Tuesday, December 22, 2009

जलवायु सुधार या कुछ और?


जलवायु सुधार या कुछ और?

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

9 जुलाई को इटली के ला‘अकीला शहर में चल रहे जी-8 देशों के सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन एक व्यापक समझौते को मंजूरी दी गई। समझौते के तहत विकासशील देशों पर कार्बन उत्सर्जन 2050 तक आधा करने को लेकर किसी तरह की पाबंदी शामिल नहीं है। सम्मेलन में उपस्थित जी-5 के अन्य सदस्य देशों के लिए इसे एक उपलब्धि बताई जा रही है। लेकिन क्या वाकई यह खुश होने वाली बात है? आइए इस पर गौर करते हैं।

वास्तव में देखा जाय तो इटली में चल रहे सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा है लेकिन केन्द्रीय मुद्दा तो नहीं है। तो फिर यह महत्वपूर्ण समझौता क्यों हुआ? इसके पीछे की खास बात यह है कि सम्मेलन की शुरूआत में ही जी-5 देशों के सदस्यों ने मांग की थी कि विकसित देशों को 2020 तक अपना उत्सर्जन लक्ष्य 40 प्रतिशत तक घटाना होगा। साथ ही वर्ष 2025 तक इसे 80 से 85 प्रतिशत तक घटाने की प्रतिबद्धता दिखानी होगी। यह कोई नई मांग नहीं थी बल्कि यह तो ‘‘यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लाइमेट चेंज कांफ्रेंस’’ एवं उसके क्योटो प्रोटोकाल के तहत यह विकसित देशों की जिम्मेदारी है। इसके तहत विकसित देशों को 1990 के उत्सर्जन स्तर को 2020 तक कायम करना होगा। लेकिन विकसित औद्योगिक लाभ हासिल करने की हेकड़ी में इसे मानने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन अब वैश्विक मंदी के दौर में विकासशील देशों की मांग को इनकार कर पाना उतना आसान नहीं रहा। वास्तव में जी-5 देशों के इस मांग की नींव 2007 दिसंबर में ही पड़ गई थी जब इंडोनेशिया में अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन में कोई महत्वपूर्ण सहमति नहीं बन पाई थी। उसकी वजह यह थी कि हमेशा की तरह विकसित देशों पर विकासशील देश दबाव नहीं बना पाए थे। समझौते के अंदर संपन्न औद्योगिक देशों ने दक्षिणी देशों पर उत्सर्जन कम करने का अतार्किक दबाव डाला। जबकि वहीं, उन देशों ने बुनियादी तौर पर उत्सर्जन में कमी करने और विकासशील देशों को उत्सर्जन कम करने में सहयोग करने और वातावरण के असरों के अनुकूल होने के लिए अपनी कानूनी एवं नैतिक जिम्मेदारी वहन करने से इनकार किया था। एक बार फिर, बहुसंख्यक दुनिया पर थोड़े से लोगों के सुख के लिए दबाव डाला गया था।

उसी दौरान दुनिया भर के विभिन्न जन संगठनों के कार्यकर्ता भी सम्मेलन स्थल पर उपस्थित थे। उन लोगों का कहना था कि क्लाइमेट सम्मेलन में न्याय नहीं हुआ है। उसी पृष्ठभूमि में बाली में एक साथ आए कई सामाजिक आंदोलनों एवं समूहों ने वातावरण बदलाव को रोकने एवं उसके हल के लिए कार्यवाही को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से आपस में समूह के बीच सूचना के आदान-प्रदान और सहयोग के लिए एक समन्यव - क्लाइमेट जस्टिस नाऊ - स्थापित करने के लिए सहमति जताई थी। इस तरह अधिकारिक समझौतों के परिणाम के मुकाबले बाली की बड़ी सफलता यह रही कि क्लाइमेट जस्टिस के लिए विविध, वैश्विक आंदोलन के लिए एक आधार तैयार हुआ। उस समय सम्मेलन केन्द्र के अंदर एवं बाहर, कार्यकर्ताओं ने उन वैकल्पिक नीतियों एवं व्यवहारों की मांग की जो कि आजीविका और पर्यावरण की रक्षा करे। सम्मेलन के दौरान दर्जनों समान्तर कार्यक्रमों के माध्यम सरकारों, वित्तीय संस्थानों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बढ़ावा दिए जा रहे कार्बन आॅफसेटिंग, वनों के लिए कार्बन व्यापार, एग्रोफ्यूल, व्यापार उदारीकरण एवं निजीकरण जैसे वातावरण बदलाव के खोखले हलों को उजागर किया गया।

