Tuesday, May 25, 2010

समय बड़ा क्रूर है!

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
समय बड़ा क्रूर है! उसने हमारे प्रिय साथी, आशीष मंडलोई को असमय हमसे जुदा कर दिया। 38 साल की उम्र दुनिया छोड़ने की नहीं होती है, लेकिन जब आज नर्मदा घाटी एक चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है, तभी आशीष हमसे दूर हो गये। नर्मदा आन्दोलन के एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर वे घाटी के तमाम प्रभावितों एवं बाहर की दुनिया के साथ एक मजबूत कड़ी की भूमिका निभाते थे। वे नर्मदा आन्दोलन के उन पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं में से थे जो कि खुद विवादास्पद सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र के प्रभावित हैं।

20 मई को रात करीब सवा ग्यारह बजे अशोक भाई का फोन आया कि, ‘‘अपने आशीष भाई नहीं रहे।’’ भौचक होकर अशोक भाई की बातें सुनता रहा और जैसे ही फोन रखा आंखो से नींद गायब हो चुकी थी। फिर कंप्यूटर खोल कर काम करने लगा। तभी मेरे जेहन में संजय संगवई और शोभा वाघ के चित्र उकर आये। वे दोनों भी नर्मदा आन्दोलन के मजबूत कड़ी थे और असमय काल के शिकार हो गये थे। तभी कई पुरानी यादें फिर से ताजा हो गईं।

अभी हाल की बात है, फरवरी माह में दिल्ली में पुस्तक मेले में गया हुआ था। कई स्टालों पर घुमते हुए वाणी प्रकाशन के स्टाल पर पहुंचा तो देखा काफी भीड़ लगी हुई है। मैं भी उत्सुकतावश भीड़ के करीब पहुंचा तो देखा कि एड्वोकेट संजय पारीख के एक कविता संकलन को मेधा पाटकर द्वारा विमोचन किया जाना था। अपनी आदत के अनुसार मैं भीड़ से थोड़ा दूर ही रहकर देखने को कोशिश करने लगा। देखा कि कई चिर-परिचित लोग वहां मौजूद थे। मेरा मन ललचा उठा कि जल्द ही पुस्तक का विमोचन पूरा हो और भीड़ कम हो ताकि अपने कई पुराने परिचितों से एक साथ मिल सकूं। तभी पूजा (मेरी पत्नि) ने कहा कि अन्दर चलो या फिर दूसरे स्टॉल पर चलो, बाहर खड़े रहने से क्या फायदा! तभी अचानक आशीष दिखाई पड़ गये, और मुझे भीड़ में जाने से छुटकारा मिल गया। वे नर्मदा के अदालती केस के सिलसिले में दिल्ली आए हुए थे। काफी समय बाद आशीष से मुलाकात हुई थी तो हमने बहुत सारी पुरानी यादों को फिर से ताजा किया। मैंने आशीष को पूजा से मिलवाया। आशीष ने पूजा से मिलते हुए मुझसे शिकायती लहजे में कहा कि, ‘‘आपको तो घाटी आये बहुत समय हो गया, एक बार पूजा के साथ आओ और इनको को भी नर्मदा घाटी दिखाओ। क्या हमलोगों से कोई परेशानी है क्या?’’ मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि ठीक है इस साल मॉनसून में घाटी आएंगे। ऐसा मैंने इसलिए कहा कि उस समय नर्मदा नदी उफान पर रहती है और अन्यायकारी डूब का सामना करने वाले प्रभावितों की सच्चाई से पूजा को रूबरू करा सकूंगा। साथ ही नर्मदा आन्दोलन के 25 साल पूरे होने के उपलक्ष्य पर इस साल घाटी में एक बड़े समारोह का आयोजन भी संभावित है। लेकिन आशीष की शिकायत में दम था और मेरा आश्वासन कमजोर, तभी तो उसके जीते जी मैं एक बार फिर नर्मदा घाटी नहीं जा पाया।

