Saturday, December 18, 2010

सुरेंद्र मोहनः समाजवादी सिद्धांत के जीवंत प्रतीक का अंत

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

17 दिसम्बर की सुबह ही जानकारी हुई कि सुरेन्द्र मोहन जी नहीं रहे। उनके अचानक निधन की खबर स्तब्ध करने वाली थी। हम सब के लिए एक बड़ी क्षति है। अभी कल ही तो वे जंतर-मंतर पर एक धरने में शामिल हुए थे, बिल्कुल चलते-फिरते हालत में। अभी इसी माह 4 दिसम्बर को उन्होंने अपना 84वां साल पूरा किया था। उनके निधन की खबर सुनते ही मुझे धीरे-धीरे उनके जीवन से जुड़ी यादें सामने आने लगीं।

सुरेन्द्र मोहन जी के साथ सबसे पहली बार निकट से मिलने का जो मौका मिला वह मुझे अब भी याद है। सन 1998 की बात है कि दिल्ली एवं देश भर में ‘‘भूमि अधिग्रहण कानून’’ के नकारात्मक असरों के बारे में बहस छिड़ी हुई थी। तो जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय ने तय किया कि इस मुद्दे पर देश भर में वरिष्ठ लोगों से लेख लिखने का आग्रह किया जाए। इसी के तहत कुछ प्रमुख दस्तावेज लेकर मैं उनके सहविकास स्थित आवास पर पहुंचा था। उनकी सरलता देखकर मैं काफी प्रभावित हुआ, बहुत ही सहज तरीके से बात करते हुए उन्होंने खुद ही पानी लाकर मुझे दिया। उन्होंने मेरे हाथ से दस्तावेज लेकर रख लिया। मेरा मानना है कि राजनीतिज्ञ लोग वास्तविक मुद्दों के प्रति गंभीर नहीं होते हैं। लेकिन सुरेन्द्र मोहन जी बिल्कुल अलग थे, तीसरे ही दिन हमने देखा कि उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून पर बहुत ही सहज भाषा में अखबार में अपना पक्ष रखा था। वे हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों ही भाषा में बहुत सहजता से लिखते थे। उसके बाद किसी भी अखबार या पत्रिका में उनके लेखन को मैं जरूर पढ़ता था। उन्हें लगातार पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि सुरेन्द्र मोहन जी एक राजनेता, लेखक या टिप्पणीकार होने के साथ-साथ वास्तव में चिंतक थे। अपने लेखन में वे मुद्दों के तकनीकी पक्ष के बजाय उसके राजनैतिक-सामाजिक व आर्थिक पक्ष के साथ अपने चिंतन को जोड़ते थे। समाजवाद के प्रति उनकी सोच इतनी गहरी थी कि उनके साथ काम शुरू करने वाले लोगों ने अपनी जड़ें छोड़ दी, लेकिन वे किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों एवं हाशिये पर खड़े जनसमूह की आवाज लगातार विभिन्न मंचो से उठाते रहे। उनकी एक खासियत यह थी कि वे किसी दल, संगठन या उसकी विचारधारा से भले ही सहमत न हों, लेकिन किसी अधिकार आधारित मुद्दे पर खुलकर उनके पक्ष में बोलते थे। वास्तव में कहा जाए तो दिल्ली में रहते हुए हमलोग उन्हें अपने गार्जियन की तरह मानते थे। पिछले सालों में हमने उनसे सैकड़ो बार विभिन्न आंदोलनों के लिए सहयोग का आग्रह किया और वे बहुत ही आसानी से हमें उपलब्ध हो जाते थे और हर संभव मदद करते थे।

हरियाणा के अंबाला में 4 दिसंबर 1926 को जन्में सुरेन्द्र मोहन जी छात्र जीवन से ही सन 1946 से समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए थे। काशी विद्यापीठ में दो साल तक समाजशास्त्र अध्यापन करने के बाद उन्होंने पूर्णकालिक राजनैतिक कार्यकर्ता बने रहने का रास्ता चुना। वे 1973 से 1977 तक सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव रहे। जब 1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ तो वे उसके संस्थापक महासचिव थे और 1977 में जनता पार्टी की सरकार को बनाने में उन्होंने ऐतिहासिक भूमिका अदा की। सन 1978 से 1984 तक वे राज्य सभा के लिए चुने गये। वे सन 1995 से 1998 तक ‘खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग’ के अध्यक्ष रहे। वे नियमित रूप से जनता पार्टी, जनता दल, जनता दल (सेकुलर) में बने रहे और अंततः हाल ही में गठित सोशलिस्ट जनता पार्टी के अध्यक्ष चुने गये थे। सुरेंद्र मोहन जी की राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों के बीच राजनैतिक निष्ठा और सादगीपूर्ण जीवन के लिए गहरी साख थी। पूरे देश में समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, मजदूर अधिकार, नागरिक अधिकार, महिला अधिकार आदि से जुड़े आंदोलनों के पहरुए के रूप में उनकी प्रतिष्ठा थी। वे ‘जनता’ साप्ताहिक के संपादक थे। हिंदी और अंग्रेजी में सामयिक विषयों पर अखबारों और पत्रिकाओं में उनके लेख लगातार प्रकाशित होते थे। हिंदी और अंग्रेजी में उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

