेमा के व्याकरण और मुहावरे का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन शरारत के साथ। ऐसा करते हुए वे एक मौलिक और विचारमान सिनेमा का सृजन करते हैं, लेकिन वह उपदेशात्मक नहीं है, वह मनोरंजन प्रधान है, लेकिन बेतुका नहीं है, वह विध्वंसकारी है, लेकिन दोषदर्शी नहीं है। कुल मिलाकर इसे वे फिल्मों में असली किरदारों की वापसी के नजरिए से देखते हैं।

फिल्मों के बारे में ज्यादातर गॉशिप पढ़ने को मिलता है। लेकिन कुछ ऐसे भी लेखक हैं जो कि पूरी संवेदना के साथ भारतीय फिल्म के हर पहलू पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हैं, इनमें जयप्रकाश चौकसे का नाम प्रमुख है। इनका कहना है कि ‘थ्री इडियट्स’ की समीक्षा पारंपरिक मानदंडों पर नहीं की जानी चाहिए। यह फिल्म स्वतंत्र विचार शैली के महत्व को रेखांकित करते हुए घोटा लगाने वाली शास्त्रीयता के खिलाफ सार्थक विरोध प्रकट करती है। ‘कैसे कहा गया’ से ज्यादा महत्व ‘क्या कहा जा रहा है’ पर है। सदियों से व्यवस्थाएं स्वतंत्र सोच और निष्पक्ष विचार शैली को दबाकर ही अपनी सड़ांध और स्वार्थ को टिकाए रखे हैं, और यह फिल्म उनके गढ़ में विस्फोट करती है।

जहां तक फिल्म में चेतन भगत के किताब ‘‘फाइव प्वाइंट समवन’’ को श्रेय देने का विवाद है तो इसमें कोई दम नहीं है। सोचने वाली बात है कि फिल्म के बनने के बहुत पहले ही चेतन भगत को एक अनुबंध के जरिए रुपये 10 लाख का भुगतान कर दिया गया था, और उन्हें क्लोजिंग क्रेडिट देने पर सहमति हुई थी। फिल्म में उन्हें वह क्रेडिट दिया भी गया। लेकिन जब फिल्म चल निकली तो वे फिल्म में ओपनिंग क्रेडिट की बात करने लगे। यदि फिल्म फ्लॉप हो जाती तो क्या वे ऐसी मांग करते? इसके बावजूद सच तो यह है कि फिल्म किताब से बिल्कुल अलग है, और उनमें मात्र 10-12 फीसदी ही समानता है। यह किताब जबरदस्त फिलॉस्फी से भरी पड़ी है, और यह ज्यादातर आईआईटी के माहौल की डायरी की तरह है जो कि किसी शिक्षा तंत्र में बदलाव के लिए सोचने पर विवश नहीं करती है।

