Tuesday, December 22, 2009

कितना दहशत फैलाना ठीक है!

कितना दहशत फैलाना ठीक है!

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

जी हां, यह सवाल मेरे जेहन में आया कि किस स्तर तक दहशत फैलाना ठीक होगा? यहां पर मैं कोई बालीवुड या हालीवुड की कोई डरावनी फिल्म की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि मैं तो सिर्फ एक टिप्पणी पर टिप्पणी करना चाहता हूं। यह टिप्पणी हमारे देश के पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने की है। यह टिप्पणी उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट को खारिज करते हुए की है जिसमें हिमालय के ग्लेशियरों के 2035 तक पूरी तरह गायब हो जाने का दावा किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) की 2007 की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय के ग्लेशियर दुनिया में सबसे तेजी से पिघलने वाले ग्लेशियर हैं। अगर यही हाल रहा तो 2035 तक या इससे पहले वे पूरी तरह गायब हो जाएंगे। इस रिपोर्ट के जवाब में जयराम रमेश ने कहा कि इतनी दहशत फैलाने की जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं केन्द्रीय मंत्री ने आईपीसीसी की रिपोर्ट पर सवालिया निशान लगाते हुए हिमालय के ग्लेशियरों पर एक अलग रिपोर्ट जारी की है। इस नयी रिपोर्ट ‘‘हिमालयन ग्लेशियर्स: ए स्टेट आॅफ दि आर्ट रिव्यू आॅफ ग्लेशियर स्टडीज, ग्लेशियर रिट्रीट एंड क्लाइमेट चेंज’’ को भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक वी. के. रैना ने तैयार किया है। मंत्री ने दावा किया है कि हिमालय के ग्लेशियरों में ऐसी कोई असमान्य स्थिति नहीं दिख रही है, जिससे लगे कि वे कुछ ही दशक में गायब हो जाएंगे।

अब सवाल यह उठता है कि एक ही बात के लिए दो रिपोर्ट मौजूद हैं और दोनों एक दूसरे के विपरीत दावे कर रहे हैं तो किसे सही माना जाय? या तो इस मामले पर कोई एक पक्ष झूठ बोल रहा है या तो उनके अध्ययन का तरीका ही गलत है। दोनों ही परिस्थिति में नुकसान तो हमारा ही है। चलिए हम भारत के पर्यावरण मंत्रालय के दावे पर एक नजर डाल लेते हैं। जयराम रमेश ने कहा कि छह साल पहले तक गंगोत्री ग्लेशियर प्रति वर्ष 22 मीटर की दर से घट रहा था, लेकिन 2004-05 में यह दर 12 मीटर रही। वर्ष 2007 से लेकर इस साल के मध्य तक ग्लेशियर यथावत ही हैं। उन्होंने इस आशंका को भी खारिज किया कि गलेशियर घटने से गंगा और अन्य हिमालयी नदियां सूख जाएंगी। उनका यह भी कहना है कि हिमालय के ग्लेशियरों की अंटार्टिक ग्लेशियर से तुलना ठीक नहीं है, क्योंकि हिमालय के ग्लेशियर ज्यादा ऊंचाई पर हैं। अपने दावे के पक्ष में उन्होंने कई उदाहरण भी दिए हैं। इनमें प्रमुख रूप हिमालय के पूर्वी और पश्चिमी ग्लेशियरों में पिछले कुछ वर्षों में परिवर्तन की दर को मुख्य आधार मानते हुए दो साल का अवलोकन शामिल है। अब मोटी सीे बात यह है कि ये बाते हमारे देश के अधिकारिक विभाग के माध्यम से कहा जा रहा है तो फिर आईपीसीसी के रिपोर्ट पर ही सवाल उठते हैं!

चलिए अब आईपीसीसी के पक्ष पर भी विचार करते हैं। जयराम रमेश के दावे को तो सबसे पहले आईपीसीसी प्रमुख ने ही खारिज कर दिया है। यह बात काफी दिलचस्प है कि आईपीसीसी के प्रमुख और कोई नही बल्कि भारत और खासकर भारत के हिमालयी क्षेत्र नैनीताल में जन्में आर. के. पचैरी हैं। वे जलवायु परिवर्तन पर हमारे देश के प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में सदस्य हैं। इसके अलावा भारत के एक महत्वपूर्ण संस्थान दि एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टेरी) के महानिदेशक हैं। इतना ही नहीं वे भारत के चुनिंदा नोबल पुरस्कार प्राप्त व्यक्तियों मे से एक हैं। उनका कहना है कि आईपीसीसी के हजारो वैज्ञानिकों के शोध को रैना ने मात्र दो साल के अवलोकन के आधार ठुकरा दिया है जो कि जल्दबाजी वाली बात है। इसके अलावा आईपीसीसी की रिपोर्ट ठोस वैज्ञानिक एवं प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर तैयार किए गए हैं, जबकि भारत की सरकारी रिपोर्ट में ज्यादातर द्वितीयक आंकड़ों का सहारा लिया गया है।

