Tuesday, December 22, 2009

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

खेती अब फायदे का सौदा नही रहा, ऐसी आम धारणा है। किसान गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। भारत जैसे देश में अब तो मौसम और पानी की स्थिति भी बहुत अनिश्चित हो गई है। देश के कई हिस्सों में किसान खुदकुशी तक कर रहे हैं। ऐसे दौर में महानगर में पला-बढ़ा कोई युवक गांव जाकर खेती करना चाहे तो उसे लोग पागल ही कहेंगे। लेकिन एक युवा ऐसा है जो दिल्ली से वापस गांव जाकर न सिर्फ खेती बल्कि जैविक खेती का प्रयोग कर रहा है जिसमें पारंपरिक खेती के मुकाबले लागत भी ज्यादा आती है।

वह युवा ‘आशीष’ जिसे खेती का व्यावहारिक ज्ञान कुछ नहीं, फिर भी खेती करने की इच्छा थी। बस इसी चाहत के साथ पहुंच गए जैविक खेती विशेषज्ञ भास्कर सावे के पास। आशीष ने बताया कि उसे खेती के बारे में कुछ नहीं मालूम लेकिन वह जैविक खेती करना चाहता है। भास्कर भाई ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘एक नर्सरी क्लास का बच्चा एक प्रोफेसर के पास पहुंच गया है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘जाओ और खेती शुरू करो। जब समस्या आए तो उसका निदान खोजो, और निदान तलाशना ही वास्तविक सीख है। खेती सिद्धांत के आधार पर नहीं की जा सकती। यदि सही अर्थ में खेती करना सीखना है तो कम से कम तीन साल इसके लिए समय देना होगा।’’

सवालों में उलझा आशीष बचपन में चाहता था कि बड़ा होकर सेना में भर्ती होकर देश सेवा करे। लेकिन बड़े होकर जब दुनिया की सच्चाई देखा तो विचार बदल गए। आशीष एक संस्था के साथ जुड़कर दिल्ली एवं फिर फरीदाबाद में गरीब बच्चों को पढ़ाने लगे। इस दौरान उन्होंने देखा कि विकास के नाम पर उपजाऊ जमीनों को उद्योगों के हवाले किया जा रहा है। मन में डर सताने लगा कि भविष्य में इससे भोजन का संकट पैदा हो सकता है। सवाल उठा कि किसान खेती के बल पर आत्मनिर्भर क्यों नहीं हो रहे हैं और इस पारंपरिक पेशे को क्यों छोड़ रहे हैं?

सवालों का जवाब खोजना शुरू किया तो मालूम हुआ कि खेती के लिए ज्यादा रासायनिक खाद एवं कीटनाशक प्रयोग से जमीने बंजर होती जा रही हैं। उनसे उत्पादित खाद्यान्नों में पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं जो कि मानवीय स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए गहरा संकट पैदा कर सकते हैं। किसान दिनो-दिन कर्ज में डुबते जा रहे हैं, और यहां तक कि आत्महत्या भी कर रहे हैं। तमाम सच्चाईयों से रूबरू होने के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि वे गांव जाकर जैविक खेती करेंगे और किसानों एवं उनके बच्चों की बेहतरी के लिए काम करेंगे। लेकिन ऐसे कामों के लिए संसाधनों की व्यवस्था करना कठिन चुनौती थी। इसी बीच युवाओं में नेतृत्व क्षमता विकास के लिए कार्यरत संस्था ‘कम्यूटिनी’ ने आशीष के मार्गदर्शन का प्रस्ताव स्वीकार किया। फिर आशीष ने उत्तर प्रदेश में सुल्तानपुर जिले में अपने मूल गांव की ओर रूख किया।

आशीष कुछ महीनों भारत भूषण त्यागी एवं भास्कर भाई जैसे विशेषज्ञों से खेती की बारीकियां सीखते रहे। बात समझ में आई कि कृषि विश्वविद्यालय में खेती को सिर्फ फायदेमंद बनाना सिखाया जाता है। दीर्घकाल में जैविक खेती केमिकल आधारित खेती के मुकाबले किफायती होती है और खेती को सिर्फ उत्पादन के आधार पर ही नहीं बल्कि लागत के आधार पर भी आकलन करना चाहिए। उसने जो देखा-सीखा, जब आजमाने निकला तो गांव में युवाओं ने मजाक उड़ाया। देखा कि गांव के लोग खेती शौक से नहीं बल्कि मजबूरी में करते हैं। कहा जाता है कि जैविक खेती मौजूदा खेती व्यवस्था के मुकाबले महंगी पड़ती है। लेकिन व्यावहारिक प्रयोग से सच का दूसरा पहलु सामने आया।

आशीष ने सन 2008 के मानसून में धान की खेती के लिए केमिकल खाद युक्त और जैविक खेती का समानान्तर प्रयोग किया। धान के पौधे तैयार करने के बाद उन्हें तीन अलग-अलग तरीके से रोपा गया। पहले में डीएपी व यूरिया, दूसरे में सिर्फ डीएपी और तीसरे (जैविक) में सिर्फ कंपोस्ट खाद डाला गया। पहले हिस्से के लिए 1271 रुपये की लागत से 70 किलो, दूसरे हिस्से में 1211 रुपये की लागत से 70 किलो जबकि तीसरे में 1187 रुपये की लागत से 65 किलो धान उत्पादन हुआ। इस तरह उत्पादन के आधार पर केमिकल युक्त खेती में करीब 7 प्रतिशत ज्यादा उत्पादन हासिल हुआ, लेकिन लागत के आधार पर केमिकल युक्त खेती प्रति किलो मात्र 10 पैसे ही सस्ता पड़ा। लेकिन यदि केमिकल से होने वाले दुष्प्रभावों का आकलन किया जाय तो जैविक खेती ज्यादा फायदेमंद नजर आती है। उन्हें एक और बात समझ में आई कि खेती में सबसे ज्यादा लागत सिंचाई की वजह से होता है। मिट्टी एक जीवित वस्तु है और इसे केमिकल डालकर मृत नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही मिट्टी को पानी नहीं सिर्फ नमी की जरूरत होती है। आशीष ने जाना कि बहुत सारे कीड़े मकोड़े वास्तव में न सिर्फ फसलों को फायदा पहुंचाते हैं बल्कि दीर्घकाल में मिट्टी के लिए काफी फायदेमंद होते हैं।

आशीष मानते है कि उनके प्रयोगों से वास्तविक परिणाम का आकलन तीन साल बाद ही किया जा सकता है, क्योंकि तीन साल बाद जैविक खेती में सिंचाई लागत भी कम आएगी। आखिर उनका मुख्य उद्देश्य है कि टिकाऊ एवं सजीव खेती के प्रति लोगों का विश्वास बढ़े एवं किसान इसे अपनाकर आत्मनिर्भर बने। आशीष का मानना है कि यदि उनका प्रयास सफल होता है तो वे युवाओं के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। इस तरह वे गांव से पलायन करने वाले किसानों को विश्वास दिलाते हुए कह सकते हैं कि, ‘‘आ अब लौट चलें’’।


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