Tuesday, December 22, 2009

बेहतर विकल्प है जैविक खेती


बेहतर विकल्प है जैविक खेती
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

जैविक खेती से होने वाले फायदे के बारे में नित नये तथ्य उभरकर आ रहे हैं। जिससे यह बात साबित होती जा रही है कि जैविक खेती न सिर्फ दीर्घकाल में बल्कि तात्कालिक तौर पर भी फायदेमंद है। जैविक खेती से जहां एक ओर रासायनिक खाद और कीटनाशक के प्रयोग न होने से जमीन की उत्पादक क्षमता में लगातार बढ़ोतरी होती है वहीं जमीन में नमी बरकरार रहने से यह सूखा प्रभावित क्षेत्रो के लिए काफी व्यावहारिक है। जैविक खेती को ज्यादा व्यवहारिक बनाने के लिए नित नये प्रयोग भी हो रहे हैं। जब कोई प्रयोग या फिर कोई अध्ययन कोई प्रतिष्ठित संस्था करती है तो उस पर लोगों का विश्वास और भी प्रबल होता है। इस बार संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी महत्वपूर्ण संस्था ने संकटग्रस्त पूर्वी अफ्रीका में एक अध्ययन करवाया है, जिसके नतीजे काफी उत्साहवर्द्धक हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा किए गए अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि यदि पूर्वी अफ्रीका में जैविक खेती को अपनाया जाय तो पूरे देश में भूखमरी की समस्या से निपटा जा सकता है।

अध्ययन ने साबित किया है कि जैविक खेती से अनाज के पैदावार में तो बढ़ोतरी हुई ही साथ में मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार से छोटे किसानों की परोक्ष आमदनी में भी बढ़ोतरी हुई। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के प्रमुख श्री अचिम स्टेनर का तो यहां तक कहना है कि जैविक खेती द्वारा पूरे विश्व को जितना अनाज उपलब्ध कराया जा सकता है वह उम्मीद से कहीं ज्यादा होगा।

साठ के दशक में हुई हरित क्रांति का लाभ अफ्रीका के निवासियों को नहीं मिला था। जिन देशों में हरित क्रांति का फायदा हुआ था वहां एक मोटे आकलन के अनुसार एक व्यक्ति को पहले के मुकाबले करीब 25 प्रतिशत ज्यादा खाद्यान्न उपलब्ध हुआ है। जबकि अफ्रीकी देशों में प्रति व्यक्ति खाद्यान्नों की उपलब्धता 10 प्रतिशत घट गई। हालांकि अफ्रीकी महाद्वीप में बढ़ती आबादी, घटती वर्षा, जमीनों की घटती उत्पादकता, और खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतें भी इसके महत्वपूर्ण कारक रहे हैं। अफ्रीकी सरकारों की पारंपरिक सोच यह रही है कि इस कमी को पूरा करने के लिए आधुनिक और तकनीकी खेती ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन अफ्रीकी सरकारें अपने पारंपरिक तरीके से खाद्यान्नों की कमी पूरा कर पाने में नाकाम रही हैं।

