Saturday, January 1, 2011

डा. विनायक सेनः अदालती फैसला या दरोगा का फरमान!

डा. बिनायक सेनः फैसला या दरोगा का फरमान!
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

डा. बिनायक सेन को राष्ट्रद्रोही करार देकर आजीवन कारावास की सजा दिये जाने के बाद देश व विदेशों में बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई। इससे देश में सरकारों की मनमानी एवं अदालती व्यस्था की एक भयानक तस्वीर उजागर होती है। देश भर में तमाम प्रतिक्रियाओं के बीच जाने माने पत्रकार एवं लेखक डा. वेद प्रताप वैदिक की टिप्पणी पढ़ने को मिली। वह टिप्पणी ‘‘कामरेडों का फिजूल रोदन’’ दैनिक भास्कर में 29 दिसम्बर के संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ है। उनकी टिप्पणी काफी दिलचस्प है, इसलिए मैं उनके लेख पर कुछ टिप्पणी करना चाहता हूं।

जिस तरह वैदिक जी ने डा. बिनायक सेन के माध्यम से उनके समर्थको के खिलाफ मोर्चा खोला है, उससे उनका पूर्वाग्रह स्पष्ट रूप से झलकता है, हालांकि उनके वैचारिक पृष्ठभूमि के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं। पिछले बीस सालों से विभिन्न कॉलमों के माध्यम से उनकी विचारों एवं टिप्पणियों को पढ़ता आया हूं। इस तरह उनके ज्ञान के बारे में कोई सवाल खड़ा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। लेकिन उन्होंने जिस तरह डा. बिनायक सेन के बारे में सवाल उठाये हैं वह निश्चित तौर पर उनके अधूरे ज्ञान को दर्शाता है। उनका पहला सवाल है कि बिनायक सेन कोलकाता या दिल्ली छोड़कर छत्तीसगढ़ ही क्यों गये? तो क्या डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद गरीबों एवं आदिवासियों के बीच काम करना अपराध है? जबकि गांवों में जाकर सेवा करना तो किसी भी डाक्टर के लिए त्याग की मिसाल माना जाता है। उन्होंने कहना चाहा है कि वे एक पूर्व नियोजित योजना के तहत छत्तीसगढ़ गये। लेकिन ऐसा कहते समय वैदिक जी भूल जाते हैं कि डा. सेन सन 1981 से छत्तीसगढ़ में हैं। इसके अलावा वे मध्य प्रदेश में 70 के दशक से ही सक्रिय रहे हैं, जबकि उस समय छत्तीसगढ़ भी मध्य प्रदेश का ही हिस्सा था। जबकि छत्तीसगढ़ में माओवाद की समस्या को सिर उठाए मात्र 20 साल ही हुए हैं।

