Tuesday, December 22, 2009

लोकतंत्र को ठेंगा दिखाती मणिपुर सरकार

लोकतंत्र को ठेंगा दिखाती मणिपुर सरकार
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
देश की राजधानी या किसी अन्य बड़े शहर में रहते हुए बहुत सारे महत्वपूर्ण समाचारों पर कई बार हमारी नजर नहीं जा पाती है। इनमें से कई समाचार ऐसे होते हैं जो कि देश या किसी राज्य की पूरी व्यवस्था को झकझोरते हैं। ऐसी ही एक घटना हाल ही में हमारे पूर्वोत्तर में स्थित मणिपुर में घटित हुई है। हुआ यह कि गत 14 सितंबर को मणिपुर में आठ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार व्यक्तियों में एशिया पेसिफिक इंडिजिनियस यूथ नेटवर्क (एपीआईवाईएन) के समन्वय समिति के सदस्य जितेन युन्मन के अलावा आल मणिपुर यूनाइटेड क्लब आॅर्गनाइजेशन के सात सदस्य (एएमयूसीओ) सुंगचेन कोईरेंग, लिकमैबम टोंपोक, ए सोकेन, इराम ब्रोजन, टोआरेम रामदा, जी शरत काबुई एवं थियम दिनेश प्रमुख है।

अब सवाल उठता है कि इनलोगों ने क्या अपराध किया है? तो जवाब है कि अभी तो कोई अपराध नहीं किया है लेकिन फिर भी उन पर गंभीर आरोपों वाली धारायें लगायी गई हैं। इनमें आईपीसी की धारा ‘121/121 ए’, गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम की धारा ‘16/18/39’ और सरकारी गोपनीयता अधिनियम की धाारा ‘ओ’ प्रमुख हैं। इसका मतलब है कि इन लोगों पर सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने का प्रयास, सरकार के खिलाफ साजिश करने, गैरकानूनी गतिविधियों को मदद करने का आरोप है। अब यदि आरोप है तो इनके खिलाफ सबूत भी पेश किए जाने चाहिए, लेकिन इसके लिए राज्य सरकार बाध्य नहीं है। इसका मतलब है कि क्या हमारे देश में किसी को बगैर आरोप के लम्बे समय तक जेल में रखा जा सकता है तो, जवाब है कि हां ऐसा संभव है। हमारे देश में कुछ राष्ट्रीय तो कुछ राज्य स्तर के कानून ऐसे हैं जिनमें किसी आरोपी को दोष सिद्ध किए बगैर काफी समय तक जेल में रखा जा सकता है। इन कानूनों में मणिपुर सहित पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में लागू सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्सपा) प्रमुख है। हालांकि इन गिरफ्तार कार्यकर्ताओं पर इस कानून की धाराएं तो नहीं लगायी गई हैं लेकिन भविष्य में इसकी संभावना जरूर है।

अब सवाल उठता है इन लोगों ने ऐसा क्या किया है जिससे सरकार को खतरा पैदा हो गया है। इसका जवाब इन लोगों की पृष्ठभूमि देखने से मिल जाता है। जितेन युन्मन एपीआईवाईएन के संस्थापक सदस्य होने के अलावा सिटीजेन कंसर्न आॅन डैम्स एंड डेवलेपमेंट (सीसीडीडी) के संयुक्त सचिव भी हैं। वे राज्य में विभिन्न मानवाधिकार मुद्दे पर काफी समय से कार्यरत है और राज्य के सैन्यीकरण के खिलाफ हैं। इन्होंने राज्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचने के नाम पर प्रस्तावित विभिन्न बड़े बांधो की सच्चाई को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के सामने रखा है। इन्हें जब गिरफ्तार किया गया तो उस समय वे यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लाइमेट चेंज की एक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में शामिल होने के लिए बैंकाक जाने के लिए इम्फाल एयरपोर्ट पहुंचे थे। इसके अलावा वे एक स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर राज्य में युवाओं में जागरूकता पैदा करने के लिए इम्फाल फ्री प्रेस, मणिपुर मेल, दि संघाई एक्सप्रेस से भी जुड़े रहे हैं। इसके अलावा इनकी राज्य में प्रस्तावित तिपाईमुख बांध सहित बांध से संबंधित कई महत्वपूर्ण रिपोर्टें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। खास बात यह है कि इनका कोई अपराधिक रिकार्ड भी नहीं है। गिरफ्तार अन्य सात लोगों की भी कोई अपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है। बल्कि वे तो राज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल करने की मांग करते रहे हैं। कुल मिलकार कहा जा सकता है कि राज्य में सरकार द्वारा अलोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है और उनका विरोध करने वालों के लिए यह सबक है।

