Tuesday, July 14, 2009

वन समुदायों द्वारा अधिकार के प्रति आह्वान

*बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

दुनिया भर में वनों एवं वन समुदायों का अस्तित्व आज संकट में है। यह संकट सिर्फ पर्यावरण या आर्थिक नहीं है बल्कि यह सभ्यताओं का संकट है। यह दुनिया भर में मूल वनवासियों के सदियों से अर्जित ज्ञान, जीवन शैली, उनकी प्रकृति और आज के पूंजीवादी ज्ञान, ताकनालॉजी, पाशविक प्रवृति के बीच का संकट है। शक्ति, सीमा, मुनाफा, शोषण दुनिया की हर चीज के ऊपर बाजारवाद का अधिकार है। आज की दुनिया में हर कोई एक दूसरे का शोषण करता चाहता है। लेकिन ऐसी सोच के साथ वनवासियों को बाजारवाद में शामिल करने की इच्छा रखने वालों को इनकार का संदेश दिया है वन समुदायों ने।

यह संदेश देश भर के 16 प्रांतो से आए वनवासियों, आदिवासियों, मजदूरों, महिलाओं व पुरूषों ने 10 से 12 जून 2009 को देहरादून में तीन दिनों की गहन चर्चा के बाद दिया। सम्मेलन राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच के नेतृत्व में आयोजित की गई थी। राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच सालों से वन समुदाय के अधिकार के लिए संघर्षरत है जब 2006 में भारत सरकार ने वनाधिकार कानून लागू करने की घोषणा की थी उस समय मंच ने रांची में आयोजित अपने द्वितीय राष्ट्रीय सम्मेलन में दो महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए थे। पहला यह कि वनों पर वनाश्रित समुदायों के स्वशासन को स्थापित करना एवं दूसरा यह कि वनों के बाजारीकरण का विरोध करना। आज एक बार फिर मंच द्वारा आयोजित सम्मेलन में वन समुदायों ने कहा कि, ‘‘हमने तो सदियों से पेड़़ जंगल, हवा, पानी और अन्य वननिवासियों, यहां तक कि जानवरों से भी उनमुक्त रहना सीखा है। लेकिन सीमाहीन रहते हुए भी प्राकृतिक सीमाओं में बंधे रहना जानते हैं। अपने संकटों से निपटने के लिए, अपने मूल्यों के साथ जीने के लिए कानून की राजनैतिक सरंचनाओं की जरूरत नहीं है बल्कि हम वनवासी प्राकृतिक नियमों को जानते और मानते हैं, जो कि सदियों से प्रकृति के साथ रहते हुए हमने सीखे हैं।’’

सम्मेलन में आह्वान आह्वान किया गया कि, ‘‘वनाधिकार कानून हमारी नहीं, हमसे ज्यादा शोषणकर्ताओं की जरूरत है। हम सदियों से जंगलों में हैं। इन जंगलों में हमारे पूर्वजों की आत्मा, हमारे देवता हमारे दोस्त और हमारा-जीवन निहित है। हम हक की बात करने से भी पीछे नहीं हटेंगे लेकिन अगर चंद कागज के टुकड़ों से आप थोड़े से जंगल वन समुदायों का हक मान कर बाकी जंगलों का व्यापार करना स्वीकार नहीं किया जाएगा। जंगल ने हमें सिखाया है कि शक्ति अनंत नहीं होती, शोषण भी अनंत नहीं होता है। हमारे मेहनतकश मजदूर, दलित-आदिवासी इन जंगलों को सिर्फ उपयोग की दृष्टि से नहीं देखते बल्कि उनमें जीवन का संचार भी देखते हैं।’’