अब वैश्विक स्तर पर खाद्यान्नों की कमी ने सरकारों और विशेषज्ञों को खेती के तौर तरीके में बदलाव के प्रति सोचने को मजबूर किया है। कुछ देशों की सरकारें तो वैज्ञानिकों को जीन परिवर्द्धित (जीएम) खाद्यान्नों के लिए शोध करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं। जीएम खाद्यान्नों के मामले में दावा किया जाता है कि इससे खाद्यान्न उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ कई अन्य फायदे भी हैं। लेकिन इन खाद्यान्नों के व्यवहारिक प्रयोग इस बात को साबित कर रहे हैं कि इससे खेती और मनुष्यों के स्वास्थ्य संबंधी नई परेशानियों का न्यौता दिया जा रहा है। फिर उनसे कैसे निपटा जाएगा? यह तो वहीं बात हुई जैसे भेड़िये के आतंक से निपटने के लिए शेर को बुलाया जा रहा है, लेकिन शेर के आतंक से निपटने के लिए किसे बुलाया जाएगा? इसलिए पूरे विश्व में विशेषज्ञों द्वारा इसका व्यापक विरोध भी हो रहा है। इंग्लैण्ड में सरकार और विशेषज्ञों ने तो इसे पूरी तरह नकार दिया है। जीएम खेती के लिए पेटेंट वाली महंगी बीज की आवश्यकता होने के कारण खेती की लागत भी ज्यादा आती है। हालांकि पारंपरिक खेती के समर्थकों का मानना है कि जैविक या जीएम खेती के बजाय यदि बेहतर बीज, फसल चक्र परिवर्तन, अच्छी सिंचाई और अच्छे बाजार की उपलब्धता हो तो अच्छी खेती संभव है। लेकिन अफ्रीकी देशों में सूखा एक समस्या है वहां अच्छी सिंचाई व्यवस्था बहुत खर्चीली है और कई जगहों पर तो असंभव है। ऐसे में सूखे इलाकों में पारंपरिक खेती के प्रति भी हमेशा जोखिम कायम रहता है।

जबकि इसके विपरीत संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा कराए गए मौजूदा शोध का निष्कर्ष है कि छोटे स्तर पर की जाने वाली जैविक खेती से बगैर कोई पर्यावरणीय व सामाजिक क्षति के उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है। अध्ययन के लिए अफ्रीकी देशों में उन इलाकों का चयन किया गया जहां निजी या सहकारी स्तर पर जैविक खेती की जाती है। इस तरह चैबीस अफ्रीकी देशों में 114 फार्मो में पूरे साल किए गए विश्लेषण में यह बात साबित हुई कि जहां जैविक या कम केमिकल वाली खेती की गई वहां उत्पादन में लगभग दोगुनी वृद्धि हुई। इससे पूर्वी अफ्रीका में औसत उत्पादन बढ़कर 128 प्रतिशत तक हो गई है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि जैविक खेती पारंपरिक खेती और केमिकल आधारित खेती के मुकाबले बेहतर परिणाम देते हैं। इससे कई पर्यावरणीय फायदे भी हैं, जैसे कि इससे भूमि की उत्पादकता बढ़ती है, भूमि में नमी बरकरार रहती है और इस तरह इसमें सूखे से लड़ने की क्षमता होती है।

अफ्रीकी देशो में हुए अध्ययन के नतीजे भारत के लिए काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं। भारत में जो इलाके नियमित सूखे से प्रभावित रहते हैं उन इलाकों में इसे अपनानाा काफी फायदेमंद हो सकता है। भारत सरकार द्वारा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार सन 2005 में लगभग 77,000 हेक्टेअर जमीन में जैविक खेती हुई थी। इन जमीनों पर 120,000 टन जैविक खाद्यान्नों का उत्पादन हुआ था। केन्द्रीय कृषि और सहकारिता मंत्रालय के अनुसार सन 2003-04 में कुल 1408.80 लाख हेक्टअर जमीन में खेती हुई थी। इसमें से 551 लाख हेक्टेअर जमीन में विभिन्न स्रोतो से सिंचाई उपलब्ध हो पाई थी। इस तरह 857.8 लाख हेक्टेअर जमीन वर्षा पर ही आधरित हैं। इनमें से बहुत सारे इलाके काफी दुर्गम हैं जहां पारंपरिक सिंचाई के साधन उपलब्ध कराना काफी खर्चीला है। यदि सरकार इनमें से सूखा प्रभावित व दुर्गम क्षेत्रों को ध्यान में रखकर जैविक खेती को प्रोत्साहन दे तो इसके बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। लेकिन जो भी हो यूएनइपी की मौजूदा रिपोर्ट का मानना है कि इससे विश्व की खाद्यान्न समस्या का हल हो सकता है और इस तरह गरीबी निवारण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। तो भारत को भी इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान देने से पीछे नहीं रहना चाहिए।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 25 मई 2009)

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