मणिपुर में मानवाधिकार हनन का सिलसिला काफी पुराना है। राज्य की एक महिला इरोम शर्मिला चानू राज्य में लोकतंत्र विरोधी कानून आफ्सपा के खिलाफ 4 नवंबर 2000 से आमरण अनशन पर है। उन्होंने अनशन का निर्णय तब लिया जब 2 नवंबर 2000 को असम राइफल्स के समूह पर कुछ अज्ञात लोगों द्वारा बम विस्फोट के बाद सेना की गोलीबारी से 10 लोगों की मौत हुई थी एवं सैकड़ों लोग घायल हुए थे। इसके अलावा 11 जुलाई 2004 को एक खास घटना हुई जब इम्फाल के पूर्व जिला बामोन की एक 32 वर्षीय महिला थंगजम मनोरमा को असम राइफल्स द्वारा रात को उनके घर से उठा लिया गया और तमाम तरह की यातनाओं के बाद उनकी लाश को घर से 5-6 किमी दूर स्थित राजमार्ग पर फेंक दिया गया था। जिसको लेकर मणिपुर में एक बडा़ विरोध प्रदर्शन हुआ था और महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर यह नारा दिया था कि ‘‘इंडियन आर्मी रेप अस’’। मणिपुर में इस कानून का विभिन्न संगठनों द्वारा विरोध एवं तमाम आंदोलन के बाद नवंबर 2004 में गठित जीवन रेड्डी समिति ने अपनी रिपोर्ट केन्द्रीय गृह मंत्रालय को सौंप दी है, लेकिन उस पर कोई अमल नहीं हुआ है। राज्य में हर वर्ष सैकड़ों लोग सेना की गोलियों से मारे जा रहे हैं उसके बावजूद पूर्व केन्द्रीय गृहमंत्री श्री शिवराज पटिल मणिपुर में जाकर यह बयान देते हैं कि मरने वालों की संख्या इतनी नहीं है कि इस पर परेशान हुआ जाय।

इसके अलावा मनोरमा मामले को लेकर गठित की गयी सी. उपेन्द्र आयोग की रिपोर्ट दिसम्बर 2004 को आयी, पर अभी तक उसे गुप्त रखा गया है। इन स्थितियों के बीच वहां के स्कूलों की स्थिति ये है कि पूरे साल में औसतन 100 दिन या उससे कम ही चल पाते हैं, कारण वश वहां के छात्रों का लगातार पलायन जारी है और 20,000 से अधिक छात्र राज्य से बाहर जाकर पढ़ रहे हैं। स्कूली बच्चों ने राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली किताबों को राज्यपाल को वापस कर दिया है। इस तरह देखा जाय तो राज्य में अघोषित आपातकाल की स्थिति बनी हुई है।
हमेशा की तरह इस बार भी देश भर के मानवाधिकार कार्यकर्ता चिल्ला रहे हैं कि गिरफ्तार युवकों की बिना शर्त रिहाई की जाए। राज्य में लोगों को अभिव्यक्ति का अधिकार दिया जाए और सरकारी हिंसा रोका जाए। 23 सितंबर को दिल्ली में मणिुपर भवन के सामने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं नागरिक समाज के लोगों ने प्रदर्शन भी किया। लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है भला? सरकार तो सोचती है कि लोग हल्ला करते रहें हम अपनी मनमरजी करते रहेंगे। इस संदर्भ में हमें अभी हाल ही के छत्तीसगढ़ के उदाहरण को नहीं भूलना चाहिए कि गत दो साल से जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को उच्च न्यायालय के आदेश के बाद रिहा करना पड़ा। इस मामले में राज्य सरकार की बहुत फजीहत हुई थी। यदि मणिपुर में तत्काल इन युवकों की रिहाई नहीं होती है तो भविष्य में मणिपुर सरकार को भी फजीहत झेलनी पड़ सकती है। लेकिन फिलहाल राज्य सरकार द्वारा युवकों के कैरियर से जो मजाक किया जा रहा है उसकी भरपायी तो मुश्किल ही होगी। इस तरह राज्य सरकार लोकतंत्र को तो ठेंगा ही दिखा रही है।




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