इसके बाद जुलाई 2008 में दुनिया भर के 31 देशों के सामाजिक आंदोलनों, नागरिक समाज संगठनों, मछुआरों, किसानों, वन समुदायों व आदिवासी लोगों, महिलाओं, युवाओं एवं अन्य संगठनों के 170 से ज्यादा लोग थाइलैंड के बैंकाॅक शहर में ‘‘क्लाइमेट जस्टिस सम्मेलन’’ में शामिल हुए। सम्मेलन में शामिल सदस्यों ने क्लाइमेट जस्टिस के सिद्धांतों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की। सम्मेलन में आह्वान किया गया कि वातावरण के संकट का बोझ उनके द्वारा वहन किया जाना चाहिए जिन्होंने इसे पैदा किया है, न कि उनके द्वारा जो कि इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं। हालांकि, मौजूदा वास्तविकता यह है कि वातावरण बदलाव में वे लोग सबसे ज्यादा पीड़ीत हो रहे हैं जिन्होंने इसे पैदा नहीं किया है। इस संकट का न्यायपूर्ण हल उत्तरी देशों में एवं दक्षिणी देशों के संपन्न लोगों के अति उपभोग की समस्याओं के विरोध में होनी चाहिए। अति उपभोग की समस्या पूंजीकरण की देन है, एवं वातावरण को अस्थिर करना ही पूंजीवाद की नींव है। सम्मेलन में उत्तरी सरकारों द्वारा ग्रीनहाउस गैस में बुनियादी रूप से एवं बाध्यकारी तौर पर कमी किए जाने के लिए मानने से इनकार किए जाने की निंदा की गई। उनके द्वारा कार्बन व्यापार जैसे खोखले हलों; एग्रोफ्यूल, बड़े बांध व परमाणु ऊर्जा जैसे तकनीकी व्यवस्थाओं; एवं कार्बन विलगाव व संग्रहण जैसे वैज्ञानिक खोजों को बढ़ावा दिए जाने की भी निंदा की गई। ये तथाकथित हल वातावरण संकट को न सिर्फ बढ़ाएंगे बल्कि वैश्विक असमानता को भी बढ़ाएंगे।

सम्मेलन में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनी जिसके तहत कार्बन व्यापार का विरोध करने एवं वनों की कटाई एवं विनाश योजना से उत्सर्जन घटाने का विरोध करने पर जोेर दिया गया। यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेशंन आॅन क्लाइमेट चेंज एवं अन्य स्थलों पर चर्चाओं एवं समझौते में हस्तक्षेप एवं ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता दर्शाई गई। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानो एवं उत्तरी सरकारों द्वारा वातावरण अनुकूलन एवं दुष्प्रभाव समाप्त करने के लिए कर्ज का विरोध करना एवं उनके द्वारा अनुदान, सहायता, एवं कर्ज निरस्त्रीकरण के माध्यम से शर्तें थोपने का विरोध करने का निर्णय लिया गया। वातावरण बदलाव के अनुकूलन एवं दुष्प्रभाव कम करने के लिए किए जाने वाले समस्त सार्वजनिक वित्तपोषण में आदिवासी लोगों, मछुआरों, किसानों, महिलाओं आदि सहित प्रभावित व दरकिनार किए गए लोगों के अधिकारों को मान्यता देने की मांग पर सहमति जताई गई। विश्व व्यापार संगठन के दोहा दौर के समझौतों को निरस्त करना और खेती को डब्ल्यूटीओ से बाहर करने की मांग की गई। पर्यटन के लिए या प्राकृतिक विभीषिका से सुरक्षित करने के नाम पर तटीय समुदाय के बेदखली का विरोध करने एवं समुद्री समुदायों एवं मछुआरों को नुकसान पहुंचा सकने वाले समुद्री दीवाल, बायो-शील्ड, यूरिया एकत्रीकरण एवं कृत्रिम झाड़ियों का विरोध करने पर सहमति बनी। प्रस्तावित ‘‘ग्रीनहाउस विकास अधिकार’’ के संबंध में संगठनों एवं नेटवर्क के सदस्यों के बीच व्यापक चर्चा एवं सलाह-मशविरे की आवश्यकता एवं संयुक्त राष्ट्र वातावरण वार्ता पर उत्तरी एवं दक्षिणी अभियानों को जोड़ने की आवश्यकता जताई गई। इन सहमतियों के लिए दिसंबर 2009 में कोपेनहेगेन में होने वाले यूएन फ्रेमवर्क कन्वेशंन आॅन क्लाइमेट चेंज सम्मेलन के लिए एवं घरेलू देशों में लामबंदी करने का निर्णय लिया गया। साथ ही यह तय किया गया कि व्यापार आधारित मांगो में वातावरण की चिंता को शामिल करने एवं क्लाइमेट जस्टिस के विचारों को व्यापार अभियान से जोड़ने; यह सुनिश्चित करना कि ‘‘व्यापार जस्टिस’’ कोपेनहेगन में होने वाले यूएनएफसीसीसी सम्मेलन में विश्लेषण का केन्द्र बिंदु बने।

इस सम्मेलन के बाद इसमें शामिल सदस्यों ने अपने-अपने देशों में व्यवस्थित रूप से अभियान चलाना शुरू किया। इन अभियानों का असर कितना हुआ है इस पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी लेकिन एक बात तो साफ है कि वैश्विक मंदी से जूझ रहे विकसित देश व्यापार एवं निवेश संबंधी किसी भी समझौते तक पहुंचने के लिए जल्दबाजी में वातावरण समझौते को मंजूरी दे दी है। इसके बावजूद भी उन देशों की नियत पर शंका कायम है। यह भी हो सकता है कि व्यापार संबंधी किसी महत्वपूर्ण सहमति पर पहुंचने के बाद वातावरण समझौते के क्रियान्वयन को ठेंगा दिखा दें। आखिर जो भी हो इस सच को उजागर होने में बहुत ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। दिसंबर 2009 में कोपेनहेगन में होने वाले वातावरण सम्मेलन में औद्योगिक देशों की मंशा की कलई खुलेगी। यदि इस नये समझौते पर विकसित देश वास्तव में गंभीर हैं तो भी बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं बल्कि यह पुराने भूल को सुधारने की कोशिश मात्र है।


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