आशीष जूझारू होते हुए भी स्वभाव से काफी संवेदनशील थे। सन 2001 जुलाई की बात है, नर्मदा घाटी स्थित मान परियोजना स्थल पर एक गोष्ठी में शामिल होकर हम बड़वानी लौटे थे। बड़वानी में एनबीए कार्यालय पर पहुंचने के बाद शोभा ने आशीष भाई से पूछा कि, ‘‘कुछ खाने के लिए है क्या?’’ आशीष भाई ने कहा कि, ‘‘अरे खाना तैयार हो रहा है।’’ तभी शोभा ने कहा कि, ‘‘तुमलोग कुछ फल वैगरह नहीं रखते हो क्या?’’ आशीष भाई ने कहा, ‘‘यहां तो बस यही मिलेगा।’’ लेकिन पांच मिनट बाद ही आशीष मुझे लेकर धीरे से कार्यालय से बाहर निकले और शोभा के लिए थोड़े से आम और केले खरीदा और बड़े दुःखी मन से कहा, ‘‘घाटी में तो लोगों के लिए फल भी दुर्लभ है।’’ ये वही शोभा थी जो कि घाटी में जीवनशाला के बच्चों के साथ पूर्णकालिक समय दे रही थी। लेकिन 22 मई 2003 को नर्मदा के दलदल में फंस कर जान से हाथ धो बैठी, वह भी मात्र 25 साल की उम्र में। आज जब जीवनशाला के कई बच्चे घाटी से निकलकर कॉलेजों में दाखिला ले चुके हैं और नित नये प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं, तब उनकी शोभा दीदी खुशी बांटने के लिए दुनिया में नहीं है।

सन 2006 की बात है, नर्मदा घाटी के प्रभावित अपनी मांगों को लेकर दिल्ली में जंतर मंतर पर धरने पर बैठे थे, और मेधा दीदी अनिश्चितकालीन उपवास पर थीं। संजय संगवई का स्वास्थ्य काफी दिनों से ठीक नहीं था, फिर भी वे कुछ दिनों के लिए दिल्ली पहुंचे थे। वे खान-पान में काफी परहेज करते थे और उन्हें नियमित दवाईयां लेनी पड़ती थी। हालांकि हम सब साथी संजय भाई का ध्यान रखते थे, लेकिन अपनी आदत के अनुसार आशीष उनके खान-पान का काफी ध्यान रखते थे। लेकिन उन्हें बीच-बीच में बड़वानी भी जाना पड़ता था। ऐसे में उन्होंने मुझसे अधिकार पूर्वक कहा कि, ‘‘यार तुम लोग तो दिल्ली वाले हो, थोड़ा संजय भाई का ध्यान रखा करो।’’ संजय भाई बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हिन्दी, अंग्रेजी एवं मराठी तीनों भाषाओं में गड़ी गहराई से विभिन्न प्रकाशनों के लिए लिखते थे। नर्मदा आन्दोलन के बारे में उनकी गहन समझ को उनके एक ही पुस्तक ‘‘रिवर एण्ड लाईफ’’ से समझा जा सकता है। संजय भाई मुझसे हमेशा पुणे आने का आग्रह करते थे, और मैं हमेशा आने का आश्वासन देता था। लेकिन 29 मई 2007 को उनके इंतकाल की खबर आई, और 48 साल की उम्र में दुनिया से जुदा हो गये। लेकिन दुर्भाग्यवश उनके जीते जी मैं पुणे नहीं जा सका।

संजय, आशीष और शोभा, तीनों आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। तभी तो मुझे लगता है कि समय बड़ा क्रूर है, कि उसने इन तीनों से औसत जिंदगी जीने का हक भी छीन लिया। लेकिन खास संयोग यह कि तीनों की मौत मई महीने में ही हुई थी। तभी तो मुझे मई का महीना काफी भयावह लगने लगा है। लेकिन जब मैं इन लोगों के जज्बे को महसूस करता हूं तो यह भय हावी नहीं हो पाता है।

संजय भाई, शोभा और अब आशीष को श्रद्धांजलि देना सिर्फ खुद को सांत्वना देने जैसा है, क्योंकि जब तक हम सब उनके बचे हुए जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर लेते तब तक उनके प्रति श्रद्धांजलि अधूरी ही रहेगी। यदि हमें विस्थापन, अन्याय एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना है तो हमें उस जज्बे को जिंदा रखना होगा, जिसे इन लोगों ने जीवन पर्यन्त कायम रखा।