Tuesday, December 22, 2009

बाढ़ तो फिर भी आएगी

बाढ़ तो फिर भी आएगी
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

हमारे देश में खबरिया चैनलों को हमेशा ऐसे खबरों की तलाश रहती है जिसके लिए ज्यादा मेहनत न करनी पड़े, उन्हें दर्शक भरपूर मिले और वे संवेदनहीन न कहलाएं। चैनलों की ये इच्छा तो मानसून शुरू होते ही पूरी हो जाती है। इसमें खासा योगदान रहता है बिहार एवं उत्तर-पूर्व के क्षेत्रों का। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस मुद्दे की बात कर रहा हूं? जी हां, मैं बाढ़ से जुड़े खबरों की ही बात कर रहा हूं। हर साल की तरह इस बार भी बिहार के कुछ इलाके में बाढ़ की विपदा आई हुई है। लेकिन इस बार बागमती और लखनदेई नदियों के तटबंध टूटने से बाढ़ आई है। बागमती नदी में सीतामढ़ी जिले के रूनीसैदपपुर ब्लाॅक के तिलक ताजपुर के पास 200 मीटर तटबंध टूटा है, जबकि बागमती की ही सहायक नदी लखनदेई में दो जगह दरार आई है। सरकारी सूत्रों के अनुसार इस साल अब तक 75 गांवों के 3 लाख लोगों के घर बार डूब चुके हैं। लेकिन खबरिया चैनलों को मसाला मिल गया है।

इस साल भी प्रभावित लोगों के लिए राहत का दौर चलेगा, फिर आरोप प्रत्यारोप का दौर चलेगा, इसके बाद तटबंधों के मरम्मत में रकम खर्च किया जाएगा। यानी फिर से इंजिनियरों एवं ठेकेदारों की चांदी हो जाएगी। इस पूरी कवायद में जिन गरीबों के जान माल की क्षति हुई उनके लिए कोई स्थायी राहत की व्यवस्था तो फिलहाल हाल नहीं दिखती है। इस तरह पिछले पचास सालों से यह सिलसिला जारी है। बात बड़ी अजीब है कि नदियां तो सदियों से मौजूद हैं, बाढ़ भी सदियों से आती रही हैं तो फिर यह सिलसिला पचास साल से ही क्यों?

हां बात बिल्कुल सही है कि बिहार में पचास के दशक के पहले आने वाली बाढ़ों का स्वरूप ऐसा नहीं होता था। जब पहले बाढ़ आती थी तो स्थानीय लोग पहले से ही अपने घर बार छोड़कर सुरक्षित जगहों पर शरण ले लेते थे और पानी उतरते ही अपने स्थानों में वापस लौट जाते थे। वैसे भी पहले बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में लोग स्थाई निर्माण बहुत ही कम करते थे। लेकिन आजादी के बाद पूरे देश के लिए बाढ़ का स्थायी हल खोजने की कवायद शुरू हुई। भारत सरकार ने सन 1954 में पहली बाढ़ नियंत्रण नीति बनाई और उस समय देश भर में तमाम नदियों के किनारे कुल 33928.64 किमी लंबे तटबंध बनाने की योजना बनी। इसके पीछे लक्ष्य था देश भर के 2458 शहरों व कस्बों एवं 4716 गांवों को बाढ़ की तबाही से मुक्त करना। लेकिन हुआ क्या? सन 1954 में जहां पूरे देश में बाढ़ प्रवण इलाका 74.90 लाख हेक्टेअर था वहीं सन 2004 में बढ़कर करीब 22 गुना हो गया। जबकि नौंवी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति तक (2002 तक) भारत सरकार इस कार्य के लिए 8113.11 करोड़ खर्च कर चुकी थी। बिहार में सन 1952 में राज्य में नदियों के किनारे बने तटबंधों की लंबाई 160 किमी थी तब उस समय बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेअर था। जबकि पचास साल बाद सन 2002 के आंकड़ों के अनुसार नदियों के किनारे बने तटबंधों की लम्बाई 3,430 किमी हो चुकी है लेकिन फिर भी बाढ़ प्रवण क्षेत्र बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेअर हो गई है। तो क्या बाढ़ के लिए इंजिनियरिंग हल जायज माना जाय?