मेरे जीवन का बहुत बड़ा समय बनारस में गुजरा है तो, वहां से जुड़े किसी भी व्यक्ति के बारे में रुचि बढ़ना स्वाभाविक है। मुझे जब मालूम हुआ कि सुरेन्द्र मोहन जी ने काशी विद्यापीठ में अध्यापन किया था तो जब मैं बनारस जाता तो अपने लोगों से उनके बारे में चर्चा करता था। एक बार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के विभाग प्रमुख श्री बलदेव राज गुप्ता से चर्चा में मैंने बताया कि सुरेन्द्र मोहन जी से काफी मिलना होता है। तब गुप्ता जी ने कहा था कि, ‘‘अरे सुरेन्द्र मोहन, वे तो खांटी समाजवादी हैं। वे समाजवादी तरीके से सोचते, लिखते एवं जीते हैं।’’ तब से लेकर आज तक मैंने उनके जीवन में इसे महसूस किया है।

सुरेंद्र मोहन की विशेषता यह थी कि उनकी सक्रियता केवल समाजवादी आंदोलन तक सीमित नहीं रही। भारत के मजदूर और किसान आंदोलन से लेकर सर्वोदय आंदोलन और विभिन्न जनांदोलनों तक उनकी सक्रियता का विस्तार रहा। पीयूसीएल, जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम), आजादी बचाओ आंदोलन, देश बचाओ आंदोलन, लोक राजनीतिक मंच, सोशलिस्ट फ्रंट, राष्ट्र सेवा दल जैसे संगठनों के गठन और संचालन में उनकी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रही। वे एक ऐसे विरल राजनेता थे जिन्होंने समता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार आदि के लिए न केवल निरंतर संघर्ष किया बल्कि एक महत्वपूर्ण विचारक के रूप में उन विषयों, मुद्दों, समस्याओं और चुनौतियों पर गंभीर लेखन भी किया है।

आज ऐसे समय में जब राजनैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है तब सुरेन्द्र मोहन जी व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक समग्रता के तौर पर जाने जाते थे। वे उन लोगों में थे जो अपने आदर्शों के लिए कुछ भी त्याग करने को तैयार रहते थे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने के लिए आपातकाल के दौरान उन्हें 1975 में जेल भी जाना पड़ा। वे देश में समतावादी समाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए हमेशा प्रयासरत रहे। उन्हें लगभग सभी प्रमुख समाजवादी नेताओं के साथ काम करने का मौका मिला। आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, किशन पटनायक, मधु दंडवते, अशोक मेहता, मधु लिमिये, सुरेन्द्र द्विवेदी, तिलक राज, प्रेम भसीन आदि सभी के साथ करीब से जुड़े रहे। हालांकि वे हमेशा पार्टीलाइन से जुड़े रहे लेकिन विभिन्न आंदोलनों के पक्ष में खुलकर बोलते थे। उन्होंने एक बार वरिष्ठ गांधीवादी श्री सिद्धराज ढड्ढा के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन के पक्ष में तीन दिन तक उपवास भी किया। हमारे देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं के गिरते हालात, पर्यावरणीय विनाश, बड़े बांधों द्वारा इकोसिस्टम एवं अर्थव्यवस्था का विनाश, आधुनिक जीवन शैली के बढ़ते खतरे, सार्वजनिक मूल्यों एवं जीवन के प्रति घटती प्रतिबद्धता, कृषि क्षेत्र के प्रति उदासीनता, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश के कारण नकारात्मक परिणामों, औद्योगिक मजदूरों के दर्द, संस्कृतियों के एकरूपता के प्रयास आदि के प्रति वे काफी गंभीरता से चिंता व्यक्त करते रहे। इस तरह वे राजनैतिक दल, संसदीय राजनीति एवं जन आंदोलनों के बीच आपसी समन्वय के पक्षधर रहे। भारत के राजनैतिक क्षितिज में छः दशक से ज्यादा तक सक्रिय रहने वाले सुरेन्द्र मोहन समाजवादी सिद्धांतों के जीवंत प्रतीक थे।

आखिर सुरेन्द्र मोहन जी का अचानक निधन हम सब के लिए एक बड़ी क्षति है, लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि वे 84 साल की उम्र में भी बिल्कुल सक्रिय स्थिति में अपने विचारों के अनुरूप कार्य एवं लेखन करते हुए दुनिया से विदा हुए। उनके चिंतन एवं विरासत को आगे बढ़ाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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