Friday, December 18, 2009

खेती के लिए नई उम्मीद: एसआरआई


खेती के लिए नई उम्मीद: एसआरआई
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
इस साल भी मानसून ने आंख मिचैली का खेल खेलना शुरू कर दिया है। भारत के सबसे दक्षिणी हिस्से केरल में दक्षिण पश्चिम मानसून ने निर्धारित समय से 4 दिन पहले ही दस्तक दी थी। इससे उत्साहित मौसम विभाग ने घोषणा कर दी कि इस वर्ष देश में मानसून सामान्य रहेगा। जब देश की एक अधिकारिक संस्था कुछ कह रही हो तो मानना ही पड़ेगा। इस सरकारी संस्था की बात पर आकर देश भर में किसानों ने खरीफ की फसल की तैयारी शुरू कर दी। हमारे यहां खरीफ के फसल के तौर पर मुख्य रूप से धान की खेती की जाती है और धान की खेती के लिए मुख्यतः रोपाई की विधि अपनाई जाती है। इसलिए मानसून सामान्य होने के खबर के साथ ही देश भर में किसानों ने धान के पौधे तैयार करने के लिए बीज बो दिए। लेकिन इसी बीच मानसून भटक गया, ऐसा हमारा नहीं बल्कि हमारे ‘मौसम विभाग’ का कहना है। लेकिन लगता है कि हमारे मौसम विभाग की व्यवस्था ही भटक गई है। इस तरह देश भर में ज्यादातर जगह मानसून 10 से 15 दिन पीछे हो गया है और संभव है इस साल औसत वर्षा सामान्य से कम भी हो! अब किसानों को भी धान की रोपाई के लिए इंतजार करना पड़ा क्योंकि भारत में आज भी ज्यादातर जगह धान की खेती वर्षा के भरोसे ही होती है। धान को ज्यादा पानी वाला फसल माना जाता है और जब पानी की व्यवस्था ही अनिश्चित हो तो फसल की लागत बढ़ती जाती है। तो ऐसी अनिश्चित स्थिति का क्या हल हो सकता है?

जहां आज एक तरफ खेती की लागत दिनो-दिन बढ़ती जा रही है और ज्यादातर किसान वैकल्पिक पेशा अपनाने को बाध्य हैं। ऐसे में यदि कोई आपसे कहे कि धान की खेती का ऐसा तरीका इजाद हुआ है जिससे बीज, खाद, पानी की लागत कम हो जाएगी और उत्पादन दुगुनी हो जाएगी तो यह चैंकाने वाली बात नजर आती है। हो सकता है कि ज्यादातर लोग इस दावे को नकार दें, लेकिन यह सच है और विश्व के कई देशों में एवं भारत के कई राज्यों में इसे सफलतापूर्वक आजमाया भी जा चुका है।

आइए इस दावे की सच्चाई का आकलन करें। झारखंड में रांची जिले के एक छोटे से गांव के निवासी ‘निकादम तुती’ सिर्फ एक एकड़ असिंचित जमीन से ही अपने पांच सदस्यों के परिवार का भरण पोषण कर लेते हैं। जबकि दो साल पहले तक इतनी ही जमीन से उनका सिर्फ चार महीने का खर्च चल पाता था। लेकिन जब ‘प्रदान’ नामक एक संस्था ने उन्हें धान की खेती करने की नई पद्धति से परिचय कराया तो उनकी जिंदगी ही बदल गई। इस पद्धति से तुती को आधे एकड़ खेत में एक फसल से 16 कुंतल धान मिल जाता है जबकि पहले सिर्फ 3 कुंतल ही मिल पाते थे। आंकड़े तो चैकाने वाले हैं लेकिन उससे भी ज्यादा चैंकाने वाली बात यह है कि इस खेती में बीज एवं पानी की लागत कम आती है। इतना ही नहीं इसमें कोई संकर नस्ल का बीज भी प्रयोग नहीं किया जाता है बल्कि सिर्फ खेती की तकनीक में बदलाव लाकर ऐसा किया गया है। इस तकनीक का नाम है ‘एसआरआई’ अर्थात सिस्टम आॅफ राइस इंटेसिफिकेशन अर्थात चावल की पैदावार बढ़ाने की तरकीब।