इतना ही नहीं जयराम रमेश के दावे के विपरीत भारत की एक पर्यावरणीय संगठन ‘रिसर्च फांउडेशन फाॅर सांइस टेक्नाॅलाजी एंड इकोलाजी’ ने अपने नवीनतम शोध के आधार पर दावा किया है कि पिछले कुछ दशक में उत्तराखंड की 34 प्रतिशत जलधाराएं अब मौसमी बन चुकी हैं। जल की निकासी में 67 प्रतिशत तक कमी आई है। रिसर्च फांउडेशन की प्रमुख डा. वंदना शिवा का कहना है कि सरकारी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन जैसी जटिल समस्या को केवल तापमान वृद्धि तक ही सीमित कर दिय गया है। हालांकि रिपोर्ट में मौसमी बर्फबारी व ग्लेश्यिरों के खिसकने की बात स्वीकार की गई है। बावजूद इसके पर्यावरण मंत्री यह दावा कर रहे हैं कि हिमालय के ग्लेशियर पिघल नहीं रहे हैं। इन सबके बावजूद सरकारी रिपोर्ट के दावों में ही आपसी विरोधाभास स्पष्ट दिखता है।

हालांकि सरकार अपने रिपोर्ट को रक्षा विभाग से जोड़कर और उसे गोपनीय बताकर इसे सावर्जनिक नहीं कर रही है। ऐसे में रिपोर्ट को कुछ सरकारी लोगों द्वारा ही अवलोकन करके बड़े बड़े दावे करना कितना उचित है? अब सवाल उठता है कि क्या इन विरोधाभासी बातों में किसी का निहित स्वार्थ है? सवाल है कि रिपोर्ट ऐसे समय जारी की गई है जब कोपेनहेगन में 7 से 18 दिसम्बर 2009 तक संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होने वाला है। तो ऐसा तो नहीं कि भारत सरकार के प्रतिनिधि सम्मेलन में जो अपना पक्ष रखने चाहते हैं उसके पूर्व तैयारी के तौर पर ही ऐसे बयान सार्वजनिक किए जा रहे हैं। हो सकता है कि ऐसे बयान से भारतीय पक्ष को सुविधा हो सकती है, लेकिन भारत के हिमालयी क्षेत्र के निवासी जो प्रत्यक्ष रूप से संकट का सामना कर रहे हैं उससे कौन निजात दिलाएगा? पर्यावरण सम्बंधी ऐसे महत्वपूर्ण रिपोर्ट के आंकड़ों को ही आधार बनाकर दुनिया भर के शोधार्थी छोटे-छोटे स्तर पर शोध करते हैं, क्योंकि इतने व्यापक स्तर पर शोध करना किसी छोटी संस्था या व्यक्ति के औकात से बाहर की बात है। जब बड़े शोध में ही आपस में विरोधाभास हो तो फिर द्वितीयक आंकड़े के तौर पर इनकी क्या प्रासंगिकता रह जाती है? यह बात तो जग जाहिर है कि दुनिया के हरे देशों में प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है, क्योंकि उस समय ज्यादातर ऐतिहासिक घटनाओं का सिलसिलेवार दस्तावेजीकरण नहीं किया था। ऐतिहासिक सन्दर्भों में विरोधाभास तो मौजूदा विचारधारा के विरोधाभास के कारण भी होता है। लेकिन क्या पर्यावरणीय मुद्दों पर भी विचारधारा में अंतर की वजह से ऐसा विरोधाभास है?

बात चाहे कुछ भी हो आखिर दोनो स्थितियों में नुकसान तो आम लोगों का ही है। भागीरथी, मंदाकिनी, यमुना एवं अलंकनंदा घाटियों में पर्यावरणीय संकट के असर दिखने शुरू हो चुके हैं। इन इलाकों में चारों एवं पशुओं की संख्या बहुत तेजी से घट रही है। जिन जगहों में साल के ज्यादातर समय बर्फ बिछी रहती थी वहां के जंगलों में आग लगने की घटनाएं आम हो चुकी हैं। गंगोत्री अपने मूल स्थान से पीछे हट चुकी है। पहाड़ी फलों पर गर्मियों के असर के कारण उन्हें अब दो हजार मीटर ऊपर लगाया जा रहा है। हिमालयी क्षेत्र के निवासी इन परिस्थितियों का सामना करते हुए दहशत में जी रहे हैं। लेकिन हमारे देश के पर्यावरण मंत्री कहते हैं कि इतनी दहशत फैलाने की जरूरत नहीं है। तो ठीक है आप ही बताएं कि कितने दहशत में रहना ठीक है? माननीय जयराम रमेश जी, अब बस कीजिए। लोगों को बहलाना बंद करें और सच का समाना करें और समस्या का हल खोजना शुरू करें। बहुत भला होगा यदि भारत के प्रतिनिधि कोपेनहेगन सम्मेलन में सच स्वीकार करके समस्या के हल के लिए दुनिया का आह्वान करें। नहीं तो इतनी देर हो चुकी होगी कि परिस्थिति किसी के काबू में नहीं रहेगी।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 30 नवम्बर 2009)

Tags: Environment, Jairam Ramesh, Glacier, Himalaya, recede, Pachauri, TERI





क्या प्रदान किया गया पुरस्कार भी वापस हो सकता है?


क्या प्रदान किया गया पुरस्कार भी वापस हो सकता है?