उन्होंने टिप्पणी किया है कि यदि सचमुच बिनायक सेन ने शुद्ध सेवा का कार्य किया होता तो अब तक काफी तथ्य सामने आ जाते। आइए एक नजर डा. सेन के चिकित्सकीय उपलब्धियों पर भी डालते हैं। डा. सेन मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद से ही निजी प्रैक्टिस करने के बजाय सामुदायिक चिकित्सा के प्रति समर्पित रहे। एमबीबीएस एवं पेडियाट्रिक्स में एमडी करने के बाद उन्होंने नयी दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सोशल मेडिसिन एवं सामुदायिक स्वास्थ्य विभाग में बतौर फैकल्टी मेम्बर ज्वाइन किया। उसके बाद मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा से जुड़कर टीबी पर फोकस करते हुए उन्होंने सामुदायिक चिकित्सा केन्द्र के लिए कार्य किया। सत्तर के दशक में डा. सेन ‘मेडिको फ्रेंड्स सर्किल’ से जुड़े। शायद आप ‘मेडिको फ्रेंड्स सर्किल’ एवं उसके मिशन के बारे में अनजान नहीं होंगे। फिर भी बताते चलें कि यह भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति सामाजिक रूप से जागरूक लोगों का एक प्रतिष्ठित समूह है। सन 1974 में अपने स्थापना के समय से ही मेडिको फ्रेंड्स सर्किल ने भारत की मौजूदा स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था का विश्लेषण किया एवं देश की अधिकांश जनता के जरूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त वैकल्पिक मानवीय अवधारणा अपनाया। इसके बाद छत्तीसगढ़ में दल्ली राजहरा में श्रमिकों व खान मजदूरों के स्वास्थ्य के लिए काम करना शुरू किया और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ मिलकर शहीद अस्पताल का निर्माण किया। इसके बाद छत्तीसगढ़ के ही तिल्दा में मिशन अस्पताल की स्थापना की। अस्सी के दशक के उतराद्र्ध में वे रायपुर पहुंचकर छत्तीसगढ़ में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के विकासशील मॉडलों की स्थापना में अहम योगदान दिया। साथ ही राज्य सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवा सुधार कार्यक्रम के तहत ‘मितानीन’ कार्यक्रम में सलाहकार समिति के सदस्य नियुक्त किये गये। मितानीन कार्यक्रम के बारे में बताते चलें कि, यह ऐसा कार्यक्रम है जिसके तहत ग्रामीण स्तर पर मातृत्व एवं शिशु देखभाल के लिए महिलाओं को प्रशिक्षित किया जाता है। राज्य में एक समय यह कार्यक्रम काफी लोकप्रिय रहा, जो कि आगे चलकर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के ‘आशा’ कार्यक्रम के लिए मॉडल बना। साथ ही वे धमतरी जिले में आदिवासी समुदाय के क्लिीनिक में अपनी सेवा देते थे। डा. सेन ने राज्य के बिलासपुर जिले में ग्रामीण स्तर पर कम लागत वाले सामुदायिक स्वास्थ्य मॉडल ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ के लिए भी सलाहकार के तौर पर कार्य किया। क्या आज के दौर में किसी डॉक्टर से इससे ज्यादा निःस्वार्थ सेवा की उम्मीद की जा सकती है? डा. सेन के चित्सिकीय योगदान की वजह से मिलने वाले तमाम सम्मान एवं पुरस्कार भी उनकी सेवा की वजह से ही मिले हैं। सन 2004 में पॉल हरिसन अवार्ड, सन 2007 में इंडियन एकेडमी आॅफ सोशल साइंसेज द्वारा आर आर कैथन गोल्ड मेडल एवं 2008 में ग्लोबल हेल्थ कांउंसिल द्वारा जोनाथन मान अवार्ड फॉर हेल्थ एंड ह्यूमन राइट्स आवार्ड उनके सेवा के मिसाल हैं।

वे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ की अदालत के फैसले पर जिस तरह का आक्रमण हमारे छद्म वामपंथी कॉमरेड लोग कर रहे हैं, वैसी न्यायालय की अवमानना भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई। रायपुर के सत्र न्यायालय के फैसले पर जिस तरह से टिप्पणी हो रही है वह अदालत की अवमानना कतई नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय अदालती व्यवस्था को शर्मशार करने वाले फैसले पर सरकार एवं न्यायपलिका को अगाह करना मात्र है। मैने अदालत के 92 पेज के फैसले को पढ़ा है, और दावे के साथ कह सकता हूं कि यह किसी अदालत के फैसले बजाय एक दरोगा का फरमान नजर आता है। फैसला जबरदस्त खामियों से भरा है और उसमें पूरी तरह पूर्वाग्रह की बू आती है। बिनायक सेन तो एक जाने-माने व्यक्ति हैं और उनके साथ ऐसा हो सकता है तो राज्य के अन्य लोगों के साथ कैसा सूलूक हो रहा होगा? राज्य में दंतेवाड़ा के जेल में ही ऐसे सैकड़ों विचाराधीन कैदी हैं जिन्हें अब तक अदालत के सामने पेश तक नहीं किया गया है। उनमें से ज्यादातर को नक्सली गतिविधियों में लिप्त या नक्सली समर्थक कहकर कई सालों से हिरासत में रखा गया है। जेल के अधीक्षक तो इस पूरी व्यवस्था से व्यथित हैं और मानते हैं कि उनमें से अधिकतर बेकसूर हैं और उनके साथ जल्द न्याय होना चाहिए। अब सवाल यह है कि, क्या उनके साथ भी ऐसा ही न्याय होना चाहिए जिससे भारत की न्यायपालिका शर्मशार हो जाए? यहां सवाल किसी व्यक्ति के पार्टी लाइन का नहीं है। सवाल है देश के संविधान एवं कानून का, जिसकी धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। जिस तरह से बिनायक सेन को कानूनी जाल में फंसाये जाने की कोशिश की गई और मनमाने सबूत एवं गवाह तैयार किये गये, उससे से देश की कानून व्यवस्था मजाक बन कर रह गयी है। अब यदि इस मजाक पर कोई टिप्पणी करे तो अदालत की अवमानना कैसे कही जा सकती है? बिनायक सेन के मामले में रायपुर सत्र न्यायालय के निर्णय को देखकर देश की अदालती व्यवस्था का सच सामने आता है। यह सर्वविदित है कि डा. सेन को जो सजा मिली है वह राज्य में पीयूसीएल के माध्यम से मानवाधिकार के मुद्दे उठाने की वजह से मिली है। जाहिर है कि पीयूसीएल देश के अगुआ मानवाधिकार संगठनों में से एक है और इसका गठन स्वार्गीय जयप्रकाश नारायण ने की थी।