एसआरआई नाम से प्रचलित यह पूरी तरह मानवीय तकनीक है और इसका विकास सन 1983 में मेडागास्कर में हुआ था। इसलिए कुछ लोग इसे ‘मेडागास्कर पद्धति’ भी कहते हैं। इस तकनीक में जिसमें बीज की लागत 50 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक घट सकती है, जबकि सिंचाई की लागत 50 प्रतिशत तक घट सकती है और खास बात यह कि इसमें रासायनिक खाद का उपयोग नहीं किया जाता है। मोटे तौर पर यह माना जाता है कि पौधों के पोषण के लिए बीज के अलावा मिट्टी, धूप, पानी एवं वायु की जरूरत होती है। पारंपरिक धान की खेती में फसल को पानी के माध्यम से ज्यादा पोषण देने की कोशिश की जाती है। ऐेसे में जब खेतों में पानी भरा होता है तो जड़ों तक हवा और धूप की पहुंच कम होती है। ऐसे में रासायनिक खाद के माध्यम से पौधों को ज्यादा पोषण देने की कोशिश की जाती है। मिट्टी में ज्यादा केमिकल उपयोग होने के कारण मिट्टी का पूरा पोषण पौधों को नहीं मिल पाता है, जिससे पौधें का विकास प्रभावित होता है। जबकि एसआरआई के अंतर्गत पौधों को हवा एवं धूप एवं मिट्टी के माध्यम से ज्यादा पोषण पहुंचाने की कोशिश की जाती है। पारंपरिक खेती में करीब 25 दिन के पौधों को खेत में रोपा जाता है। जबकि एसआरआई में करीब 10-12 दिनों के पौधों को ही रोपा जाता है। इसमें यह ध्यान दिया जाता है कि पौधों को उखाड़ने के बाद आधे घंटे के अंदर एवं एक-एक पौधे ही रोपे जाएं। रोपाई के समय विशेष तौर पर ध्यान दिया जाता है कि सभी पौधों के बीच समान दूरी कायम रहे। यह दूरी 6 इंच से 16 इंच तक हो सकती है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि खर-पतवार की निराई ठीक से हो सके और पौधों को मिलने वाला पोषण खर-पतवार के हिस्से में न जा पाए। इसमें खास ध्यान इस बात पर दिया जाता है कि खेत में सिर्फ नमी बनी रहे और इस तरह खेत में कुछ समय ही पानी भरने की जरूरत होती है। इस पद्धति में कंपोस्ट खाद प्रयोग करने की ही सलाह दी जाती है। इस पद्धति के अंतर्गत बेहतर पोषण के कारण पौधे काफी स्वस्थ होते हैं और प्रति पौधे धान का उत्पादन काफी ज्यादा होता है। पारंपरिक खेती के अंतर्गत एक किलो चावल उत्पादन के लिए 3000 से 5000 लीटर तक पानी की जरूरत होती है जबकि एसआरआई में इसका करीब आधा ही लगता है।

भारत में धान ही मुख्य फसल है और खेती किए जाने वाले कुल इलाकों के 23 प्रतिशत में धान की खेती होती हैं। भारत में यह इसलिए भी ज्यादा व्यवहारिक है क्योंकि देश में जिन इलाकों में धान की खेती होती है कि उनमें से 44 प्रतिशत इलाके असिंचित हैं और वे पूरी तरह वर्षा पर ही आश्रित हैं। वर्तमान में यह 34 देशो में सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया जा रहा है। जबकि भारत में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा झारखंड पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में काफी जगह अपनाया जा रहा है। ज्यादातर जगहों पर किसान इसे एनजीओ के माध्यम से अपना रहे हैं। जहां एसआरआई के प्रति भारत में बहुत सुस्ती देखी जा रही है वहीं चीन एवं दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों में इसे बहुत तेजी से अपनाया जा रहा है। भारत में इसकी सुस्त चाल के पीछे राज्य सरकारों द्वारा तर्क दिया जाता है कि यह काफी श्रम आधारित है। लेकिन वास्तविकता यह है कि खेती में मशीनों को बढ़ावा देने वाले लोग या बड़े स्तर पर खेती करने वाले लोग इसे बढ़ावा देने से घबराते हैं, क्योंकि इससे उनका नियंत्रण समाप्त हो सकता है।

छत्तीसगढ़ में किसानों के साथ काम कर रहे जैकब नेल्लिथेलम का मानना है कि राज्य में एसआरआई पद्धति को अपनाकर न सिर्फ वर्षा की अनिश्चतता से बचा जा सकता है बल्कि पैदावार में भी बढ़ोतरी की जा सकती है। दिल्ली स्थित एक संस्था सैण्ड्रप के समन्वयक हिमांशु ठक्कर का मानना है कि भारत में करीब 240 लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर सिंचित धान की खेती होती है। यदि हम इन सभी जमीनों पर एसआरआई को लागू करते हैं तो हम अपने सिंचित इलाके में 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी कर पाने में सक्षम होंगे। साथ ही इससे धान के उत्पादन में भी 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। दोनों ही वजह आने वाले वर्षों में भारत में जल संसाधन की आवश्यकता के मद्देनजर महत्वपूर्ण प्रभाव डालेंगे। तो क्या यह सही समय नहीं है कि इसे व्यापक स्तर पर बढ़ावा देने के लिए व्यवस्थित कार्यक्रम चलाया जाए।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक 5 जुलाई 2009)
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