Tuesday, December 22, 2009

भारत में अलोकतांत्रिक कानून - कितना जायज?


(डा. बिनायक सेन की गिरफ्तारी के दो साल पूरा होने पर विशेष)

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम 2005 के तहत छत्तीसगढ़ के रायमुर जेल में बंद डा. बिनायक सेन को गिरफ्तार हुए 14 मई 2009 को दो साल पूरे हो जाएंगे। इस तरह न जाने कितने साल और बीतेंगे? राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित गवाहों द्वारा डा. सेन का गुनाह साबित नहीं हो पाया है फिर भी उन्हें उच्चतम न्यायालय ने जमानत नहीं दी, क्योंकि कानूनी प्रावधानों के तहत उनकी जमानत संभव नहीं है। हाल ही में अप्रैल 2009 में राज्य उच्च न्यायालय ने जन सुरक्षा कानून 2005 को चुनौती देने वाली पीयूसीएल की याचिका को स्वीकार करे उस पर संज्ञान लेते हुए केन्द्र तथा राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है। ऐसे में यह समीक्षा आवश्यक है कि ऐसे कानून के तहत डा. सेन की गिरफ्तारी कितना जायज है और ऐसे कानूनों का क्या औचित्य है?

पेशे से डाक्टर डा. बिनायक सेन पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं और पिछले 30 सालों से छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के तौर काम करते रहे हैं। अपने पेशे के नाते वे कैदियों के स्वास्थ्य की जानकारी लेने के दौरान जेल में बंद नक्सलवादी नेता नारायण सन्याल से भी स्वास्थ्य जांच के लिए मिले थे। बस राज्य सरकार ने उन्हें नक्सलियों का सहयोगी बताकर बंदी बना लिया। तो क्या कोई चिकित्सक कानूनी दायरे में भी किसी कैदी से नहीं मिल सकता? डा. सेन की गिरफ्तारी के माध्यम से सरकार शायद यही संदेश देना चाहती है। सवाल है कि बगैर कोई आपराधिक रिकार्ड वाले एक ख्याति प्राप्त डाक्टर को कड़े कानून के माध्यम बंदी बनाने की जरूरत क्यों आ पड़ी?

डा. सेन राज्य सरकार द्वारा नक्सलियों के नियंत्रण के नाम पर चलाए जा रहे सलवा जुड़ुम अभियन से काफी चिंतित थे। उनका कहना है कि इस अभियान के माध्यम से सरकार ने आदिवासियों को खुलेआम हथियार थमाकर उन्हें आपस में बांटने का काम किया है। इससे आदिवासी लोग सरकार एवं माओवादियों के बीच पिस रहे हैं। वे सलवा जुड़ुम के नाम पर गैरकानूनी इनकाउंटर की भी तीव्र आलोचना करते रहे हैं। क्षेत्र के तमाम संगठनों का आरोप है कि आदिवासी इलाकों में कोयला, लौह एवं बाक्साइट जैसे खनिज पदार्थो की भरमार होना इसके पीछे प्रमुख कारण है। आदिवासी बड़ी निजी कंपनियों को उन इलाकों में प्रवेश देने के खिलाफ हैं तो सरकार ने सलवा जुड़ुम के माध्यम से पुलिस के बल पर एवं ग्रामीणों को माओवादियों का डर दिखाकर गांव के गांव खाली कराने का कुचक्र चला। इस अभियान से पिछले कुछ सालों में हजारों लोग मारे गए हैं एवं लाखो पलायन कर गए हैं या सरकारी शिविरों में रह रहे हैं।

एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित कई अन्य संगठनों का मानना है कि डा. सेन पर लगाए गए आरोप तथ्यहीन और राजनीति प्रेरित हैं। करीब एक साल पहले विश्व भर के 22 नोबल सम्मान पाए लोगों ने बिनायक सेन की रिहाई की मांग की थी, ताकि वे वाशिंगटन जाकर जोनाथन स्वास्थ्य एवं मानव अधिकार अवार्ड प्राप्त कर सकें। लेकिन सरकार नहीं मानी। इस सम्मान के लिए चुने जाने वाले वे पहले भारतीय हैं। डा. सेन के शहीद अस्पताल स्थापित करने एवं इंदिरा स्वैच्छिक स्वास्थ्य योजना मंे महत्वपूर्ण योगदान को सरकार शायद भूल चुकी है! छत्तीसगढ़ पीयूसीएल ने डा. सेन की रिहाई के लिए एक लंबा अभियान भी चलाया है। डा. सेन की लम्बी गिरफ्तारी से यह बात साबित होती है कि किस तरह सरकारें सुरक्षा कानूनों का दुरूपयोग अपने राजनैतिक विरोधियों के लिए करती हैं। छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम मार्च 2006 से लागू है, जिसका घोषित उद्देश्य राज्य में नक्सली गतिविधियों को काबू करना है। लेकिन इस अलोकतांत्रिक कानून के तहत सलवा जूड़ुम के तमाम विरोधियों को सबक सिखाने की भी कोशिश की जा रही है और शायद इसके ही शिकार हैं डा. बिनायक सेन।