देहरादून सम्मेलन के माध्यम से पूरे विश्व के वनवासी, आदिवासी, मजदूर और वन संस्कृति और सोच को समझने और जानने वाले लोगों को एकजुट होकर अपने संघर्षों मे शामिल होने के लिए आह्वान किया गया। साथ ही दुनिया भर में पूंजीवाद के खिलाफ और उनकी लूट के विरोध में चल रहे संघर्षों को तेज करने का आह्वान किया गया। सम्मेलन में वनों एवं वन समुदायों की रक्षा के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं:
  • हम व्यक्तिगत अधिकारों से पहले सामुदायिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सामूहिक रुप से संघर्ष करेंगे।
  • वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिए सरकार व जिम्मदेार अधिकारियों के साथ लगातार सम्पर्क व वार्ताएं करगें। कानून के प्रचार प्रसार के लिए सरकार पर दबाव बनाएंगें व अपने संसाधनों से भी इसका प्रचार प्रसार करगें।
  • जंगल की जमीन जिस पर हमारा जन्मसिद्व अधिकार है, और वनाधिकार कानून में भी जिस पर हमारे मालिकाना हक की बात की गयी है, सरकारों द्वारा की जा रही उनके पट्टा वितरण की बात का विरोध करते हुए भूमिहारी के लिए संघर्ष करेंगे। अगर जरुरत पडी़ तो हम सरकार के खिलाफ न्यायालयों में भी जाएंगे।
  • वन टांगिया, गोठ, खटत्ते व घुमंतु समुदाय के तमाम ऐसे वन गांव जिन्हें अभी तक राजस्व का दर्जा नहीं दिया गया है, उन्हें जल्द से जल्द राजस्व के खातों में दर्ज कराने के लिए संघर्ष करेंगे।
  • जंगल में पीढ़ियों से पारंपरिक रुप से मवेशी पालन पर निर्भर रहते हुऐ घुमंतु जीवन व्यतीत करने वाले समुदायों के लोगों व आदिम जनजातियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करंेगे।
  • ऐसे तमाम अभिलेख जिनमें हमारे अधिकार दर्ज किए गए हंै हम उन्हें सरकारी अभिलेखागारों आदि से इकट्ठा करेंगे।
  • जंगल की जमीनों पर हमला करने वाली तमाम कंपनियों को रोकने के लिए आंदोलन करके सरकार पर दबाव बनाएंगे।
  • लघु वनोपज पर अधिकार पाने के लिए इसकी सूचियां बनाएंगे।
  • वनों के बाजारीकरण के खिलाफ संघर्ष को तेज करेंगे।
  • हम जगह-जगह पर वनाधिकार सम्मेलन और जनसुनवाईयों का आयोजन करेंगे।
  • हमारी बात को नहीं समझा गया तो संसद के सामने भूख हड़ताल पर बैठेंगे। घेराव करेंगे।
  • अपनी लड़ाई को जनवादी तरीके से लड़ने के लिए मोर्चाबंदी करेंगे।
  • ऐसे राजनैतिक दल जो हमारे हकांे की बात नहीं करते चुनावों के दौरान उनका बहिष्कार करेंगे।
  • सरकारों द्वारा बरती जा रही लापरवाहियों व कमजोरियों का खुलासा मीडिया के सामने करेंगे।
  • वन विभाग व पुलिस द्वारा वन समुदायों का उत्पीड़न करने पर इनको मंुह तोड़़ जवाब देंगे।
  • हम अपने लक्ष्यों को पाने के लिए सभी इलाकों में अपने संगठनों को मजबूत करेंगे। व सभी संगठनों को एक जगह पर इकट्टा करके अपनी लड़ाई को मजबूती से लड़ेंगे।
  • यह लड़ाई हम अपने समुदाय के नेतृत्वकारी लोगों ‘खासकर महिलाओं’ की अगुवाई में लड़ेंगे।
  • इस तरह से हम वनों पर वन समुदायों का स्वशासन स्थापित करने के अपने मूल लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाबी हासिल करेंगे।

