Tuesday, December 22, 2009

आत्मविश्वास की ताकत

आत्मविश्वास की ताकत

  • बिपिन चन्द चतुर्वेदी
गत दिनों भीलवाड़ा में युवा अधिवेशन के समापन समारोह में कार्यक्रम संचालक ने मंच पर बैठे करीब दो दर्जन युवाओं की ओर इशारा करते हुए कहा कि ये हमारे ‘समापन समारोह के योद्धा’ हैं। अधिवेशन में देश भर से आए करीब 1200 युवाओं में से दो दर्जन नवोदित सामाजिक कार्यकर्ता मंच पर बैठे थे। देश के विभिन्न इलाकों में सामाजिक बदलाव के काम में लगे उन युवा नेतृत्वकर्ताओं में से एक थी ‘ममता’।

ममता देश के उन युवाओं की प्रतीक है जो कि बचपन से समाज में अन्याय देखते व उसे झेलते हुए बड़े होते हैं, लेकिन परिस्थितियों के आगे बेबस नहीं होते हैं। गरीबी और बेबसी का आपस में गहरा रिश्ता होता है। मनुष्य के जीवन में बेबसी अलग-अलग तरीके से दखल देती है। कई बार तो बेबसी बच्चों के मन पर गहरा असर कर जाती है। जब माता-पिता की बेबसी का असर बच्चों पर पड़ता है तो उनका विकास प्रभावित होता है और कई बार बच्चे समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में पली-बढ़ी ममता के बचपन मन में हजारो सवाल उठते थे। मन में हजारो सवाल लिए वह खुद से लड़ती रहती थी, लेकिन जवाब नहीं मिलता था। इस तरह समय से पहले बड़ी बन चुकी ममता खुद को कभी बेबस बेटी के रूप में तो कभी नासमझ इंसान के रूप में देखती थी, तो कभी बंधनों से बंधी एक लड़की के रूप में। दिन-प्रतिदिन होने वाले अन्याय को देखते-देखते बचपन की ऊंची उड़ान तो कब की थम चुकी थी, लेकिन हिम्मत फिर भी बाकी थी। लेकिन बेबसी ने बार-बार दस्तक दी और एक बार तो अपनों ने ही पिता को चन्दन की लकड़ी चोरी के झूठे मुकदमे में फंसा दिया। परिवार की हालत दर्दनाक थी, लेकिन रिश्तेदार ने कहा कि तुम मुझे अपनी जमीन दे दो तो मैं केस वापस ले लूंगा। पुलिस अधिकारी ने भी भारी रिश्वत मांगी। मजबूरन 3000 रुपये और चार बोरी गेंहू रिश्वत में देकर बाकी रकम बाद में देने का वादा किया तो जमानत मिली। लेकिन अगली सुबह वही पुलिस अधिकारी दूसरे मामले में रिश्वत लेते पकड़ा गया और उसके पिता के खिलाफ कोई सबूत न होने के कारण वे बरी हो गए। इस घटना के बाद ममता के मन की बेबसी ने आत्मविश्वास का स्वरूप ले लिया।

राजस्थान में राजसमन्द जिले के देलवाड़ा तहसील की रहने वाली ममता ने उस घटना के बाद अन्याय के खिलाफ लड़ने की ठान ली। उसने महसूस किया कि ऐसी परिस्थितियों का सामना करने वाली वह अकेली नहीं है और संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में एम.ए. की पढ़ाई भी पूरी की। इस दौरान एक सामाजिक समूह के साथ जुड़कर ममता ने सामुदायिक सशक्तीकरण के मुद्दे पर काम करना शुरू किया। वह समुदायों के बीच और खासकर महिलाओं को पंचायत से जोड़ने का काम करते हुए स्थानीय स्तर के घोटालों पर कड़ी नजर रखने लगी। ऐसे प्रयासों में उसे सूचना के अधिकार कानून से काफी मदद मिली। अपने इलाके में पंचायत, सरकारी संगठनों एवं नागरिक समाज के समन्वय से लोकतांत्रिक व्यवस्था के सही क्रियान्वयन एवं भ्रष्टाचार निवारण के उद्देश्य पर काम करने लगी। इसी बीच उसे एक मंच ‘कम्यूटिनी-दि यूथ कलेक्टिव’ मिला जहां उसे अपने इलाके में सामाजिक बदलाव के लिए मार्गदर्शन व प्रशिक्षण मिले। भले ही यूथ कलेक्टिव एवं मजदूर किसान शक्ति संगठन ने ममता का मार्गदर्शन किया लेकिन बदलाव के तौर-तरीके एवं रास्ते उसने स्वयं तय किए।