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
भारत के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई वाकया सुनने को मिलता हो जब किसी प्रमुख संगठन, संस्था या कंपनी को दिया गया पुरस्कार वापस लेने की सिफारिश की गई हो। लेकिन शायद ऐसा पहली बार होने की उम्मीद है। वह भी भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किए गए पर्यावरण उत्कृष्टता पुरस्कार के मामल में। जी हां, भारत में सन 2009 के लिए पर्यावरण उत्कृष्टता पुरस्कार एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एनएचपीसी लिमिटेड को प्रदान किया गया था। लेकिन जिस परियोजना को आधार मानकार एनएचपीसी को इस पुरस्कार के लिए चुना गया था, वह आधार ही झूठा निकला। एनएचपीसी भारत की एक प्रमुख सार्वजनिक कंपनी है और देश भर में सबसे ज्यादा पनबिजली परियोजनाएं स्थापित करने वाली कंपनी है।

दि एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) के पर्यावरण उत्कृष्टता पुरस्कार 2009 की जूरी पैनल (निर्णायक मंडल समिति) ने एनएचपीसी लिमिटेड को पर्यावरण उत्कृष्टता के लिए 5 जून 2009 को दिया गया पुरस्कार वापस लेने का फैसला किया है, ऐसा महत्वपूर्ण सूत्रों से पता चला है। उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री प्रशांत भूषण एवं बांधो, नदियों एवं लोगों का दक्षिण एशिया नेटवर्क (सैण्ड्रप) सहित कई लोगों और संगठनों ने जूरी को 17 अगस्त 2009 को यह कहते हुए पत्र लिखा था कि अवार्ड देने के लिए जिस परियोजना (जम्मू एवं कश्मीर में उरी पनबिजली परियोजना) का हवाला दिया गया था उस परियोजना में अपने कार्य प्रदर्शन के आधार पर एनएचपीसी अवार्ड के योग्य नहीं है। इसके अलावा, कंपनी के सामाजिक व पर्यावरणीय मुद्दों पर निराषाजनक ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए भी वह एक पर्यावरण उत्कृष्टता अवार्ड के योग्य नहीं है।

सैण्ड्रप के समन्वयक श्री हिंमाशु ठक्कर के अनुसार उरी पनबिजली परियोजना में एनएचपीसी के कार्य प्रदर्शन और इस मुद्दे पर एनएचपीसी एवं टेरी द्वारा तैयार केस स्टडी एवं परियोजना को कोष प्रदान करने वाली स्वीडिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी (सीडा) द्वारा की गई समीक्षा सहित अन्य अधिकृत दस्तावेजों के विस्तृत अध्ययन के बाद ही एनएचपीसी को अवार्ड देने का विरोध करते हुए पत्र लिखा गया।

इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस (यानी 5 जून 2009) पर, एक बहु-प्रचारित कार्यक्रम में, भारत की राष्ट्रपति ने पर्यावरणीय उत्कृष्टता और कारपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के लिए विभिन्न विजेताओं को टेरी पुरस्कार प्रदान किया। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा एवं टेरी के महानिदेशक डा. आर. के. पचैरी के नेतृत्व वाली अवार्ड की जूरी और भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की उपस्थिति में, एनएचपीसी ने श्रेणी -।।। (रुपये 1000 करोड़ से ज्यादार कारोबार वाली कंपनियों के लिए) के लिए प्रथम पुरस्कार हासिल किया। अवार्ड ‘‘एनएचपीसी के केस स्टडी पोस्ट कंसट्रक्शन इनवायर्मेंटल एंड सोशल इंपैक्ट असेशमेंट स्टडी आॅफ 480 मेगावाट उरी पाॅवर स्टेशन इन जम्मू एंड कश्मीर’’ के लिए दिया गया था।

प्राप्त जानकारी के अनुसार पत्र मिलने के बाद जूरी पैनल ने मिलकर पत्र में उठाए गए मुद्दों पर टेरी एवं एनएचपीसी की प्रतिक्रिया की जांच की। ऐसा लगता है कि जूरी पैनल ने एनएचपीसी को पुरस्कार देने के निर्णय पर पुनर्विचार करने का फैसला किया है। टेरी के कुछ प्रमुख व्यक्तियों ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया है कि एनएचपीसी ने जिस तरह सार्वजनिक पटल पर पुरस्कार का इस्तेमाल किया उस पर भी जूरी ने नाखुशी जाहिर की। यह उल्लेखनीय है कि एनएचपीसी के शेयरों के प्रारंभिक प्रस्ताव के विज्ञापन में, कंपनी ने इस अवार्ड को इस तरह से गुमराह करते हुए इस्तेमाल किया जैसे कि कंपनी को पर्यावरण संरक्षण के समग्र उत्कृष्टता के लिए पुरस्कृत किया गया हो।

शेयर बाजार में जब कोई नया शेयर प्राथमिक रूप से अधिसूचित होता है तो उसे कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। इनमें निवेशकों से शेयर में निवेश के लिए विज्ञापन देन प्रमुख है। जाहिर है कि कंपनियां शेयर के लिए दिये जाने वाले विज्ञापनो में अपनी उपलब्धि का गुणगान करती है। आम निवेशकर्ता उन्हीं विज्ञापनों के आधार पर निवेश करते हैं। लेकिन यदि ऐसे गुणगान के आधार पर जब शेयर निवेशकर्ताओं को आबंटित हो जाय और शेयर पूंजी बाजार में अधिसूचित हो जाय तब उसके बाद बता चले कि सारी बातें खोखली हैं तो निवेशकों का विश्वास टूटता है।

