Tuesday, December 22, 2009

कितना दहशत फैलाना ठीक है!

कितना दहशत फैलाना ठीक है!

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

जी हां, यह सवाल मेरे जेहन में आया कि किस स्तर तक दहशत फैलाना ठीक होगा? यहां पर मैं कोई बालीवुड या हालीवुड की कोई डरावनी फिल्म की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि मैं तो सिर्फ एक टिप्पणी पर टिप्पणी करना चाहता हूं। यह टिप्पणी हमारे देश के पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने की है। यह टिप्पणी उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट को खारिज करते हुए की है जिसमें हिमालय के ग्लेशियरों के 2035 तक पूरी तरह गायब हो जाने का दावा किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) की 2007 की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय के ग्लेशियर दुनिया में सबसे तेजी से पिघलने वाले ग्लेशियर हैं। अगर यही हाल रहा तो 2035 तक या इससे पहले वे पूरी तरह गायब हो जाएंगे। इस रिपोर्ट के जवाब में जयराम रमेश ने कहा कि इतनी दहशत फैलाने की जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं केन्द्रीय मंत्री ने आईपीसीसी की रिपोर्ट पर सवालिया निशान लगाते हुए हिमालय के ग्लेशियरों पर एक अलग रिपोर्ट जारी की है। इस नयी रिपोर्ट ‘‘हिमालयन ग्लेशियर्स: ए स्टेट आॅफ दि आर्ट रिव्यू आॅफ ग्लेशियर स्टडीज, ग्लेशियर रिट्रीट एंड क्लाइमेट चेंज’’ को भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक वी. के. रैना ने तैयार किया है। मंत्री ने दावा किया है कि हिमालय के ग्लेशियरों में ऐसी कोई असमान्य स्थिति नहीं दिख रही है, जिससे लगे कि वे कुछ ही दशक में गायब हो जाएंगे।

अब सवाल यह उठता है कि एक ही बात के लिए दो रिपोर्ट मौजूद हैं और दोनों एक दूसरे के विपरीत दावे कर रहे हैं तो किसे सही माना जाय? या तो इस मामले पर कोई एक पक्ष झूठ बोल रहा है या तो उनके अध्ययन का तरीका ही गलत है। दोनों ही परिस्थिति में नुकसान तो हमारा ही है। चलिए हम भारत के पर्यावरण मंत्रालय के दावे पर एक नजर डाल लेते हैं। जयराम रमेश ने कहा कि छह साल पहले तक गंगोत्री ग्लेशियर प्रति वर्ष 22 मीटर की दर से घट रहा था, लेकिन 2004-05 में यह दर 12 मीटर रही। वर्ष 2007 से लेकर इस साल के मध्य तक ग्लेशियर यथावत ही हैं। उन्होंने इस आशंका को भी खारिज किया कि गलेशियर घटने से गंगा और अन्य हिमालयी नदियां सूख जाएंगी। उनका यह भी कहना है कि हिमालय के ग्लेशियरों की अंटार्टिक ग्लेशियर से तुलना ठीक नहीं है, क्योंकि हिमालय के ग्लेशियर ज्यादा ऊंचाई पर हैं। अपने दावे के पक्ष में उन्होंने कई उदाहरण भी दिए हैं। इनमें प्रमुख रूप हिमालय के पूर्वी और पश्चिमी ग्लेशियरों में पिछले कुछ वर्षों में परिवर्तन की दर को मुख्य आधार मानते हुए दो साल का अवलोकन शामिल है। अब मोटी सीे बात यह है कि ये बाते हमारे देश के अधिकारिक विभाग के माध्यम से कहा जा रहा है तो फिर आईपीसीसी के रिपोर्ट पर ही सवाल उठते हैं!

चलिए अब आईपीसीसी के पक्ष पर भी विचार करते हैं। जयराम रमेश के दावे को तो सबसे पहले आईपीसीसी प्रमुख ने ही खारिज कर दिया है। यह बात काफी दिलचस्प है कि आईपीसीसी के प्रमुख और कोई नही बल्कि भारत और खासकर भारत के हिमालयी क्षेत्र नैनीताल में जन्में आर. के. पचैरी हैं। वे जलवायु परिवर्तन पर हमारे देश के प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में सदस्य हैं। इसके अलावा भारत के एक महत्वपूर्ण संस्थान दि एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टेरी) के महानिदेशक हैं। इतना ही नहीं वे भारत के चुनिंदा नोबल पुरस्कार प्राप्त व्यक्तियों मे से एक हैं। उनका कहना है कि आईपीसीसी के हजारो वैज्ञानिकों के शोध को रैना ने मात्र दो साल के अवलोकन के आधार ठुकरा दिया है जो कि जल्दबाजी वाली बात है। इसके अलावा आईपीसीसी की रिपोर्ट ठोस वैज्ञानिक एवं प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर तैयार किए गए हैं, जबकि भारत की सरकारी रिपोर्ट में ज्यादातर द्वितीयक आंकड़ों का सहारा लिया गया है।