राजस्थान के सामंती माहौल में ममता ने स्वयं संघर्ष की शुरूआत तो की लेकिन शुरू में कोई साथ देने को तैयार नहीं हुआ। तभी उसने देखा कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) में स्थानीय स्तर पर फैली अनियमितता के खिलाफ संघर्ष करके स्थानीय ग्रामीणों को साथ लिया जा सकता है। लेकिन प्रयासों का ज्यादा परिणाम न मिलते देख ममता ने खुद नरेगा में शामिल होने का फैसला करके अपना भी जॉब कार्ड बनवाया। स्नातकोत्तर तक शिक्षित ममता ने स्वयं मेट बनकर काम करने में कोई शर्म महसूस नहीं की। खुद फावड़ा और कुदाल पकड़ कर काम किया तो श्रम के महत्व और बेहतर ढंग से समझ पाई। जिस काम को शुरू करते समय मन में आशंका थी उसी से आत्मविश्वास बढ़ा और जीवन में अगुआई और पहल के महत्व को समझ पाई। साथ ही पंचायत व्यवस्था व लोगो के प्रति खुद के नजरिए में बदलाव आया। उस इलाके में नरेगा से जहां ग्रामीण गरीबों को 100 दिन का रोजगार मिल पाता था वहीं उन्हें गांव के दबंग लोगों के बदले भी काम करना पड़ता था। लेकिन खुद मेट बनकर काम करने के बाद सबसे बड़ा सुधार यह हुआ कि राजनतिक ताकत वालों की मनमानी के बल पर डंडा मेट का काम करके मुफ्त में पैसा पाने वालों के रास्ते बंद हो गए। यहां तक कि लोगों को पहले दिहाड़ी कम मिलती थी और काम छूट जाने के डर से लोग शिकायत नहीं करते थे। ममता के प्रयास से ग्रामीण महिलाओं में आत्मविश्वास तो बढ़ा ही बल्कि 100 दिन का रोजगार पूर्ण करने पर उन्हें प्रोत्साहन राशि भी हासिल हुई। आज ममता के हिम्मत से उसके साथ लोग जुड़ते गए और कई ऐसी महिलाएं तैयार हुई हैं और समूह में लीडरशिप ले रही हैं। उस इलाके में सुशीला, सीताबाई, पुष्पा, चंदा, कलावतीबाई एवं दुर्गा आदि लोग नरेगा में काम करने के साथ निगरानी भी करती हैं और परेशानी होने पर आवाज उठाती हैं।

हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान ममता से कोलकाता में फिर मुलाकात हुई। आत्मविश्वास से सराबोर वह अल्हड़ बाला गुरू रविन्द्रनाथ टैगोर के बांग्ला गीत ‘‘जोदि तोर डाक सुने केउ ना आशे, तोबे एकला चोलो रे’’ गाने की कोशिश कर रही थी। हमारे एक अन्य राजस्थानी साथी गोपाल को कुछ साथियों ने कहा कि कोलकाता में राजस्थान की पहचान है ‘बालिका वधु’। भारत में सास-बहु सीरियलों पर आधारित कार्यक्रम ‘बालिका वधु’ एक चहेता टीवी कार्यक्रम है, जो राजस्थान में बालिकाओं की छोटी उम्र में होने वाले विवाहों की पृष्ठभूमि पर बना है। यह बात भी सही है कि राजस्थान के गांवों एवं कस्बों में आज भी काफी संख्या में बाल विवाह होते हैं। लेकिन ममता को देखकर लगा कि ममता राजस्थानी है, गरीबी में पली है लेकिन उसकी पहचान ‘बालिका वधु’ नहीं है। ममता स्वयं अपनी पहचान है। मेरा मानना है कि ममता जैसे लोग समापन समारोह के योद्धा नहीं बल्कि स्वागत समारोह के योद्धा होने चाहिए। भले ही ममता ने सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में अभी शुरूआत ही की है और शायद उसे एक लम्बी यात्रा करनी है। लेकिन एक बात तो उसने साबित की है कि ‘‘बेबसी से बड़ा होता है आत्मविश्वास।’’


(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 8 जून 2009)

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