दुर्भाग्यवश इस मुद्दे पर टेरी ने कोई सर्वाजनिक वक्तव्य नहीं जारी की है। टेरी ने लिखे गए पत्र की सिर्फ स्वीकृति दी और विस्तृत जांच का आश्वासन दिया है लेकिन सितंबर माह के अंत तक कोई जवाब नहीं दिया है। हम देखते हैं कि एनएचपीसी ने अवार्ड लेने के लिए न सिर्फ गलत तस्वीर पेश की बल्कि वह जूरी पैनल एवं अवार्ड को कलंकित करने के लिए भी दोषी है। जब भारत की राष्ट्रपति इस अवार्ड को देने में शामिल रही हैं तो, एनएचपीसी सर्वोेच्च पद को एवं पुरस्कार समारोह में शामिल महत्वपूर्ण लोगों को विवाद में घसीटने के लिए भी दोषी है। इसी तरह, टेरी भी यथोचित जानकारी हासिल न करने एवं जूरी पैनल को गुमराह करने की दोषी है। वास्तव में टेरी के वेबसाइट में उपलब्ध एनएचपीसी पर टेरी की केस स्टडी में एनएचपीसी द्वारा किए गए दावे के समय, महत्व एवं विवरणों की समझ इतनी गलत है जैसे कि लगता है टेरी के सदस्यों ने एनएचपीसी के सभी दावों को बगैर आशंका के स्वीकार कर लिया है। यहां पर मामला आपसी हितों का भी है, क्योंकि टेरी ने हाल के सालों में एनएचपीसी से रुपये 1 करोड़ से ज्यादा का कोष प्राप्त किया है। यह आपसी हित स्वतंत्र जूरी सदस्यों के लिए मायने नहीं रखती है, लेकिन यह जूरी पैनल में शामिल टेरी के सदस्यों और यथोचित अभ्यास करने वाले टेरी के सदस्यों के संदर्भ में निश्चत तौर पर मायने रखती है। हालांकि, जब हम इसे लिख रहे हैं, तब तक टेरी ने अपने वेबसाइट में पुरस्कार विजेताओं की सूची से एनएचपीसी का नाम नहीं हटाया है, लेकिन उम्मीद करते हैं कि टेरी जल्द ही उसे हटाएगी।

चूंकि यह मामला महत्वपूर्ण सार्वजनिक हित का है, और यह मुद्दा करीब डेढ़ माह पहले उठाया गया था, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि टेरी अवार्ड की स्थिति को स्पष्ट करते हुए तत्काल इस मुद्दे पर स्पष्ट सार्वजनिक वक्तव्य जारी करे। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पूरे मामले पर स्वतंत्र संगठन व व्यक्तियों द्वारा आपत्ति दर्ज की गई। इस तरह देश में तमाम कंपनियां शेयर बाजार में अपने को ऊंचा उठाने के लिए निवेशकों को गुमराह करती हैं। ऐसे में क्या सेबी जैसी संस्था की जिम्मेदारी नहीं बनती है कि निवेशकों के साथ धोखाधड़ी न हो और पूंजी बाजार में उनका विश्वास कायम रहे।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 12 अक्तूबर 2009)

बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के कार्य प्रदर्शन की चैकाने वाली कहानी

बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के कार्य प्रदर्शन की चैकाने वाली कहानी
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
भारत में इस साल अभूतपूर्व सूखा पड़ा है। सूखे की स्थिति उन राज्यों मे भी काफी व्यापक रही है जहां सिंचाई का नेटवर्क मौजूद है। ऐसे राज्यों में आजादी के बाद से आज तक बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिए काफी रकम खर्च किए गए हैं। फिर भी उन परियोजनाओं के माध्यम से आम किसानों को सिंचाई का लाभ नहीं मिल पाया है। आइए इसके पीछे के कारणों को जानने की कोशिश करते हैं।

भारत में सिंचाई परियोजनाओं के कार्य प्रदर्शन के बारे में दिल्ली स्थित संस्था ‘सैण्ड्रप’ के हिमांशु ठक्कर एवं स्वरूप भट्टाचार्य ने पिछले 15 सालों के उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर एक अध्ययन किया है। अध्ययन के नतीजे काफी चैकाने वाले हैं। सन 1991-92 से सन 2006-07 (नवीनतम वर्ष जब तक के आंकड़े उपलब्ध हैं) तक के 15 सालों में, राज्यों से प्राप्त वास्तविक जमीनी आंकड़ों पर आधारित केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के अधिकृत आंकड़ो के अनुसार बड़ी और मध्यम स्तर की सिंचाई परियोजनाओं से शुद्ध सिंचित इलाकों (नेट इरिगेटेड एरिया) में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। पूरे देश में नहरों द्वारा शुद्ध सिंचित इलाके 1991-92 में 1.779 करोड़ हेक्टेअर थे जो सन 2006-07 में घटकर 1.535 करोड़ हेक्टेअर रह गए। अप्रैल 1991 से मार्च 2007 तक, देश ने नहरों द्वारा सिंचित इलाकों में बढ़ोतरी के लक्ष्य से बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर 130,000 करोड़ रुपये खर्च किया है। जबकि वास्तविकता यह है कि इस अवधि में इन परियोजनाओं से सिंचित इलाकों में 24.40 लाख हेक्टेअर की जबरदस्त कमी आयी है। एक तरफ तो इन आंकड़ो की सच्चाई है तो दूसरी तरफ हमारे जल संसाधन मंत्रालय का दावा है कि देश में सिंचित इलाकों में बढ़ोतरी हुई है। आखिर इस विरोधाभास के क्या मायने हैं?

