Tuesday, December 22, 2009

छात्र राजनीति की प्रासंगिकता


छात्र राजनीति की प्रासंगिकता
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

देश की राजधानी में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय में हर साल की ही तरह इस साल भी छात्र संघ के चुनाव हुए। इस बार विश्वविद्यालय चुनाव में काफी उथल पुथल देखने को मिला। हमेशा से विश्वविद्यालय के छात्र संघ पर कब्जा जमाने वाले मुख्य धारा के दो छात्र संगठनों के प्रमुख प्रत्याशियों का नामांकन ही खारिज कर दिया गया। ऐसे में भारत में छात्र राजनीति पर एक नजर डालने की कोशिश करते हैं।
क्या दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ कोे छात्र राजनीति का स्वस्थ चेहरा कहा जा सकता है? कहने के लिए तो भारत के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में सबसे ज्यादा छात्र इस विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं। लेकिन विश्वविद्यालय के हरेक छात्र को मताधिकार हासिल नहीं है क्योंकि विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कई काॅलेजों ने खुद को इस प्रक्रिया से अलग किया हुआ है। ऐसा इसलिए कि उन काॅलेजों का प्रबंधन छात्र राजनीति को नकारात्मक मानता है। विश्वविद्यालय से सम्बद्ध महाविद्यालयों में नामाकित छात्रो में से सिर्फ 24 प्रतिशत ही मतदान कर सकते है। इस तरह यहां के प्रतिनिधियों को पूरे विश्वविद्यालय का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। इसके अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र संघ चुनाव किसी शिक्षण संस्थान के प्रतिनिधियों का चुनाव के बजाय किसी बड़ी राजनीति के लिए शक्ति प्रदर्शन का एक माध्यम दिखता है। तभी तो सन 2008 में हुए चुनाव में लिंगदोह कमेटी के सिफारिशों को मानने के बावजूद उसकी धज्जियां उड़ाते हुए धन-बल का खुला प्रदर्शन किया गया। आखिर ऐसा क्यों न हो जब इन चुनावों को क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय राजनीति के लिए एक सीढ़ी के रूप में देखा जाता है। इस तरह राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर के राजनैतिक दलों को ऐसे पिछलग्गू कार्यकर्ता मिल जाते हैं जो कि भविष्य में सक्रिय राजनीति की आस लगाए रहते हैं। उन पिछलग्गूओं में से कुछ का कल्याण भी हो जाता है यदि वे किसी नेता के वारिस होते हैं। लेकिन इस बार चुनाव अधिकारी का डंडा चला और एनएसयूआई और एबीवीपी के तीन-तीन प्रत्याशियों का नामांकन खारिज कर दिया गया। इस तरह छात्र राजनीति में धन बल के इस्तेमाल को रोकने की एक कोशिश तो हुई ही। लेकिन कुल मिलाकर देखा जाय तो पिछले 10 सालों में एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब यहां के छात्र नेताओं ने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ज्वलंत मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी हो या आंदोलन की आगुवाई की हो।

भारत के सबसे बड़े आवासीय केन्द्रीय विश्वविद्यालय ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ (बीएचयू) में पिछले पिछले तेरह सालों से छात्र संघ स्थगित है। वहां का प्रशासन छात्र संघ को विश्वविद्यालय के हित में नहीं मानता। इन सालों में बीएचयू में जिस किसी ने भी छात्र संघ की आवाज उठाई उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब तो हाल के सालों में विश्वविद्यालय में ऐसी पीढ़ी आ चुकी है जिन्हें छात्र राजनीति से कोई मतलब ही नहीं है। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन का मनमानापन जारी है। लेकिन यदि बीएचयू के छात्र संघ का इतिहास बताता है कि विश्वविद्यालय ने कई ऐसे नेताओं को पैदा किया है जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर विश्वविद्यालय का मान बढ़ाया है।

अब दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को ही लें, वहां पर लिंगदोह कमेटी के सिफारिशों को न मानने के कारण सन 2008 में छात्र संघ चुनाव स्थगित हो चुका है। मोटे तौर पर जेएनयू छात्र संघ में धन बल का बोलबाला नहीं दिखता है। इतना ही नहीं वहां के छात्र संघ को आदर्श माना जाता रहा है। जेएनएयू का छात्र समुदाय हमेशा राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखता रहा है। इसी वजह से वहां पर सभी सामयिक व ज्वलंत मुद्दों पर स्वस्थ चर्चा होती रहती है। इसके बावजूद भी प्रशासन को छात्र संघ हमेशा खटकता रहा है। अभी दो साल पहले ही जेएनयू में छात्रों ने वहाँ पर काम करने वाले निर्माण मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी तथा अन्य सुविधाएं दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया। तब विश्वविद्यालय प्रशासन ने कहा कि यह छात्रों का काम नहीं है और उन्हें इससे दूर रहना चाहिए। लेकिन छात्रों ने अपना आंदोलन जारी रखा तो प्रशासन 8 छात्रों का निष्कासन कर दिया।
इसके अलावा भारत के आईआईटी सहित ज्यादातर तकनीकी शिक्षण संस्थाओं में छात्र संघ मौजूद ही नहीं है। अब तो पिछले कुछ सालों से निजी शिक्षण संस्थान एवं विश्वविद्यालय काफी तेजी से खुले हैं, वहां भी छात्र संघ का कोई नामलेवा नहीं है। जिस प्रकार पिछले सालो में उत्तर प्रदेश सहित भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों और कालेजों में छात्र संघ चुनावों पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है यदि उसी सोच पर चला जाए तब हमें अपने सारे लोकतांत्रिक अधिकारों को छोड़ना पड़ेगा जिसे हमने लम्बे संघर्ष के बाद हासिल किया है। छात्र संघ न गठित करने के पीछे छात्रों में अपराधीकरण का बहाना बनाया जाता है। हालांकि छात्र राजनीति का अपराधीकरण कोई नई घटना नहीं है। जब पूरी भारतीय राजनीति में धन-बल का बोलबाला हो तब छात्र राजनीति अपराधीकरण से कैसे अछूती रह सकती है। तब क्या पूरे भारत में चुनावी प्रक्रिया को बंद कर दिया जाए।