बिहार स्थित ‘बाढ़ मुक्ति अभियान’ के संयोजक डा. दिनेश कुमार मिश्र को बिहार के बाढ़ के मामले में सबसे बड़े विशेषज्ञों में गिना जाता है। उनका मानना है कि वास्तव में देखा जाय तो बाढ़ की ये व्यापकता इंजिनियरिंग हल के ही परिणाम हैं। अब सन 2008 का ही वाकया लेते हैं जब कोसी नदी का तटबंध टूटा था तो करीब 40 लाख लोग प्रभावित हुए थे। कोसी का तटबंध नेपाल में कुशहा के पास बीरपुर बराज से 12.9 किमी ऊपर टूटा था। कोसी का तटबंध अब तक कुल आठ बार टूटा है। मजेदार बात यह है कि उत्तरी बिहार में आने वाले बाढ़ के लिए नेपाल को जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्या सच में ऐसा है? यह स्वाभाविक बात है कि उत्तरी बिहार में आने वाली नदियां जैसे गंडक, बुढ़ी गंडक, बागमती, आधवारा, धाउस, कमला, बलान, कोसी आदि सभी नेपाल से होकर ही आती हैं। जबकि नेपाल के पास ऐसा कोई भी ढांचा नहीं है जिससे कि नदियों को नियंत्रित किया जा सके। तो फिर नेपाल जिम्मेदार कैसे हुआ? जहां तक तटबंध टूटने की बात है वह नेपाल के इलाके में है लेकिन उस पर नियंत्रण तो भारत का ही है। नेपाल के 34 गांव कोसी बराज के नीचे हैं, लेकिन इसमें नेपाल का नियंत्रण कहीं नहीं है। बराज की पूरी प्रवाह क्षमता 9.5 लाख क्यूसेक है। 18 अगस्त 2008 को जब तटबंध में दरार पड़ी, उस समय पानी का प्रवाह 1.44 लाख क्यूसेक था, जबकि तटबंध और बराज की डिजाइन 9.5 लाख क्यूसेक क्षमता के अनुरूप बना है। इतने कम प्रवाह पर तटबंध का टूटना यह साबित करता है कि कोसी नदी की पेटी में गाद जमाव काफी ज्यादा है और तटबंध का रखरखाव बहुत बुरी अवस्था में है। तटबंध के दरार वाले हिस्से से बाहर जाने वाला पानी कोसी नदी में फिर से प्रवेश नहीं कर सका क्योंकि नदी पर दरार वाली जगह से 125 किमी आगे तक तटबंध बना हुआ है। इससे यह बात साबित होती है कि तटबंधों की वजह से नदी के स्वाभाविक जलग्रहण की प्रक्रिया बाधित होती है। बारिश का पानी भी तटबंध के बाहर जमा हो जाता है। इससे छोटी नदियों का संगम भी बाधित हो जाता है। स्लुइस गेट बनाकर इसके हल की कोशिश की गई, लेकिन वह भी सफल नहीं हो सका। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि मुख्य नदी में ज्यादा प्रवाह हो और सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में ज्यादा बारिश हो तो भी उसका पानी नदी में नहीं जा पाएगा। और फिर धीरे-धीरे नदी के पेटी में गाद भर जाता है और नदी का तल ऊपर उठ जाता है और तटबंध काम करना बंद कर देते हैं। इसके अलावा तटबंध की भी एक निर्धारित उम्र होती है। तटबंध बनने के बाद यदि उनके असर का मूल्यांकन करें तो सही स्थिति स्पष्ट हो जाती है।

कई बार कहा जाता है कि स्थानीय लोग ही तटबंध काट देते हैं। लेकिन यदि वे ऐसा करते हैं तो सच में वे अपनी जान माल बचाने के लिए करते हैं। अब तक न ऐसा कोई तटबंध बना है और न भविष्य में बनेगा जिसमें कटाव न आए। देश में विभिन्न नदी घाटी में बने तटबंधों को लोग समय-समय पर काटते रहते हैं। लेकिन ज्यादातर मौकों में छोटे तटबंध जलजमाव से निजात पाने के लिए ही तोड़े जाते हैं। इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थिति की मांग है कि गाद और पानी को प्राकृतिक रूप से फैलने देना चाहिए और स्थानीय स्तर पर उसका मुकाबला करना चाहिए। जिससे जमीन की ऊर्वरा शक्ति बढ़ेगी और भूजल का स्तर भी कायम रहेगा। साथ ही विभिन्न ढांचागत निर्माण के दौरान नदियों की प्राकृतिक ड्रेनेज को कायम रखना चाहिए। तब तो तटबंधों की कोई जरूरत नहीं दिखती। लेकिन सरकार तटबंधों को क्यों हटाना चाहेगी? यदि सरकार तटबंध तोड़ना चाहेगी तो टेंडर के माध्यम से करना होगा और उसके लिए काफी पैसा चाहिए। लेकिन इसके लिए सैद्धान्तिक मंजूरी भी जरूरी है। लेकिन जो भी हो इसमें ठेकेदारों को ही लाभ होगा, वह भी शायद एक बार ही! लेकिन यदि तटबंध कायम रहता है तो उसके मरम्मत और रखरखाव में तो हर साल लाखों करोड़ों का वारा न्यारा होता है। लेकिन इसी इंजिनियरिंग हल ने बिहार के जीवनदाई बाढ़ को आपदा का स्वरूप दे दिया है। इस तरह खबर तलाशने वालों को हर साल एक मसाला मिल जाता है।


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