सैण्ड्रप के समन्वयक एवं जल विशेषज्ञ श्री हिमांशु ठक्कर का कहना है कि सम्पूर्ण भारत के शुद्ध और सकल सिचिंत इलाके में यह बढ़ोतरी भूजल द्वारा सिंचित इलाके में बढ़ोतरी के कारण संभव हुआ है, जो सन 1990-91 में 2.469 करोड़ हेक्टेअर से बढ़कर सन 2006-07 में 3.591 करोड़ हेक्टेअर हो गया। वास्तव में भूजल से सिंचित इलाकों में बढ़ोतरी ने जल संसाधन मंत्रालय को बड़े बांधों के अक्षम कार्य प्रदर्शन की सच्चाई को छिपाने में मदद की है। सन 1990-91 में समस्त स्रोतों से शुद्ध सिंचित इलाका 4.802 करोड़ हेक्टेअर था जो कि 2006-07 में बढ़कर 6.086 हेक्टेअर हो गया है। इसी तरह इस अवधि में समस्त स्रोतों से सकल सिंचित इलाके बढ़ रहे हैं। यदि किसी इलाके में साल में दो फसल लिए जाते हैं तो सकल सिंचित इलाके में इसे दो बार गिना जाएगा, जबकि शुद्ध सिंचित इलाके में इसे एक बार गिना जाएगा। बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं से सिंचित इलाकों में कमी गंभीर चिंता की वजह होनी चाहिए और जल संसाधन मंत्रालय, विभिन्न राज्यों एवं योजना आयोग को कुछ कड़े सवालों का जवाब देना होगा। लेकिन जल संसाधन मंत्रालय, योजना आयोग एवं अन्य सभी अधिकृत एजेंसियों को हमारे जल संसाधन निवेश का ज्यादातर हिस्सा लगातार बड़ी सिचाई परियोजनाओं में खर्च करने की मूर्खता का एहसास नहीं है। मौजूदा जारी 11वी पंचवर्षीय योजना सहित हमारी सभी पंचवर्षीय योजनाओं में जल संसाधन विकास के पूरे बजट का करीब दो तिहाई बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिए उपयोग किया गया है।

इस अवधि में, जल संसाधन मंत्रालय दावा करती रही है कि देश ने 1.05 करोड़ हेक्टेअर की अतिरिक्त सिंचाई क्षमता तैयार कर ली है और 78.2 लाख हेक्टेअर अतिरिक्त उपयोग क्षमता तैयार कर ली है। यह दावा 11वीं योजना के लिए जल संसाधन के कार्यसमूह की रिपोर्ट और बाद अतिरिक्त जानकारी में किया गया है। लेकिन अधिकारिक आंकड़े साबित कर रहे हैं कि दावे कितने खोखले रहे हैं। जल संसाधन मंत्रालय ऐसे दावे बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के निवेश में और ज्यादा आबंटन की मांग के लिए करती रही है। मंत्रालय ने प्रस्ताव किया है कि निर्माणाधीन बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिए 11वीं योजना में रुपये 165900 करोड़ आबंटित किया जाना चाहिए। मौजूदा तथ्य साबित करते हैं कि इस तरह सार्वजनिक धन की पूरी तरह बरबादी की संभावना है।
इस अवधि में नहरों से चार प्रमुख राज्यों (आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और जम्मू एवं कश्मीर) के सकल (एवं शुद्ध) सिंचित इलाकों के लिए उपलब्ध आवश्यक आकड़े इसी प्रवृत्ति को दर्शाते हैं कि यहां तक कि नहरों से होने वाले सकल सिंचित इलाकंों में भी गिरावट आ रही है, जबकि इन सालों में पूरे देश के सकल सिंचित इलाकों के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। सन 1991 से 2007 की अवधि में (2002 एवं 2004 के संभावित अपवाद को छोड़कर) ज्यादातर सालों में बारिश की स्थिति सामान्य से बेहतर रही है। इसलिए यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह प्रवृत्ति कम वर्षा की वजह से है।

इस परिस्थिति के लिए कुछ वजहों में शामिल हैं जलाशयों एवं नहरों में गाद जमा होना, सिंचाई अधोसंरचना के रखरखाव का अभाव, नहरों के शुरूआती इलाकों में ज्यादा पानी खपत वाले फसले लेना और नहरों का न बनना और एक नदीघाटी में जरूरत से ज्यादा (वहन क्षमता से ज्यादा) परियोजनाएं बनना, जल जमाव व क्षारीयकरण, पानी को गैर सिंचाई कार्यो के लिए मोड़ना, भूजल दोहन का बढ़ना। कुछ लोगों द्वारा एक वजह बतायी जाती है: बढ़ी हुई वर्षा जल संचयन। कुछ मामलों में, नये परियोजनाओं से बढ़ने वाले इलाके आंकड़ों में परिलक्षित नहीं होते हैं क्योंकि पुरानी परियोजनाओं से सिंचित इलाके (उपरोक्त कारणों से) कम हो रहे हैं। वास्तव में विश्व बैंक की 2005 की रिपोर्ट ‘‘इंडियाज वाटर इकाॅनामीः ब्रैसिंग फाॅर ए टर्बुलेंट फ्यूचर’’ ने स्पष्ट किया है कि भारत के सिंचाई अधोसंरचनाओं (जो कि दुनिया में सबसे बड़ी है) के रखरखाव के लिए सलाना वित्तीय आवश्यकता रुपये 17,000 करोड़ है, लेकिन इसके लिए इस रकम का 10 प्रतिशत से भी कम उपलब्ध है और उनमें से ज्यादातर का अधोसंरचनाओं के भौतिक रखरखाव के लिए उपयोग नहीं होता है। कुछ अति-विकसित नदीघाटियों में, नई परियोजनाएं कुछ भी बढ़ोतरी नहीं करती, क्योंकि वे कुछ डाउनस्ट्रीम इलाकों (बांध के नीचे के इलाके) के पानी को छीन रही होती हैं।