भारत में आजादी के बाद से आज तक दर्जनों ऐसे कानून बन चुके हैं जिससे किसी को लम्बे समय तक कैद रखा जा सके। मणिपुर एवं उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यो में लागू आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (आफ्सपा) सबसे विवादास्पद कानून है। शुरू में इसे सितम्बर 1958 में कुछ क्षेत्रों में नागा विद्रोह से निपटने के लिए इसे लागू किया गया था। धीरे-धीरे विस्तार करके इसे सात उत्तर-पूर्वी राज्यों में लागू कर दिया गया है। इसके तहत किसी भी आयुक्त, अधिकारी या एन.सी.ओ. तक को किसी को शक के आधार पर गोली मारने का अधिकार है। सन 2004 में एक गिरफ्तार महिला की मौत का विरोध कर रहे लोगों पर सेना की गोलीबारी से 10 लोगों की मौत हो गई थी। तब 4 नवंबर 2004 से राज्य की एक महिला इरोम शर्मिला चानू इस कानून के खिलाफ आमरण अनशन पर हैं। जम्मू एवं कश्मीर में भी यह कानून सन 1990 से लागू है। 1998 में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया था कि इस कानून की हर 6 महीने में समीक्षा की जानी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। ‘मीसा’ कानून के तहत आपातकाल में 20,000 से ज्यादा राजनैतिक लोगों को जेल में डाल दिया गया था, जिसे 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने समाप्त कर दिया गया। सन 1980 में लागू राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम जिसे एनएसए नाम से भी जाना जाता है। इस कानून के तहत अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने भाजपा नेता वरूण गांधी को भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार किया था। सन 1985 में आतंकवादी गतिविधि नियंत्रित करने के लिए टाडा लागू किया गया था, जिसे 1995 में समाप्त किया गया। सन 1976 में लागू अशांत क्षेत्र (विशेष न्यायालय) अधिनियम के तहत कोई राज्य सरकार शांति व सद्भावना भंग होने के नाम पर किसी क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित कर सकती है। यह जम्मू कश्मीर के अलावा पूरे देश में प्रभावी है। जबकि सन 1978 में लागू जम्मू एवं कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत राज्य में सेना को विशेष अधिकार दिया गया है। इनके अलावा असम में ‘असम प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट’, गुजरात में ‘पासा’ व ‘गुजकोक’, महाराष्ट्र, दिल्ली व कर्नाटक में ‘मकोका’ कानून प्रभावी हैं। मध्य प्रदेश में नक्सली गतिविधि रोकने के नाम पर बने ‘विशेष क्षेत्र सुरक्षा अधिनियम’ के तहत आदिवासी इलाकों में कार्यरत कई जनसंगठनो को प्रतिबंधित कर दिया गया है। अस्सी-नब्बे के दशक में पंजाब, हरियाणा एवं चंडीगढ़ में भी कई कठोर कानून लागू थे, जो कि अब अस्तीत्व में नहीं हैं। आतंकवादी गतिविधि रोकने के नाम पर मार्च 2002 में पोटा लागू किया गया था, अक्तूबर 2004 में इसे समाप्त कर दिया गया। सन 2004 में संशोधित अनलाॅफुल एक्टीविटिज (प्रिवेंसन) एक्ट का उपयोग वर्तमान में आतंकवादी गतिविधियों के रोकथाम के लिए किया जाता है। जबकि नवंबर 2008 में मुम्बई के आतंकवादी हमले के बाद केन्द्र सरकार ने इसमें संशोधन करके ‘राष्ट्रीय जांच एजेंसी’ बनाने का प्रस्ताव किया है। कानून के अंतर्गत आरोपी को बगैर दोष साबित हुए 180 दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी के तहत विशेष न्यायालय को यह अधिकार होगा कि वह किसी मुकदमे की सार्वजनिक सुनवाई बगैर कारण बताए स्थगित कर दे। इस तरह देखा जाय तो किसी केन्द्रीय एजेंसी का राज्य के इच्छा के बगैर दखल देना देश के संघीय ढांचे के स्वभाव के विपरीत है।