इतना ही नहीं जयराम रमेश के दावे के विपरीत भारत की एक पर्यावरणीय संगठन ‘रिसर्च फांउडेशन फाॅर सांइस टेक्नाॅलाजी एंड इकोलाजी’ ने अपने नवीनतम शोध के आधार पर दावा किया है कि पिछले कुछ दशक में उत्तराखंड की 34 प्रतिशत जलधाराएं अब मौसमी बन चुकी हैं। जल की निकासी में 67 प्रतिशत तक कमी आई है। रिसर्च फांउडेशन की प्रमुख डा. वंदना शिवा का कहना है कि सरकारी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन जैसी जटिल समस्या को केवल तापमान वृद्धि तक ही सीमित कर दिय गया है। हालांकि रिपोर्ट में मौसमी बर्फबारी व ग्लेश्यिरों के खिसकने की बात स्वीकार की गई है। बावजूद इसके पर्यावरण मंत्री यह दावा कर रहे हैं कि हिमालय के ग्लेशियर पिघल नहीं रहे हैं। इन सबके बावजूद सरकारी रिपोर्ट के दावों में ही आपसी विरोधाभास स्पष्ट दिखता है।

हालांकि सरकार अपने रिपोर्ट को रक्षा विभाग से जोड़कर और उसे गोपनीय बताकर इसे सावर्जनिक नहीं कर रही है। ऐसे में रिपोर्ट को कुछ सरकारी लोगों द्वारा ही अवलोकन करके बड़े बड़े दावे करना कितना उचित है? अब सवाल उठता है कि क्या इन विरोधाभासी बातों में किसी का निहित स्वार्थ है? सवाल है कि रिपोर्ट ऐसे समय जारी की गई है जब कोपेनहेगन में 7 से 18 दिसम्बर 2009 तक संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होने वाला है। तो ऐसा तो नहीं कि भारत सरकार के प्रतिनिधि सम्मेलन में जो अपना पक्ष रखने चाहते हैं उसके पूर्व तैयारी के तौर पर ही ऐसे बयान सार्वजनिक किए जा रहे हैं। हो सकता है कि ऐसे बयान से भारतीय पक्ष को सुविधा हो सकती है, लेकिन भारत के हिमालयी क्षेत्र के निवासी जो प्रत्यक्ष रूप से संकट का सामना कर रहे हैं उससे कौन निजात दिलाएगा? पर्यावरण सम्बंधी ऐसे महत्वपूर्ण रिपोर्ट के आंकड़ों को ही आधार बनाकर दुनिया भर के शोधार्थी छोटे-छोटे स्तर पर शोध करते हैं, क्योंकि इतने व्यापक स्तर पर शोध करना किसी छोटी संस्था या व्यक्ति के औकात से बाहर की बात है। जब बड़े शोध में ही आपस में विरोधाभास हो तो फिर द्वितीयक आंकड़े के तौर पर इनकी क्या प्रासंगिकता रह जाती है? यह बात तो जग जाहिर है कि दुनिया के हरे देशों में प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है, क्योंकि उस समय ज्यादातर ऐतिहासिक घटनाओं का सिलसिलेवार दस्तावेजीकरण नहीं किया था। ऐतिहासिक सन्दर्भों में विरोधाभास तो मौजूदा विचारधारा के विरोधाभास के कारण भी होता है। लेकिन क्या पर्यावरणीय मुद्दों पर भी विचारधारा में अंतर की वजह से ऐसा विरोधाभास है?

बात चाहे कुछ भी हो आखिर दोनो स्थितियों में नुकसान तो आम लोगों का ही है। भागीरथी, मंदाकिनी, यमुना एवं अलंकनंदा घाटियों में पर्यावरणीय संकट के असर दिखने शुरू हो चुके हैं। इन इलाकों में चारों एवं पशुओं की संख्या बहुत तेजी से घट रही है। जिन जगहों में साल के ज्यादातर समय बर्फ बिछी रहती थी वहां के जंगलों में आग लगने की घटनाएं आम हो चुकी हैं। गंगोत्री अपने मूल स्थान से पीछे हट चुकी है। पहाड़ी फलों पर गर्मियों के असर के कारण उन्हें अब दो हजार मीटर ऊपर लगाया जा रहा है। हिमालयी क्षेत्र के निवासी इन परिस्थितियों का सामना करते हुए दहशत में जी रहे हैं। लेकिन हमारे देश के पर्यावरण मंत्री कहते हैं कि इतनी दहशत फैलाने की जरूरत नहीं है। तो ठीक है आप ही बताएं कि कितने दहशत में रहना ठीक है? माननीय जयराम रमेश जी, अब बस कीजिए। लोगों को बहलाना बंद करें और सच का समाना करें और समस्या का हल खोजना शुरू करें। बहुत भला होगा यदि भारत के प्रतिनिधि कोपेनहेगन सम्मेलन में सच स्वीकार करके समस्या के हल के लिए दुनिया का आह्वान करें। नहीं तो इतनी देर हो चुकी होगी कि परिस्थिति किसी के काबू में नहीं रहेगी।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 30 नवम्बर 2009)

Tags: Environment, Jairam Ramesh, Glacier, Himalaya, recede, Pachauri, TERI





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