इन निष्कर्षों के गंभीर निहितार्थ हैं। पहली बात, ये बहुत स्पष्ट तौर पर साबित करते हैं कि देश में हर साल बड़ी सिंचाई परियोजनाओं पर खर्च होने वाले हजारो करोड़ से शुद्ध सिंचित इलाकों में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है। दूसरी बात, यह कि सिंचित इलाकों में वास्तविक बढ़ोतरी भूजल से होने वाली सिंचाई से हो रही है और भूजल सिंचित खेती की जीवनरेखा है। हिमांशु ठक्कर का मानना है कि इससे बहुत सारे जावबदेही के सवाल उठते हैं: इन गलत प्राथमिकताओं को तय करने के लिए कौन जिम्मेदार है और इनके परिणाम क्या होंगे? यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि नये बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिए पैसे खर्च करने के बजाय, यदि हम मौजूदा अधोसंरचनाओं के मरम्मत एवं उपयुक्त रखरखाव में, जलाशयों में गाद को कम करने के उपाय में, साथ ही वर्षा जल संचयन, भूजल रिचार्ज एवं वर्षा आधारित क्षेत्रों में ध्यान देने में रकम खर्च करते हैं तो देश को ज्यादा फायदा होगा। भूजल के मामले में, हमें मौजूदा भूजल को सुरक्षित रखने और उसके संवर्धन को उच्च प्राथमिकता देने की जरूरत है।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 05 अक्तूबर 2009)

लोकतंत्र को ठेंगा दिखाती मणिपुर सरकार

लोकतंत्र को ठेंगा दिखाती मणिपुर सरकार
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी
देश की राजधानी या किसी अन्य बड़े शहर में रहते हुए बहुत सारे महत्वपूर्ण समाचारों पर कई बार हमारी नजर नहीं जा पाती है। इनमें से कई समाचार ऐसे होते हैं जो कि देश या किसी राज्य की पूरी व्यवस्था को झकझोरते हैं। ऐसी ही एक घटना हाल ही में हमारे पूर्वोत्तर में स्थित मणिपुर में घटित हुई है। हुआ यह कि गत 14 सितंबर को मणिपुर में आठ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार व्यक्तियों में एशिया पेसिफिक इंडिजिनियस यूथ नेटवर्क (एपीआईवाईएन) के समन्वय समिति के सदस्य जितेन युन्मन के अलावा आल मणिपुर यूनाइटेड क्लब आॅर्गनाइजेशन के सात सदस्य (एएमयूसीओ) सुंगचेन कोईरेंग, लिकमैबम टोंपोक, ए सोकेन, इराम ब्रोजन, टोआरेम रामदा, जी शरत काबुई एवं थियम दिनेश प्रमुख है।

अब सवाल उठता है कि इनलोगों ने क्या अपराध किया है? तो जवाब है कि अभी तो कोई अपराध नहीं किया है लेकिन फिर भी उन पर गंभीर आरोपों वाली धारायें लगायी गई हैं। इनमें आईपीसी की धारा ‘121/121 ए’, गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम की धारा ‘16/18/39’ और सरकारी गोपनीयता अधिनियम की धाारा ‘ओ’ प्रमुख हैं। इसका मतलब है कि इन लोगों पर सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने का प्रयास, सरकार के खिलाफ साजिश करने, गैरकानूनी गतिविधियों को मदद करने का आरोप है। अब यदि आरोप है तो इनके खिलाफ सबूत भी पेश किए जाने चाहिए, लेकिन इसके लिए राज्य सरकार बाध्य नहीं है। इसका मतलब है कि क्या हमारे देश में किसी को बगैर आरोप के लम्बे समय तक जेल में रखा जा सकता है तो, जवाब है कि हां ऐसा संभव है। हमारे देश में कुछ राष्ट्रीय तो कुछ राज्य स्तर के कानून ऐसे हैं जिनमें किसी आरोपी को दोष सिद्ध किए बगैर काफी समय तक जेल में रखा जा सकता है। इन कानूनों में मणिपुर सहित पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में लागू सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्सपा) प्रमुख है। हालांकि इन गिरफ्तार कार्यकर्ताओं पर इस कानून की धाराएं तो नहीं लगायी गई हैं लेकिन भविष्य में इसकी संभावना जरूर है।

