Tuesday, July 14, 2009

पन्ना चला सरिस्का की राह
*बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

मध्य प्रदेश का पन्ना राष्ट्रीय उद्यान 974 वर्ग किमी में फैला हुआ है और भारत का जाना माना बाघ रिजर्व है। माफी चाहता हूं, शायद कभी था! ऐसा इसलिए कि अब यह समाचार अधिकारिक है कि पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में बाघ नहीं बचे हैं जहां करीब 6 साल पहले 40 से ज्यादा बाघ थे। पन्ना में बाघ न होने की पुष्टि मध्य प्रदेश के वन मंत्री राजेन्द्र शुक्ल ने अधिकारिक रिपोर्ट में की है। इससे पहले प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व प्रमुख पी के सेन के नेतृत्व में विशेष जांच दल ने पन्ना राष्ट्रीय उद्यान जाकर मामले की जांच की और अपनी अंतरिम रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंप दी है। दल ने विभिन्न स्तरों पर जांच एवं पूछताछ करने के बाद दावा किया है कि पन्ना में एक भी बाघ नहीं बचे हैं। दल ने जून माह के अंत में अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपने की बात कही है।

तमाम विशेषज्ञ काफी पहले से ही कहते रहे हैं कि पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से बाघ पूरी तरह समाप्त हो गए है। अब इसकी स्थिति राजस्थान के सरिस्का पार्क की ही तरह हो चुकी है, जहां पर घोषित तौर पर बाघ की आबादी समाप्त हो चुकी है। मजेदार बात यह है कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण अथॉरिटी एवं वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया ने मात्र एक साल पहले एक संयुक्त रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की संख्या 24 थी। इसके अलावा जून 2008 में राज्य के मुख्य वन संरक्षक ने कहा था कि पन्ना उद्यान बाघों से भरपूर है। जबकि दिसंबर 2008 में वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया ने अपने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के हवाले से कहा था कि पन्ना में सिर्फ एक ही बाघ है। जबकि मौजूदा सच यह कि कोई बाघ ही मौजूद नहीं है। यदि इन रिपोर्टों को सही माने तो सिर्फ एक साल में ही 24 बाघ कहां लापता हो गए? यदि ये रिपोर्ट सही नहीं है तो फिर राष्ट्रीय स्तर की बड़े बजट वाली इन संस्थाओं की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठते हैं।

अब राज्य सरकार ने इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान के लिए एक समिति का गठन किया है। परंपरा के अनुसार असफलता का ठीकरा कहीं तो फोड़ा जाएगा। तो इसकी शुरूआत ऊपर के स्तर से होगी और निचले स्तर पर आकर समाप्त हो जाएगी। अर्थात इसके लिए वन विभाग के कर्मचारी या आस-पास रहने वाले ग्रामीणों को दोषी ठहराया जाएगा। लेकिन संरक्षण के तौर-तरीके या कार्य प्रणाली को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा, क्योंकि तौर-तरीके सरकारी विशेषज्ञ एवं नौकरशाह तय करते हैं। चूंकि सरकारी व्यवस्था में बहुत बड़ी रकम खर्च की जाती है तो इस व्यवस्था को गलत ठहरा कर सरकारी व्यवस्था पर सवाल उठाने की गलती क्यों की जाएगी! इस तरह कुल मिलाकर ढाक के तीन पात।

हालांकि विभिन्न स्तरों पर विशेषज्ञों ने संभावित संकट के प्रति चेतावनी दी थी, जिस पर शायद वन विभाग ने ध्यान नहीं दिया। आईयूसीएन द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत में स्तनपायी प्रजातियों की 124 प्रजातियों को बेहद खतरा है। इस सूची में बाघ भी शामिल है। दुनिया के जाने माने वैज्ञनिकों द्वारा तैयार आईयूसीएन की सूची को वन्यजीवों एवं वनस्पतियों के संरक्षण के सिलसिले में बेहद प्रमाणिक और समग्र माना जाता है। सन 2008 की सूची में 44,837 प्रजातियों का आकलन किया गया है, इनमें से 38 प्रतिशत को खतरे में पाया गया है। इसकी वजह उनका शिकार, रहने के वातावरण का नष्ट होना या उसमें बदलाव आना और प्रदूषण है। वातावरण में आने वाले बदलाव भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। इतना ही नहीं केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति ने भी फरवरी 2009 में कहा था कि राज्य स्तर पर संरक्षण की जवाबदेही का अभाव है। लेकिन अफसरशाही में फंसे वन विभाग के पास इसके लिए इच्छाशक्ति नहीं है।

अब वन विभाग ने पन्ना उद्यान में मादा बाघ लाकर फिर से बाघ युक्त करने की कवायद शुरू की है। उद्यान में अब मात्र दो बाघिने हैं जो कि कान्हा राष्ट्रीय उद्यान एवं बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान से लाई गई हैं। जब हजारो वर्ग किमी के क्षेत्र में राष्ट्रीय उद्यान बनाकर विलुप्त हो सकने वाले प्रजातियों को संरक्षित नहीं किया सकता है तो इन राष्ट्रीय उद्यानों के नाम पर तमाम खर्च के क्या मायने हैं? क्या हमें हमें सरिस्का एवं पन्ना से सीख लेने की जरूरत नहीं है?

भारत में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम-1972 का सहारा लिया जाता है। इस कानून के बावजूद राष्ट्रीय उद्यानों से वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं और वनों का विनाश हो रहा है। वन विभाग इस कानून का सहारा लेकर वन संरक्षण के नाम पर सदियों से वनों में रहने वाले आदिवासियों को विस्थापित कर रही है। वास्तव में देखा जाय तो वनों के विनाश का मूल कारण है उसका कुप्रबंधन। सरकार को आदिवासियों को अपने स्वाभाविक आवास क्षेत्र से बेदखल करने के बजाय उनके अधिकार पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए क्योंकि वे ही वनों एवं वन्यजीवों के सही रक्षक साबित हो सकते हैं। हालांकि वनाधिकार कानून 2006 के माध्यम से आदिवासियों को राष्ट्रीय पार्कों एवं संरक्षित वनों में निवास करने का हक है। भारत में करीब 5 लाख लोग अभी भी राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों में रह रहे हैं, जिनके अधिकारों की रक्षा बहुत जरूरी है।

भारत में टाइगर रिजर्व, राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य के तौर पर कुल 436 संरक्षित क्षेत्र हैं। ये बाघ, हाथी सहित विभिन्न दुर्लभ वन्यजीवों एवं जलजीवों के लिए संरक्षित किए गए हैं। तमाम अनुभव गवाह हैं कि स्थानीय समुदायों के सहयोग से संसाधनों का विकास ही हुआ हुआ। सदियों से वनों के साथ रहने से उनके पास वनों को संरक्षित करने के लिए पारंपरिक ज्ञान व अनुभव मौजूद है। सरकार की कोई भी मशीनरी इनसे बेहतर प्रबंधन नहीं कर सकती है। यदि एक बार इन समुदायों को अपने अधिकारों को इस्तेमाल करने का पूरा मौका दे दिया जाय तो निश्चित तौर पर ये बेहतर परिणाम दिखा सकते हैं।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, नई दिल्ली - 21 जून 2009)

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