*बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
दुनिया भर में वनों एवं वन समुदायों का अस्तित्व आज संकट में है। यह संकट सिर्फ पर्यावरण या आर्थिक नहीं है बल्कि यह सभ्यताओं का संकट है। यह दुनिया भर में मूल वनवासियों के सदियों से अर्जित ज्ञान, जीवन शैली, उनकी प्रकृति और आज के पूंजीवादी ज्ञान, ताकनालॉजी, पाशविक प्रवृति के बीच का संकट है। शक्ति, सीमा, मुनाफा, शोषण दुनिया की हर चीज के ऊपर बाजारवाद का अधिकार है। आज की दुनिया में हर कोई एक दूसरे का शोषण करता चाहता है। लेकिन ऐसी सोच के साथ वनवासियों को बाजारवाद में शामिल करने की इच्छा रखने वालों को इनकार का संदेश दिया है वन समुदायों ने।
यह संदेश देश भर के 16 प्रांतो से आए वनवासियों, आदिवासियों, मजदूरों, महिलाओं व पुरूषों ने 10 से 12 जून 2009 को देहरादून में तीन दिनों की गहन चर्चा के बाद दिया। सम्मेलन राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच के नेतृत्व में आयोजित की गई थी। राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच सालों से वन समुदाय के अधिकार के लिए संघर्षरत है जब 2006 में भारत सरकार ने वनाधिकार कानून लागू करने की घोषणा की थी उस समय मंच ने रांची में आयोजित अपने द्वितीय राष्ट्रीय सम्मेलन में दो महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए थे। पहला यह कि वनों पर वनाश्रित समुदायों के स्वशासन को स्थापित करना एवं दूसरा यह कि वनों के बाजारीकरण का विरोध करना। आज एक बार फिर मंच द्वारा आयोजित सम्मेलन में वन समुदायों ने कहा कि, ‘‘हमने तो सदियों से पेड़़ जंगल, हवा, पानी और अन्य वननिवासियों, यहां तक कि जानवरों से भी उनमुक्त रहना सीखा है। लेकिन सीमाहीन रहते हुए भी प्राकृतिक सीमाओं में बंधे रहना जानते हैं। अपने संकटों से निपटने के लिए, अपने मूल्यों के साथ जीने के लिए कानून की राजनैतिक सरंचनाओं की जरूरत नहीं है बल्कि हम वनवासी प्राकृतिक नियमों को जानते और मानते हैं, जो कि सदियों से प्रकृति के साथ रहते हुए हमने सीखे हैं।’’
सम्मेलन में आह्वान आह्वान किया गया कि, ‘‘वनाधिकार कानून हमारी नहीं, हमसे ज्यादा शोषणकर्ताओं की जरूरत है। हम सदियों से जंगलों में हैं। इन जंगलों में हमारे पूर्वजों की आत्मा, हमारे देवता हमारे दोस्त और हमारा-जीवन निहित है। हम हक की बात करने से भी पीछे नहीं हटेंगे लेकिन अगर चंद कागज के टुकड़ों से आप थोड़े से जंगल वन समुदायों का हक मान कर बाकी जंगलों का व्यापार करना स्वीकार नहीं किया जाएगा। जंगल ने हमें सिखाया है कि शक्ति अनंत नहीं होती, शोषण भी अनंत नहीं होता है। हमारे मेहनतकश मजदूर, दलित-आदिवासी इन जंगलों को सिर्फ उपयोग की दृष्टि से नहीं देखते बल्कि उनमें जीवन का संचार भी देखते हैं।’’
देहरादून सम्मेलन के माध्यम से पूरे विश्व के वनवासी, आदिवासी, मजदूर और वन संस्कृति और सोच को समझने और जानने वाले लोगों को एकजुट होकर अपने संघर्षों मे शामिल होने के लिए आह्वान किया गया। साथ ही दुनिया भर में पूंजीवाद के खिलाफ और उनकी लूट के विरोध में चल रहे संघर्षों को तेज करने का आह्वान किया गया। सम्मेलन में वनों एवं वन समुदायों की रक्षा के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं:
- हम व्यक्तिगत अधिकारों से पहले सामुदायिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सामूहिक रुप से संघर्ष करेंगे।
- वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिए सरकार व जिम्मदेार अधिकारियों के साथ लगातार सम्पर्क व वार्ताएं करगें। कानून के प्रचार प्रसार के लिए सरकार पर दबाव बनाएंगें व अपने संसाधनों से भी इसका प्रचार प्रसार करगें।
- जंगल की जमीन जिस पर हमारा जन्मसिद्व अधिकार है, और वनाधिकार कानून में भी जिस पर हमारे मालिकाना हक की बात की गयी है, सरकारों द्वारा की जा रही उनके पट्टा वितरण की बात का विरोध करते हुए भूमिहारी के लिए संघर्ष करेंगे। अगर जरुरत पडी़ तो हम सरकार के खिलाफ न्यायालयों में भी जाएंगे।
- वन टांगिया, गोठ, खटत्ते व घुमंतु समुदाय के तमाम ऐसे वन गांव जिन्हें अभी तक राजस्व का दर्जा नहीं दिया गया है, उन्हें जल्द से जल्द राजस्व के खातों में दर्ज कराने के लिए संघर्ष करेंगे।
- जंगल में पीढ़ियों से पारंपरिक रुप से मवेशी पालन पर निर्भर रहते हुऐ घुमंतु जीवन व्यतीत करने वाले समुदायों के लोगों व आदिम जनजातियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करंेगे।
- ऐसे तमाम अभिलेख जिनमें हमारे अधिकार दर्ज किए गए हंै हम उन्हें सरकारी अभिलेखागारों आदि से इकट्ठा करेंगे।
- जंगल की जमीनों पर हमला करने वाली तमाम कंपनियों को रोकने के लिए आंदोलन करके सरकार पर दबाव बनाएंगे।
- लघु वनोपज पर अधिकार पाने के लिए इसकी सूचियां बनाएंगे।
- वनों के बाजारीकरण के खिलाफ संघर्ष को तेज करेंगे।
- हम जगह-जगह पर वनाधिकार सम्मेलन और जनसुनवाईयों का आयोजन करेंगे।
- हमारी बात को नहीं समझा गया तो संसद के सामने भूख हड़ताल पर बैठेंगे। घेराव करेंगे।
- अपनी लड़ाई को जनवादी तरीके से लड़ने के लिए मोर्चाबंदी करेंगे।
- ऐसे राजनैतिक दल जो हमारे हकांे की बात नहीं करते चुनावों के दौरान उनका बहिष्कार करेंगे।
- सरकारों द्वारा बरती जा रही लापरवाहियों व कमजोरियों का खुलासा मीडिया के सामने करेंगे।
- वन विभाग व पुलिस द्वारा वन समुदायों का उत्पीड़न करने पर इनको मंुह तोड़़ जवाब देंगे।
- हम अपने लक्ष्यों को पाने के लिए सभी इलाकों में अपने संगठनों को मजबूत करेंगे। व सभी संगठनों को एक जगह पर इकट्टा करके अपनी लड़ाई को मजबूती से लड़ेंगे।
- यह लड़ाई हम अपने समुदाय के नेतृत्वकारी लोगों ‘खासकर महिलाओं’ की अगुवाई में लड़ेंगे।
- इस तरह से हम वनों पर वन समुदायों का स्वशासन स्थापित करने के अपने मूल लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाबी हासिल करेंगे।
सममेलन में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि जंगल की आग, अवैध पेड़ों की कटाई, बढत़ी गर्मी, घटती वर्षा, इन सारी प्राकृतिक आपदाओं के लिए वनवासियों व आदिवासियों को दोषी ठहराया जाता है और वनवासियों को जंगल से दूर रखने की साजिश रचा जाता है। आप बाघों और वन्य प्राणियों की रक्षा के नाम पर जंगल छोड़ने को कहा जाता है। न्याय के नाम पर यह अन्याय है। यह संकट का समाधान नहीं, विनाश की ओर एक कदम है। कम से कम अपने लिए नहीं तो आने वाली पीढ़ी को इस संकट से बचाने के लिए, पीढ़ी दर पीढ़ी की योजना बनानी ही होगी। दुनिया की सभी सभ्यताओं व वनवासियों को मिलकर यह काम करना होगा। इसलिए प्रकृति के साथ वन समुदायों के रिश्तों को समझने की जरूरत है।
(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, नई दिल्ली - 29 जून 2009)