अब सवाल उठता है इन लोगों ने ऐसा क्या किया है जिससे सरकार को खतरा पैदा हो गया है। इसका जवाब इन लोगों की पृष्ठभूमि देखने से मिल जाता है। जितेन युन्मन एपीआईवाईएन के संस्थापक सदस्य होने के अलावा सिटीजेन कंसर्न आॅन डैम्स एंड डेवलेपमेंट (सीसीडीडी) के संयुक्त सचिव भी हैं। वे राज्य में विभिन्न मानवाधिकार मुद्दे पर काफी समय से कार्यरत है और राज्य के सैन्यीकरण के खिलाफ हैं। इन्होंने राज्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचने के नाम पर प्रस्तावित विभिन्न बड़े बांधो की सच्चाई को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के सामने रखा है। इन्हें जब गिरफ्तार किया गया तो उस समय वे यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लाइमेट चेंज की एक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में शामिल होने के लिए बैंकाक जाने के लिए इम्फाल एयरपोर्ट पहुंचे थे। इसके अलावा वे एक स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर राज्य में युवाओं में जागरूकता पैदा करने के लिए इम्फाल फ्री प्रेस, मणिपुर मेल, दि संघाई एक्सप्रेस से भी जुड़े रहे हैं। इसके अलावा इनकी राज्य में प्रस्तावित तिपाईमुख बांध सहित बांध से संबंधित कई महत्वपूर्ण रिपोर्टें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। खास बात यह है कि इनका कोई अपराधिक रिकार्ड भी नहीं है। गिरफ्तार अन्य सात लोगों की भी कोई अपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है। बल्कि वे तो राज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल करने की मांग करते रहे हैं। कुल मिलकार कहा जा सकता है कि राज्य में सरकार द्वारा अलोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है और उनका विरोध करने वालों के लिए यह सबक है।

मणिपुर में मानवाधिकार हनन का सिलसिला काफी पुराना है। राज्य की एक महिला इरोम शर्मिला चानू राज्य में लोकतंत्र विरोधी कानून आफ्सपा के खिलाफ 4 नवंबर 2000 से आमरण अनशन पर है। उन्होंने अनशन का निर्णय तब लिया जब 2 नवंबर 2000 को असम राइफल्स के समूह पर कुछ अज्ञात लोगों द्वारा बम विस्फोट के बाद सेना की गोलीबारी से 10 लोगों की मौत हुई थी एवं सैकड़ों लोग घायल हुए थे। इसके अलावा 11 जुलाई 2004 को एक खास घटना हुई जब इम्फाल के पूर्व जिला बामोन की एक 32 वर्षीय महिला थंगजम मनोरमा को असम राइफल्स द्वारा रात को उनके घर से उठा लिया गया और तमाम तरह की यातनाओं के बाद उनकी लाश को घर से 5-6 किमी दूर स्थित राजमार्ग पर फेंक दिया गया था। जिसको लेकर मणिपुर में एक बडा़ विरोध प्रदर्शन हुआ था और महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर यह नारा दिया था कि ‘‘इंडियन आर्मी रेप अस’’। मणिपुर में इस कानून का विभिन्न संगठनों द्वारा विरोध एवं तमाम आंदोलन के बाद नवंबर 2004 में गठित जीवन रेड्डी समिति ने अपनी रिपोर्ट केन्द्रीय गृह मंत्रालय को सौंप दी है, लेकिन उस पर कोई अमल नहीं हुआ है। राज्य में हर वर्ष सैकड़ों लोग सेना की गोलियों से मारे जा रहे हैं उसके बावजूद पूर्व केन्द्रीय गृहमंत्री श्री शिवराज पटिल मणिपुर में जाकर यह बयान देते हैं कि मरने वालों की संख्या इतनी नहीं है कि इस पर परेशान हुआ जाय।

इसके अलावा मनोरमा मामले को लेकर गठित की गयी सी. उपेन्द्र आयोग की रिपोर्ट दिसम्बर 2004 को आयी, पर अभी तक उसे गुप्त रखा गया है। इन स्थितियों के बीच वहां के स्कूलों की स्थिति ये है कि पूरे साल में औसतन 100 दिन या उससे कम ही चल पाते हैं, कारण वश वहां के छात्रों का लगातार पलायन जारी है और 20,000 से अधिक छात्र राज्य से बाहर जाकर पढ़ रहे हैं। स्कूली बच्चों ने राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली किताबों को राज्यपाल को वापस कर दिया है। इस तरह देखा जाय तो राज्य में अघोषित आपातकाल की स्थिति बनी हुई है।
हमेशा की तरह इस बार भी देश भर के मानवाधिकार कार्यकर्ता चिल्ला रहे हैं कि गिरफ्तार युवकों की बिना शर्त रिहाई की जाए। राज्य में लोगों को अभिव्यक्ति का अधिकार दिया जाए और सरकारी हिंसा रोका जाए। 23 सितंबर को दिल्ली में मणिुपर भवन के सामने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं नागरिक समाज के लोगों ने प्रदर्शन भी किया। लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है भला? सरकार तो सोचती है कि लोग हल्ला करते रहें हम अपनी मनमरजी करते रहेंगे। इस संदर्भ में हमें अभी हाल ही के छत्तीसगढ़ के उदाहरण को नहीं भूलना चाहिए कि गत दो साल से जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को उच्च न्यायालय के आदेश के बाद रिहा करना पड़ा। इस मामले में राज्य सरकार की बहुत फजीहत हुई थी। यदि मणिपुर में तत्काल इन युवकों की रिहाई नहीं होती है तो भविष्य में मणिपुर सरकार को भी फजीहत झेलनी पड़ सकती है। लेकिन फिलहाल राज्य सरकार द्वारा युवकों के कैरियर से जो मजाक किया जा रहा है उसकी भरपायी तो मुश्किल ही होगी। इस तरह राज्य सरकार लोकतंत्र को तो ठेंगा ही दिखा रही है।