जिस तरह से वैदिक जी ने बिनायक सेन को बार-बार माओवादी कहने का प्रयास किया है, वह निश्चित तौर पर पूर्वाग्रहपूर्ण सोच है। इतना ही नहीं उनके सभी समर्थकों को माओवादी कहना भी पूर्वाग्रहपूर्ण है। देश भर में बिनायक सेन के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे और दिल्ली में जंतर मंतर पर 28 दिसम्बर को बिनायक सेन के समर्थन में इकट्ठा हुए सैकड़ो लोग क्या माओवादी थे? क्या वे हिंसा का समर्थन कर रहे थे? डा. बिनायक सेन पर झूठे केस लादे जाने के बाद पिछले साढ़े तीन सालों में देश भर में जो आंदोलन हुए क्या वे हिंसक रहे हैं? क्या बिनायक सेन के मामले में नक्सलवादियों या माओवादियों की ओर से कोई प्रतिक्रिया आयी है? इन सबका जवाब नहीं में मिलेगा।

वैदिक जी का कहना है कि छत्तीसगढ़ में पकड़े गये सभी लोगों को दंडित किया जाना चाहिए। साथ ही वे कहते हैं कि जो भी दंड उन्हें दिया गया है, उसे वे खुशी-खुशी स्वीकार क्यों नहीं करते? सवाल है कि यदि पकड़े गये लोग दोषी हैं तभी तो उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा है कि माओवादियों की दलाली कर रहे लोगों को कहीं उनके प्रशंसक भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और बिस्मिल के उच्चासन पर बिठाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? इस तरह वैदिक जी के सोच पर तरस आती है लेकिन जब आप किसी विचारधारा से प्रेरित हैं तो फिर आपसे निष्पक्ष विचार की उम्मीद करना बेमानी है।

आज के दौर में हिंसा के सारे समर्थक मानवता विरोधी हैं, चाहे वह हिंसा सरकारी हो या गैर-सरकारी हो। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सलवा-जुड़ुम के नाम पर भोले-भाले आदिवासियों को आपस में लड़ाने का जो प्रयास पिछले 6 सालों से किया जा रहा है, उसका सच अब दुनिया के सामने उजागर हो रहा है। इस तरह यह नक्सली हिंसा के खिलाफ सरकार प्रायोजित हिंसा द्वारा सच ठहराने की कोशिश है। और इस हिंसा एवं प्रतिहिंसा का विरोध करने वाले सभी लोगों को राष्ट्रद्रोही साबित करके मुंह बंद करने का यह सरकारी प्रयास है। यह सरकार की ओर से चेतावनी है कि यदि कोई भी हमारी नीतियों के खिलाफ मुंह खोलेगा तो उसका भी यही हाल होगा जैसा कि डा. बिनायक सेन के खिलाफ किया गया है!

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डॉ वेद प्रताप वैदिक का मूल लेख: http://www।bhaskar।com/article/ABH-comrades-of-the-nonsense-roadan-1700131.html