सममेलन में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि जंगल की आग, अवैध पेड़ों की कटाई, बढत़ी गर्मी, घटती वर्षा, इन सारी प्राकृतिक आपदाओं के लिए वनवासियों व आदिवासियों को दोषी ठहराया जाता है और वनवासियों को जंगल से दूर रखने की साजिश रचा जाता है। आप बाघों और वन्य प्राणियों की रक्षा के नाम पर जंगल छोड़ने को कहा जाता है। न्याय के नाम पर यह अन्याय है। यह संकट का समाधान नहीं, विनाश की ओर एक कदम है। कम से कम अपने लिए नहीं तो आने वाली पीढ़ी को इस संकट से बचाने के लिए, पीढ़ी दर पीढ़ी की योजना बनानी ही होगी। दुनिया की सभी सभ्यताओं व वनवासियों को मिलकर यह काम करना होगा। इसलिए प्रकृति के साथ वन समुदायों के रिश्तों को समझने की जरूरत है।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, नई दिल्ली - 29 जून 2009)
पन्ना चला सरिस्का की राह
*बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

मध्य प्रदेश का पन्ना राष्ट्रीय उद्यान 974 वर्ग किमी में फैला हुआ है और भारत का जाना माना बाघ रिजर्व है। माफी चाहता हूं, शायद कभी था! ऐसा इसलिए कि अब यह समाचार अधिकारिक है कि पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में बाघ नहीं बचे हैं जहां करीब 6 साल पहले 40 से ज्यादा बाघ थे। पन्ना में बाघ न होने की पुष्टि मध्य प्रदेश के वन मंत्री राजेन्द्र शुक्ल ने अधिकारिक रिपोर्ट में की है। इससे पहले प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व प्रमुख पी के सेन के नेतृत्व में विशेष जांच दल ने पन्ना राष्ट्रीय उद्यान जाकर मामले की जांच की और अपनी अंतरिम रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंप दी है। दल ने विभिन्न स्तरों पर जांच एवं पूछताछ करने के बाद दावा किया है कि पन्ना में एक भी बाघ नहीं बचे हैं। दल ने जून माह के अंत में अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपने की बात कही है।

तमाम विशेषज्ञ काफी पहले से ही कहते रहे हैं कि पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से बाघ पूरी तरह समाप्त हो गए है। अब इसकी स्थिति राजस्थान के सरिस्का पार्क की ही तरह हो चुकी है, जहां पर घोषित तौर पर बाघ की आबादी समाप्त हो चुकी है। मजेदार बात यह है कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण अथॉरिटी एवं वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया ने मात्र एक साल पहले एक संयुक्त रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की संख्या 24 थी। इसके अलावा जून 2008 में राज्य के मुख्य वन संरक्षक ने कहा था कि पन्ना उद्यान बाघों से भरपूर है। जबकि दिसंबर 2008 में वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया ने अपने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के हवाले से कहा था कि पन्ना में सिर्फ एक ही बाघ है। जबकि मौजूदा सच यह कि कोई बाघ ही मौजूद नहीं है। यदि इन रिपोर्टों को सही माने तो सिर्फ एक साल में ही 24 बाघ कहां लापता हो गए? यदि ये रिपोर्ट सही नहीं है तो फिर राष्ट्रीय स्तर की बड़े बजट वाली इन संस्थाओं की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठते हैं।

अब राज्य सरकार ने इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान के लिए एक समिति का गठन किया है। परंपरा के अनुसार असफलता का ठीकरा कहीं तो फोड़ा जाएगा। तो इसकी शुरूआत ऊपर के स्तर से होगी और निचले स्तर पर आकर समाप्त हो जाएगी। अर्थात इसके लिए वन विभाग के कर्मचारी या आस-पास रहने वाले ग्रामीणों को दोषी ठहराया जाएगा। लेकिन संरक्षण के तौर-तरीके या कार्य प्रणाली को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा, क्योंकि तौर-तरीके सरकारी विशेषज्ञ एवं नौकरशाह तय करते हैं। चूंकि सरकारी व्यवस्था में बहुत बड़ी रकम खर्च की जाती है तो इस व्यवस्था को गलत ठहरा कर सरकारी व्यवस्था पर सवाल उठाने की गलती क्यों की जाएगी! इस तरह कुल मिलाकर ढाक के तीन पात।