दिसंबर 2001 में संसद पर आतंकवादी हमले के बाद लागू ‘पोटा’ अधिनियम के तहत केन्द्र सरकार ने कुल 32 संगठनों को आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त या समर्थक कहकर प्रतिबंधित कर दिया था। जबकि इस कानून के जारी रहने के दौरान राजनैतिक विद्वेष के तौर पर भी इसका उपयोग किया जाता रहा है। सन 2003 में एक मानवाधिकार तथ्य अन्वेषण दल ने झारखंड में पोटा मुकदमों की समीक्षा करके बताया कि इस कानून तहत हिरासत में लिए गए 3,200 लोगों में ज्यादातर गरीब व अशिक्षित आदिवासी थे। अगस्त 1994 में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री श्री राजेश पायलट ने संसद में बताया था कि टाडा के अंतर्गत गिरफ्तार 67,000 लोगों में से सिर्फ 8,000 लोगों पर ही मुकदमा चलाया गया। जबकि उनमें से सिर्फ 725 लोग ही दोषी पाए गए।

भारतीय संविधान के अंतर्गत आम नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकार इन कड़े कानूनों के माध्यम से घोषित या अघोषित तौर पर निलंबित कर दिये जाते हैं। उदाहरण के तौर पर संविधान में 59वें संशोधन के तहत पंजाब में दो साल के लिए आम नागरिकों के लिए इन अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। इन कानूनों को लागू करके केन्द्र व राज्य संविधान के भावनाओं का उल्लंघन कर रही हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 में स्पष्ट किया गया है कि सरकार अंतरराष्ट्रीय कानूनों एवं सहमतियों का पालन करेगी। भारत सरकार ने 1979 में आईसीसीपीआर के प्रति अपनी सहमति प्रदान की है, जिसके अंतर्गत व्यवस्था है कि कुछ खास नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों से विचलित नहीं हुआ जा सकता है, क्योंकि वे जीवन व स्वतंत्रता के लिए अति आवश्यक हैं। लेकिन यह राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर कुछ अधिकारों को सीमित करने की अनुमति देती है, जबकि मानव अधिकारों को संकुचित करने का अधिकार इसके अंतर्गत नहीं हैं। जबकि प्रेस और आम लोगों को इससे मुक्त रखा जाना चाहिए। लेकिन सरकारें इन विचलनों का लाभ उठाकर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर कठोर कानून लागू कर देती हैं। इसके अलावा भारत ने ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन आॅफ ह्यूमन राइट्स (यूडीएचआर)’ सहित कई अन्य सहमतियों पर भी हस्ताक्षर किए हैं। इनके अंतर्गत स्वतंत्रता व समान अधिकार, गैर-भेदभाव, व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार, प्रताड़ना से रक्षा का अधिकार, समान कानून का अधिकार, मनमाने ढंग से गिरफ्तार न किये जाने का अधिकार, संपत्ति की रक्षा का अधिकार पर जोर दिया गया है। जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों को इन अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

डा. बिनायक सेन तो इन कानूनों के दुरूपयोग के प्रतीक मात्र हैं, जबकि इनके शिकार हजारो गुमनाम लोगों का तो कोई नामलेवा नहीं है। न्याय का अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत यह है कि जब तक किसी आरोपी का दोष सिद्ध नहीं हो जाता है उसे निर्दोष माना जाना चाहिए, लेकिन भारत के ज्यादातर कड़े कानून के अनुसार जब तक कोई गिरफ्तार व्यक्ति स्वयं को निर्दोष न साबित कर दे तब तक वह दोषी ही माना जाएगा। इस तरह देखा जाय तो केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने आतंकवाद व अलगाववाद से निपटने के नाम पर मानव अधिकारों एवं सिद्धान्तों को दरकिनार कर दिया है। इन सभी कानूनों में एक खास बात यह है कि इनके अंतर्गत सेना, स्थानीय पुलिस या अधिकारियों को न्यायेत्तर अधिकार दिया गया है, जो कि न्याय के अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत के खिलाफ है। यहां तक कि सेना द्वारा होने वाली मौतों को न्यायिक जांच के दायरे से मुक्त रखा जाता है, जबकि अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों के अनुसार किसी भी अस्वाभाविक मौत के मामले को न्यायिक दायरे में रखा जाना चाहिए। इस तरह यह भारत की न्याय व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह है। इस तरह कहा जा सकता है कि भारत में सुरक्षा के नाम पर न्यायविहीन व अलोकतांत्रिक कानूनों का बोलबाला है।

(प्रकाशित: जनसत्ता, 19 मई 2009)
(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 11 मई 2009)

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