डॉ बिनायक सेन को लेकर देश का अंग्रेजी मीडिया और हमारे कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी जिस तरह आपा खो रहे हैं, उसे देखकर देश के लोग दंग हैं। इतना हंगामा तो प्रज्ञा ठाकुर वगैरह को लेकर हमारे तथाकथित राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी तत्वों ने भी नहीं मचाया। वामपंथियों ने आरएसएस को भी मात कर दिया। आरएसएस ने जरा भी देर नहीं लगाई और ‘भगवा आतंकवाद’ की भत्र्सना कर दी। अपने आपको हिंसक गतिविधियों का घोर विरोधी घोषित कर दिया। ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द ही मीडिया से गायब हो गया। लेकिन बिनायक सेन का झंडा उठाने वाले एक भी संगठन या व्यक्ति ने अभी तक माओवादी हिंसा के खिलाफ अपना मुंह तक नहीं खोला। क्या यह माना जाए कि माओवादियों द्वारा मारे जा रहे सैकड़ों निहत्थे और बेकसूर लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है? क्या वे भोले आदिवासी भारत के नागरिक नहीं हैं? उनकी हत्या क्या इसलिए उचित है कि उसे माओवादी कर रहे हैं? माओवादियों द्वारा की जा रही लूटपाट क्या इसीलिए उचित है कि आपकी नजर में वे किसी विचारधारा से प्रेरित होकर लड़ रहे हैं? मैं पूछता हूं कि क्या जिहादी आतंकवादी और साधु-संन्यासी आतंकवादी चोर-लुटेरे हैं? वे भी तो किसी न किसी ‘विचार’ से प्रेरित हैं। विचारधारा की ओट लेकर क्या किसी को भी देश के कानून-कायदों की धज्जियां उड़ाने का अधिकार दिया जा सकता है? क्या यही मानव अधिकार की रक्षा है?

यदि नहीं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ में जो लोग पकड़े गए हैं, उन्हें दंडित क्यों न किया जाए? जो भी दंड उन्हें दिया गया है, उसे वे खुशी-खुशी स्वीकार क्यों नहीं करते? यदि वे सचमुच माओवादी हैं या माओवाद के समर्थक हैं, तो उन्हें वैसी घोषणा खम ठोककर करनी चाहिए थी, देश के सामने और अदालत के सामने भी। जरा पढ़ें, 1921 में अहमदाबाद की अदालत में महात्मा गांधी ने अपनी सफाई में क्या कहा था। यदि वे लोग माओवादी नहीं हैं और उन्होंने छत्तीसगढ़ के खूनी माओवादियों की कोई मदद नहीं की है, तो वे वैसा साफ-साफ क्यों नहीं कहते? वे सरकारी हिंसा के साथ-साथ माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते? यदि वे ऐसा नहीं करते, तो जो अदालत कहती है, उस पर ही आम आदमी भरोसा करेगा। छत्तीसगढ़ की अदालत के फैसले पर जिस तरह का आक्रमण हमारे छद्म वामपंथी कॉमरेड लोग कर रहे हैं, वैसी न्यायालय की अवमानना भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई।

यदि बिनायक सेन और उनके साथी सचमुच बहादुर होते या सचमुच आदर्शवादी होते तो सच बोलने का नतीजा यही होता न कि उन्हें फांसी पर लटका दिया जाता। जिसने अपने सिर पर कफन बांध रखा है, वह एक क्या, हजार फांसियों से भी नहीं डरेगा। आदर्श के आगे प्राण क्या चीज है? अपने प्राणों की रक्षा के लिए बहादुर लोग क्या झूठ बोलते हैं? क्या कायरों की तरह अपनी पहचान छुपाते हैं? भारत जैसे लोकतांत्रिक और खुले देश में जो ऐसा करते हैं, वे अपने प्रशंसकों को मूर्ख और मसखरा बनने के लिए मजबूर करते हैं। माओवादियों की दलाली कर रहे लोगों को कहीं उनके प्रशंसक भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और बिस्मिल के उच्चासन पर बिठाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं?

डॉ बिनायक सेन और उनकी पत्नी यदि सचमुच आदिवासियों की सेवा के लिए अपनी मलाईदार नौकरियां छोड़कर छत्तीसगढ़ के जंगलों में भटक रहे हैं तो वे निश्चय ही वंदनीय हैं, लेकिन उनके बारे में आग उगल रहे अंग्रेजी अखबार यह क्यों नहीं बताते कि उन्होंने किन-किन क्षेत्रों के कितने आदिवासियों की किन-किन बीमारियों को ठीक किया? यदि सचमुच उन्होंने शुद्ध सेवा का कार्य किया होता तो अब तक काफी तथ्य सामने आ जाते। लोग मदर टेरेसा को भूल जाते हैं। पहला प्रश्न तो यही है कि कोलकाता या दिल्ली छोड़कर वे छत्तीसगढ़ ही क्यों गए? कोई दूसरा इलाका उन्होंने क्यों नहीं चुना? क्या यह किसी माओवादी पूर्व योजना का हिस्सा था या कोई स्वत:स्फूर्त माओवादी प्रेरणा थी? जेल में फंसे माओवादियों से मिलने वे क्यों जाते थे? क्या वे उनका इलाज करने जाते थे? क्या वे सरकारी डॉक्टर थे? जाहिर है कि ऐसा नहीं था।

