Tuesday, December 22, 2009

भारत में बढ़ते पर्यटन से उभरते सवाल

भारत में बढ़ते पर्यटन से उभरते सवाल

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

अभी हाल ही में एक खबर पढ़ने को मिली कि ‘‘भारत में पर्यटन का भविष्य उज्जवल’’ है। खबर का लबो लुआब यह है कि पिछले सालों के मुकाबले इस साल पर्यटन द्वारा विदेशी मुद्रा आय में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है और यह प्रवृत्ति आगे भी जारी रहने की संभावना है। दुनिया भर में जहां में मंदी का साया है वहीं पर्यटन की संभावना काफी उम्मीद जगाने वाली है। लेकिन कुछ ही दिनों पहले केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक अश्विनी कुमार ने राजधानी दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान जानकारी दी थी कि भारत में यौन पर्यटन एवं मानव तस्करी की प्रवृत्ति हाल के दिनों में काफी बढ़ी है। क्या दोनों खबरों में कोई आपसी रिश्ता है? ऐसे सवालों का जवाब खोजना बहुत जरूरी हैं।

चलिए सीबीआई के खुलासे को ही आगे बढ़ाते हैं। यह तो सभी जानते हैं कि सीबीआई भाारत सरकार की एक अधिकारिक जांच एजेंसी है और इनके आंकड़े भी अधिकारिक माने जाते हैं। सीबीआई के अनुसार नशीले पदार्थों और हथियारों की तस्करी के बाद अपराधों की दुनिया में तीसरा स्थान मानव तस्करी का है। एशिया और विशेषकर भारत इस घिनौने अपराध के अड्डे के रूप में उभर रहा है। एक अनुमान के अनुसार सिर्फ नेपाल एवं बांग्लादेश से ही हरेक साल करीब 25,000 महिलाओं व बच्चों की तस्करी की जाती है। बच्चों को तस्करी के माध्यम से ले जाकर उन्हें भीषण यातनाएं देना, उन पर अत्याचार और बलात्कार जैसे अपराध किए जाते हैं। इसके अलावा गृह मंत्रालय के अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार सन 2007 में मानव तस्करी के सबसे ज्यादा 1,199 मामले तमिलनाडु में दर्ज हुए थे, जबकि पूरे देश में 3,568 केस दर्ज किए गए थे। सीबीआई का कहना है कि दुनिया भर में हर साल करीब 60 से 80 लाख लोगों की तस्करी होती है और इस कारोबार में करीब 5 से 9 अरब डाॅलर के वारे न्यारे होते हैं। पीड़ीतों में लगभग 80 प्रतिशत महिलाएं एवं बच्चियां होती हैं, जिनमें से 50 प्रतिशत अवयस्क होते हैं।

हालांकि इस बात के स्पष्ट आंकड़े मौजूद नहीं है कि इन मानव तस्करियों में से कितने प्रतिशत का पर्यटकों के मौज मस्ती लिए इस्तेमाल होता है। चूंकि भारत में यह कार्य गैरकानूनी है इसलिए इसके सही आंकड़े कभी भी हासिल नहीं हो सकते हैं लेकिन इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि पर्यटन स्थलों के आस पास यौन पेशा काफी फल फूल रहा है। दुनिया भर में पर्यटन के कई स्वरूप मौजूद हैं जिनमें एतिहासिक, धार्मिक, शैक्षणिक, एडवेंचर, इको पर्यटन आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा हाल के सालों में उन्नत चिकित्सा सुविधा वाले देशो में मेडिकल पर्यटन का भी प्रचलन बढ़ा है। स्वाभाविक तौर पर भारत में उपरोक्त सभी किस्म के पर्यटन मौजूद हैं लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सरकार किस किस्म के पर्यटन को बढ़ावा देना चाहती है? पर्यटन मुद्दे पर कार्यरत बंगलौर स्थित संस्था ‘‘इक्वेशंस’’ के मुताबिक सरकार की मौजूदा नीति इको पर्यटन को बढ़ावा देने की है और इसके लिए सबसे चहेता स्थल है भारत का ‘‘पूर्वोत्तर क्षेत्र’’। इस क्षेत्र को ‘‘अनछुआ स्वर्ग’’ कहकर प्रचारित किया जा रहा है। इसके लिए भारत के पूर्वोत्तर राज्यों सहित दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के प्रमुख पर्यटन क्षेत्रों को एक पैकेज के तौर पर विकसित करने और मुख्य रूप से इकोटूरिज्म और बौद्ध सर्किट विकसित करने की योजना है। इसके लिए एशियाई विकास बैंक कर्ज देने के लिए सैद्धांतिक रूप से सहमत भी है। लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि यह सब जहां किया जाना वहां के लोगों से कुछ राय ली जाय। शायद हमारी सरकार ऐसा जरूरी नहीं समझती।