यदि हम अपने दायरे को और बड़ा करें तो हो सकता है कि श्रीपाद जैसे या कुछ भिन्न विचार वाले कुछ और लोग मिल जाएं। आखिर एक ही चीज पर सोच में इतना बड़ा अंतर क्यों है? इस बारे में मेरा मानना है कि यह ‘‘नजरिए का फर्क’’ है। नजरिए में इस फर्क का पहली बार अहसास मुझे सन 1993 में हुआ जब मैं रिलीज के पहले दिन फिल्म ‘1942 ए लव स्टोरी’ देखने पहुंचा। मेरी समझ से वह देशभक्ति की चासनी में लपेटी हुई एक अच्छी संगीत प्रधान फिल्म थी। लेकिन हाॅल में घुसने से पहले फिल्म देखकर निकल रहे दर्शकों से उनकी राय के बारे में पूछा। ज्यादातर दर्शकों ने काफी निराशाजनक टिप्पणी की थी। लेकिन पूरी फिल्म देखने के बाद पता चला कि रिलीज के पहले दिन फिल्म देखने आने वाले दर्शकों का नजरिया बिल्कुल अलग होता है। ऐसे दर्शक फिल्म से कुछ और ही उम्मीद करते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि किसी भी फिल्म को देखने के पहले बहुत बड़ी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। यदि किसी फिल्म से बहुत ज्यादा उम्मीद कर ली जाय तो उसे देखने पर निराशा हाथ लगती है। लोगों के नजरिए में फर्क होने के कारण ही कई बार कुछ फिल्में एकल सिनेमा हाॅल में सफल होती हैं तो वे मल्टीप्लेक्स में नहीं चलती, और कई बार इसका उल्टा होता है। इसी नजरिए के फर्क के कारण सत्तर अस्सी के दशक के कई सफल निर्माता व निर्देशक आज लाचार नजर आते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अब तक दुनिया भर में बहुत बदलाव आए हैं। इन बदलावों ने जहां तकनीक को ज्यादा उन्नत बनाया है तो परिस्थिति के अनुसार लोगों का विचार भी बदला है। इसी वजह से सन 1975 में रिलीज हुई फिल्म ‘शोले’ या ‘जय संतोषी मां’ को जो जबरदस्त सफलता मिली वह शायद आज की परिस्थिति में न हो पाता। ज्यादातर फिल्में काल्पनिक कथाओं पर आधारित होती हैं, लेकिन कई बार उनमें यथार्थ का पुट होता है। यही यथार्थ का पुट उन्हें अन्य फिल्मों से अलग साबित करता है, और ऐसी फिल्में कई बार खास संदेश दे जाती हैं। किसी खास अंदाज में कहे गए ऐसे बहुतेरे संदेश या फिलॉस्फी का फंडा काफी बोरिंग लगता है तो कई लोगों के लिए वह सीख का विषय होती है। दादा साहब फाल्के ने कहा था कि जब सिनेमा अपने मनोरंजन तत्व से सामाजिक प्रतिबद्धता को निकाल देगा, तब वह महज तमाशा बनकर रह जाएगा। अनेक लोग आज तमाशा बना रहे हैं, लेकिन कुछ निर्माता या निर्देशक दर्शक के विश्वास को जीवित रखते हैं।

जहां तक मैं समझता हूं कि श्रीपाद जैसे लोग ऐसे माहौल में बड़े हुए हैं जहां उन पर जिंदगी थोपी नहीं गई है। जरा देश के उन लाखों बेबस युवाओं के बारे में भी विचार करें कि जिन्हें थोपी हुई हुई जिंदगी मिली है। स्कूलों में 12-13 साल गुजारने वाले ज्यादातर बच्चों को यह पता नहीं होता कि वे क्या पढ़ रहे हैं और इससे उनके जीवन में क्या बदलाव आने वाला है। शिक्षकों के मन में किसी के जीवन में थोड़ा भी बदलाव लाने या पढ़ाई को दिलचस्प बनाने का भाव नहीं होता है। अभिभावक भी अपने बच्चों के जरिए अपने अधूरे सपनों को पूरा करना चाहते हैं, और इस चक्कर में वे अपने बच्चों का जीवन बर्बाद कर रहे हैं। इन तथाकथित सपनों को पूरा करने के लिए अभिभावक अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा अंक हासिल करने की गलाकाट होड़ के लिए मजबूर करते हैं। यह ऐसी होड़ है जिससे किसी को फायदा नहीं होता है। अस्सी के दशक के आईआईटी कैंपस और आज के आईआईटी कैंपस में काफी फर्क आ चुका है, और शायद यह फर्क विचारों का है। इसीलिए आज के आईआईटी के छात्र गुनगुना रहे हैं, ‘‘गिव मी सम सनशाइन, गिव मी सम रेन, गिव मी अनदर चांस, आई वाना ग्रो अप वंस अगेन।’’ यदि हम नई पीढ़ी के इस नजरिए को समझने की कोशिश करें तो ‘‘थ्री इडियट्स’’ को बेहतर समझ पाएंगे।

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1 comment:

noukoghar said...

to me the film is rare, very rare, in terms of its massage to the world on Rat Race, on Degree and on Power of memory. Creativity is something which has its implication far beyound. Three IDIOTS are not at all -idiots.
i would like to see the movie again and again. please if you have not seen it, see it and insist others also to see it.