हालांकि विभिन्न स्तरों पर विशेषज्ञों ने संभावित संकट के प्रति चेतावनी दी थी, जिस पर शायद वन विभाग ने ध्यान नहीं दिया। आईयूसीएन द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत में स्तनपायी प्रजातियों की 124 प्रजातियों को बेहद खतरा है। इस सूची में बाघ भी शामिल है। दुनिया के जाने माने वैज्ञनिकों द्वारा तैयार आईयूसीएन की सूची को वन्यजीवों एवं वनस्पतियों के संरक्षण के सिलसिले में बेहद प्रमाणिक और समग्र माना जाता है। सन 2008 की सूची में 44,837 प्रजातियों का आकलन किया गया है, इनमें से 38 प्रतिशत को खतरे में पाया गया है। इसकी वजह उनका शिकार, रहने के वातावरण का नष्ट होना या उसमें बदलाव आना और प्रदूषण है। वातावरण में आने वाले बदलाव भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। इतना ही नहीं केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति ने भी फरवरी 2009 में कहा था कि राज्य स्तर पर संरक्षण की जवाबदेही का अभाव है। लेकिन अफसरशाही में फंसे वन विभाग के पास इसके लिए इच्छाशक्ति नहीं है।

अब वन विभाग ने पन्ना उद्यान में मादा बाघ लाकर फिर से बाघ युक्त करने की कवायद शुरू की है। उद्यान में अब मात्र दो बाघिने हैं जो कि कान्हा राष्ट्रीय उद्यान एवं बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान से लाई गई हैं। जब हजारो वर्ग किमी के क्षेत्र में राष्ट्रीय उद्यान बनाकर विलुप्त हो सकने वाले प्रजातियों को संरक्षित नहीं किया सकता है तो इन राष्ट्रीय उद्यानों के नाम पर तमाम खर्च के क्या मायने हैं? क्या हमें हमें सरिस्का एवं पन्ना से सीख लेने की जरूरत नहीं है?

भारत में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम-1972 का सहारा लिया जाता है। इस कानून के बावजूद राष्ट्रीय उद्यानों से वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं और वनों का विनाश हो रहा है। वन विभाग इस कानून का सहारा लेकर वन संरक्षण के नाम पर सदियों से वनों में रहने वाले आदिवासियों को विस्थापित कर रही है। वास्तव में देखा जाय तो वनों के विनाश का मूल कारण है उसका कुप्रबंधन। सरकार को आदिवासियों को अपने स्वाभाविक आवास क्षेत्र से बेदखल करने के बजाय उनके अधिकार पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए क्योंकि वे ही वनों एवं वन्यजीवों के सही रक्षक साबित हो सकते हैं। हालांकि वनाधिकार कानून 2006 के माध्यम से आदिवासियों को राष्ट्रीय पार्कों एवं संरक्षित वनों में निवास करने का हक है। भारत में करीब 5 लाख लोग अभी भी राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों में रह रहे हैं, जिनके अधिकारों की रक्षा बहुत जरूरी है।

भारत में टाइगर रिजर्व, राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य के तौर पर कुल 436 संरक्षित क्षेत्र हैं। ये बाघ, हाथी सहित विभिन्न दुर्लभ वन्यजीवों एवं जलजीवों के लिए संरक्षित किए गए हैं। तमाम अनुभव गवाह हैं कि स्थानीय समुदायों के सहयोग से संसाधनों का विकास ही हुआ हुआ। सदियों से वनों के साथ रहने से उनके पास वनों को संरक्षित करने के लिए पारंपरिक ज्ञान व अनुभव मौजूद है। सरकार की कोई भी मशीनरी इनसे बेहतर प्रबंधन नहीं कर सकती है। यदि एक बार इन समुदायों को अपने अधिकारों को इस्तेमाल करने का पूरा मौका दे दिया जाय तो निश्चित तौर पर ये बेहतर परिणाम दिखा सकते हैं।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, नई दिल्ली - 21 जून 2009)