क्या जिन काॅलेजों या विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनाव नहीं होते हैं वहां पर हर साल आने वाले नये छात्रों से इस बारे में राय ली जाती है? शायद नहीं! उन शिक्षण संस्थानों में छात्रों के मन में छात्र संघ के प्रति नकारात्मक भावना भरी जाती है। एक तरफ तो विश्वविद्यालयों को देश के भावी नागरिकों के निर्माण की पाठशाला कहा जाएगा वहीं दूसरी ओर आप यह भी सिखाएंगे कि केवल अपने बारे मंें सोचो, अपने आस-पास की हकीकत से आँखें मूंदे रहो। जो अपने आस-पास हो रहे शोषण और अन्याय से कोई सरोकार नहीं रखते वे अपनी भाषा में ‘‘समझदार’’ तो हो सकते हैं लेकिन एक बेहतर नागरिक कभी नहीं हो सकते।

आजकल गैर-राजनीतिक होना बहुत अच्छी बात मानी जाती है लेकिन हम अपने जीवन में क्या पढ़ेंगे, क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, किस प्रकार का रोजगार पाएंगे आदि बातें राजनीति से तय होती हैं। मसलन काॅलेजों में लड़कियों के पहनावे पर फरमान जारी किए जाएंगे, युवाओं द्वारा प्यार करने तथा दूसरे धर्म या जाति में जीवन साथी चुनने पर धार्मिक उन्माद फैलाया जाएगा, जाति पंचायत बुलाकर सजा सुनाई जाएगी। यह उन लोगों और संगठनों की राजनीति है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को नियंत्रित करना चाहते हैं, धार्मिक जकड़न तथा ऊंच-नीच पर टिकी जाति व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं। इस प्रकार वे प्रत्येक युवा को भारतीय संविधान में मिली निजी स्वतंत्रता व सम्मान के अधिकार पर हमला करते हैं। लेकिन इसके बावजूद क्या छात्र गैर-राजनीतिक बने रहेंगें?

बीते दो दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में भी निजीकरण व व्यवसायीकरण का बोलबाला हो गया है। यदि आपके पास पैसा है तो हर प्रकार की डिग्रियां मिल सकती हैं, यदि पैसे नहीं हैं तो बैंक से कर्ज की व्यवस्था है। यानी कि शिक्षा के इन दुकानदारों का मुनाफा जारी रहेगा। अब तो शिक्षा को घोषित रूप से मुनाफे का धंधा मान लिया गया है। उद्योगपतियों की ओर से सरकार को सौंपी गई बिरला-अम्बानी रिपोर्ट इसका नायाब उदाहरण है। सरकार इनको मुफ्त जमीन उपलब्ध कराती है, सुविधाएं देती है और ये लोगों की जेबों से लाखों की उगाही करते हैं। क्या शिक्षा अमीरों के लिए पैसे कमाने का व्यवसाय बनी रहेगी या यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वो सबको निःशुल्क एक समान एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराए। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान सरकार ने चुप्पे से देश के निजी विश्वविद्यालयों को अपने नाम के साथ ‘डीम्ड’ शब्द लगाने की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी है। इस तरह हाल ही में केन्द्र सरकार द्वारा घोषित ‘सबको शिक्षा का अधिकार’ सिर्फ दिखावा नजर आता है। अगर छात्र ये सब सवाल खड़े करने लगंे तो यह राजनीति हो जाएगी। यदि सही प्रश्न खड़ा करना राजनीति है तो यह राजनीति की जानी चाहिए।

छात्रों ने हमेशा समाज परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भमिका निभायी है। चाहे वो आजादी का आंदोलन हो या आजादी के बाद 70 के दशक में में नक्सलबाड़ी और जेपी आंदोलन हो। आजकल कभी-कभार छात्रों की किसी स्थानीय मांग के लिए छोटी-मोटी आवाज उठती है लेकिन कोई संगठित प्रतिरोध नहीं दिखता है। छात्र राजनीति के नाम पर एबीवीपी, एनएसयूआई सहित कुछ राष्ट्रीय राजनति से जुड़े दलों के छात्र संगठन जैसे व्यवस्था पोषक छात्र संगठन ही दिखायी पड़ते हैं। इन संगठनों ने ही छात्र राजनीति को पैसे और गुण्डों का पर्याय बना दिया है। बल्कि जब छात्र अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होंगे और सक्रिय हस्तक्षेप करेंगे तब छात्र राजनीति पैसे और गुण्डों का नहीं सामाजिक परिवर्तन का पर्याय बनेगी। इसके लिए जरूरी है कि देश के हरेक उच्च शिक्षण संस्थान में राजनैतिक बहस जारी रहे और स्वस्थ छात्र संघ कायम रहे।




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