जो लोग भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र की स्थिति से वाकिफ हैं वे इसकी तुलना थाइलैंड में 70 और 80 के दशक में विकसित हुए पर्यटन से कर सकते हैं। यह जगजाहिर है कि पर्यटन के नाम पर वहां सेक्स पर्यटन काफी फला फूला। उससे थाई समाज पर काफी नकारात्मक असर भी पड़ा। यहां तक कि थाइलैंड में बदनाम मनोरंजन स्थलों का समाप्त करने के थाइलैंड सरकार के प्रयासों पर सवाल उठाते हुए, ‘टाइम पत्रिका’ ने अपने एक लेख में अनुमान लगाया है कि बैंकाॅक बहुत जल्द ही सेक्स पर्यटकों का स्वर्ग बन जाएगा। इसके जवाब में प्रधानमंत्री थैकसिन हैर्सली ने टाइम पत्रिका की आलोचना करते हुए लोगों से आग्रह किया कि जो लेख थाइलैंड के लिए ‘‘रचनात्मक’’ नहीं हैं उस पत्रिका को न पढ़ें। लेकिन क्या इससे सच छुप सकता है? क्या पूर्वोत्तर क्षेत्र में ऐसी आशंका नहीं है? ऐसी आशंका सिर्फ हमारी नहीं है बल्कि पूर्वोत्तर के लोगों की भी है। सितंबर 2007 में दिल्ली में विश्व बैंक पर इंडिपेंडेंट पीपुल्स ट्राइब्यूनल आयोजित हुई थी उस समय नागालैंड निवासी एवं नेशनल कांउंसिल आफ चर्चेज आॅफ इंडिया के कार्यकारी सचिव रेव. अवला लौंगकुमेर ने थाइलैंड से लौटकर अपने अनुभवों के आधार पर क्षेत्र के बारे में आशंका व्यक्त की। उनका कहना था कि, ‘‘मैं सिर्फ उम्मीद कर सकता हूं कि पूर्वोत्तर के लोगों को वैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ेगा जैसा उत्तरी थाइलैंड के लोग कर रहे हैं। पर्यटन से उत्तरी थाइलैंड के लोगों को जो अपार क्षति हुई है उसे बताना सिहरन पैदा करने वाला है। सब कुछ और हर कोई एक वस्तु में तब्दील हो गया है। एक बालिका या एक महिला का मूल्य शून्य है। संस्कृति खरीददारी के लिए एक वस्तु रह गयी है जिसका मूल्य भी खरीददार ही निर्धारित करता है। एकदम असमान माहौल में पर्यटक हमेशा विजयी रहता है। मेजबान की स्थिति कमजोर हो जाती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किस प्रकार नव उदारवादी अर्थव्यवस्थाओं ने थाइलैंड को प्रभावित किया और एक मजबूत अर्थव्यवस्था तैयार की लेकिन आम लोगों को सिसकने के लिए छोड़ दिया। वह विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष था जिन्होंने उनका विनाश कर दिया।’’

क्या हमारी सरकार ऐसी स्थिति के लिए सजग है? कम से कम सरकार को इतना तो करना चाहिए कि हरेक क्षेत्र की सामाजिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक स्थिति का अकलन किए बगैर इको टूरिज्म को मनमाने ढंग से बढ़ावा न दिया जाय। हाल ही में विश्व बैंक और एडीबी ने फिर से पर्यटन में दिलचस्पी लेनी शुरू की है और उनकी योजना फिर से ठीक उन्हीं बातों में वित्तपोषण शुरू करने की है जो हमारे लोगों, संस्कृति, हमारी पारिस्थितिकी, युवा और महिलाओं के लिए काफी घातक साबित हो सकते हैं। सवाल है कि क्या हमें पर्यटन की कोई आवश्यकता है? हां, यदि स्थानीय लोगों की सहमति हो तभी। किसी भी प्रकार की पर्यटन गतिविधि वाशिंगटन या नयी दिल्ली केंद्रित व्यवस्था की नीतियों और रणनीति पर आधारित नहीं हो सकती। उन्हें साफ तरह से एवं बिना किसी समझौता के लोकतांत्रिक तरीके से तैयार एवं कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।

पर्यटन को ‘‘आनंद एवं छुट्टी‘‘ के रूप में प्रमुखता से परिभाषित किया जाता है तो हमारे मन में एक भय पैदा होता है कि पर्यटन के साथ यौन पर्यटन, बाल दुव्र्यवहार, बाल यौनशोषण तथा बुराइयां भी साथ आएंगी। हमारे पहाड़ी क्षेत्र महत्वपूर्ण हैं और वे हमारी जैव विविधता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन इलाकों को अनिवार्य रूप से संरक्षित क्षेत्र रहने देना चाहिए तथा इन्हें अनियंत्रित पर्यटन के लिए नहीं खोला जाना चाहिए। मैं चेतावनी की घंटी बजाने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। यह कहना भ्रम है कि पर्यटन से स्थानीय समुदाय को फायदा होता है। वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। पर्यटन समीकरण में असली लूटने वालो में पर्यटकों के अलावा भेजने वाले देश, बहुराष्ट्रीय कंपनियां एवं बड़े व्यवसायी होते हैं जो धनी देशों से पर्यटक भेजते हैं।




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