इसीलिए चिट्ठियां आर-पार करने का आरोप निराधार नहीं मालूम पड़ता। मैंने खुद कई बार आंदोलन चलाए और जेल काटी है। जो लोग जेल में रहे हैं, उन्हें पता है कि गुप्त संदेश आदि कैसे भेजे और मंगाए जाते हैं। पीयूसीएल के अधिकारी के नाते बिनायक का कैदियों से मिलना डॉक्टरी कम, वकालत ज्यादा थी। यदि कॉमरेड पीयूष गुहा के थैले से वे तीन चिट्ठियां पकड़ी गईं, जो कॉमरेड नारायण सान्याल ने बिनायक सेन को जेल में दी थीं, तो गुहा की कही हुई इस बात को झुठलाने के लिए वकीलों को खड़ा करने की जरूरत क्या थी? भारत को शोषकों से मुक्त करवाने वाला क्रांतिकारी इतना छोटा-सा ‘गुनाह’ करने से भी क्यों डरता है? पकड़े गए कॉमरेडों को किराए पर मकान दिलवाने और बैंक खाता खुलवाने की बात खुद बिनायक ने स्वीकार की है। अदालत को बिनायक की सांठ-गांठ के बारे में अब तक जितनी बातें मालूम पड़ी हैं, वे सब ऊंट के मुंह में जीरे के समान हो सकती हैं। असली बातों तक वे बेचारे पुलिसवाले क्या पहुंच पाएंगे, जो इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट को आईएसआई (पाकिस्तानी जासूसी संगठन) समझ लेते हैं। पुलिसवालों का दिल गुस्से से लबालब हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि माओवादी हिंसा में वे ही थोक में मारे जाते हैं। वे नेता हैं, न धन्ना सेठ। उनके लिए कौन रोएगा? हमारे गालबजाऊ और आरामफरमाऊ बुद्धिजीवी तो उन्हें मच्छर के बराबर भी नहीं समझते। एक माओवादी के लिए जो आसमान सिर पर उठाने को तैयार है, वे सैकड़ों पुलिसवालों की हत्या पर मौनी बाबा का बाना धारण कर लेते हैं।

कौन हैं ये लोग? असल में ये ही ‘बाबा लोग’ हैं। अंग्रेजीवाले बाबा! इनकी पहचान क्या है? शहरी हैं, ऊंची जात हैं, मालदार हैं और अंग्रेजीदां हैं। आम लोगों से कटे हुए, लेकिन देश और विदेश के अंग्रेजी अखबारों और चैनलों से जुड़े हुए। इन्हें महान बौद्धिक और देश का ठेकेदार कहकर प्रचारित किया जाता है। ये देखने में भारतीय लगते हैं, लेकिन इनके दिलो-दिमाग विदेशों में ढले हुए होते हैं। इनकी बानी भी विदेशी ही होती है। भारतीय रोगों के लिए ये विदेशी नुस्खे खोज लाने में बड़े प्रवीण होते हैं। इसीलिए शोषण और अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए गांधी, लोहिया और जयप्रकाश इन्हें बेकार लगते हैं। ये अपना समाधान लेनिन, माओ, चे ग्वारा और हो ची मिन्ह में देखते हैं। अहिंसा को ये नपुंसकता समझते हैं, लेकिन इनकी हिंसा जब प्रतिहिंसा के जबड़े में फंसती है तो वह कायरता में बदल जाती है। इसी मृग-मरीचिका में बिनायक, सान्याल, गुहा, चारु मजूमदार, कोबाद गांधी - जैसे समझदार लोग भी फंस जाते हैं। ऐसे लोगों के प्रति मूल रूप से सहानुभूति रखने के बावजूद मैं उनसे बहादुरी और सत्यनिष्ठा की आशा करता हूं। ऐसे लोगों को अगर अदालतें छोड़ भी दें तो यह छूटना उनके जीवन-भर के करे-कराए पर पानी फेरना ही है। क्या वामपंथी बुद्धिजीवी यही करने पर उतारू हैं?