बाढ़ तो फिर भी आएगी

बाढ़ तो फिर भी आएगी
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

हमारे देश में खबरिया चैनलों को हमेशा ऐसे खबरों की तलाश रहती है जिसके लिए ज्यादा मेहनत न करनी पड़े, उन्हें दर्शक भरपूर मिले और वे संवेदनहीन न कहलाएं। चैनलों की ये इच्छा तो मानसून शुरू होते ही पूरी हो जाती है। इसमें खासा योगदान रहता है बिहार एवं उत्तर-पूर्व के क्षेत्रों का। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस मुद्दे की बात कर रहा हूं? जी हां, मैं बाढ़ से जुड़े खबरों की ही बात कर रहा हूं। हर साल की तरह इस बार भी बिहार के कुछ इलाके में बाढ़ की विपदा आई हुई है। लेकिन इस बार बागमती और लखनदेई नदियों के तटबंध टूटने से बाढ़ आई है। बागमती नदी में सीतामढ़ी जिले के रूनीसैदपपुर ब्लाॅक के तिलक ताजपुर के पास 200 मीटर तटबंध टूटा है, जबकि बागमती की ही सहायक नदी लखनदेई में दो जगह दरार आई है। सरकारी सूत्रों के अनुसार इस साल अब तक 75 गांवों के 3 लाख लोगों के घर बार डूब चुके हैं। लेकिन खबरिया चैनलों को मसाला मिल गया है।

इस साल भी प्रभावित लोगों के लिए राहत का दौर चलेगा, फिर आरोप प्रत्यारोप का दौर चलेगा, इसके बाद तटबंधों के मरम्मत में रकम खर्च किया जाएगा। यानी फिर से इंजिनियरों एवं ठेकेदारों की चांदी हो जाएगी। इस पूरी कवायद में जिन गरीबों के जान माल की क्षति हुई उनके लिए कोई स्थायी राहत की व्यवस्था तो फिलहाल हाल नहीं दिखती है। इस तरह पिछले पचास सालों से यह सिलसिला जारी है। बात बड़ी अजीब है कि नदियां तो सदियों से मौजूद हैं, बाढ़ भी सदियों से आती रही हैं तो फिर यह सिलसिला पचास साल से ही क्यों?

हां बात बिल्कुल सही है कि बिहार में पचास के दशक के पहले आने वाली बाढ़ों का स्वरूप ऐसा नहीं होता था। जब पहले बाढ़ आती थी तो स्थानीय लोग पहले से ही अपने घर बार छोड़कर सुरक्षित जगहों पर शरण ले लेते थे और पानी उतरते ही अपने स्थानों में वापस लौट जाते थे। वैसे भी पहले बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में लोग स्थाई निर्माण बहुत ही कम करते थे। लेकिन आजादी के बाद पूरे देश के लिए बाढ़ का स्थायी हल खोजने की कवायद शुरू हुई। भारत सरकार ने सन 1954 में पहली बाढ़ नियंत्रण नीति बनाई और उस समय देश भर में तमाम नदियों के किनारे कुल 33928.64 किमी लंबे तटबंध बनाने की योजना बनी। इसके पीछे लक्ष्य था देश भर के 2458 शहरों व कस्बों एवं 4716 गांवों को बाढ़ की तबाही से मुक्त करना। लेकिन हुआ क्या? सन 1954 में जहां पूरे देश में बाढ़ प्रवण इलाका 74.90 लाख हेक्टेअर था वहीं सन 2004 में बढ़कर करीब 22 गुना हो गया। जबकि नौंवी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति तक (2002 तक) भारत सरकार इस कार्य के लिए 8113.11 करोड़ खर्च कर चुकी थी। बिहार में सन 1952 में राज्य में नदियों के किनारे बने तटबंधों की लंबाई 160 किमी थी तब उस समय बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेअर था। जबकि पचास साल बाद सन 2002 के आंकड़ों के अनुसार नदियों के किनारे बने तटबंधों की लम्बाई 3,430 किमी हो चुकी है लेकिन फिर भी बाढ़ प्रवण क्षेत्र बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेअर हो गई है। तो क्या बाढ़ के लिए इंजिनियरिंग हल जायज माना जाय?

बिहार स्थित ‘बाढ़ मुक्ति अभियान’ के संयोजक डा. दिनेश कुमार मिश्र को बिहार के बाढ़ के मामले में सबसे बड़े विशेषज्ञों में गिना जाता है। उनका मानना है कि वास्तव में देखा जाय तो बाढ़ की ये व्यापकता इंजिनियरिंग हल के ही परिणाम हैं। अब सन 2008 का ही वाकया लेते हैं जब कोसी नदी का तटबंध टूटा था तो करीब 40 लाख लोग प्रभावित हुए थे। कोसी का तटबंध नेपाल में कुशहा के पास बीरपुर बराज से 12.9 किमी ऊपर टूटा था। कोसी का तटबंध अब तक कुल आठ बार टूटा है। मजेदार बात यह है कि उत्तरी बिहार में आने वाले बाढ़ के लिए नेपाल को जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्या सच में ऐसा है? यह स्वाभाविक बात है कि उत्तरी बिहार में आने वाली नदियां जैसे गंडक, बुढ़ी गंडक, बागमती, आधवारा, धाउस, कमला, बलान, कोसी आदि सभी नेपाल से होकर ही आती हैं। जबकि नेपाल के पास ऐसा कोई भी ढांचा नहीं है जिससे कि नदियों को नियंत्रित किया जा सके। तो फिर नेपाल जिम्मेदार कैसे हुआ? जहां तक तटबंध टूटने की बात है वह नेपाल के इलाके में है लेकिन उस पर नियंत्रण तो भारत का ही है। नेपाल के 34 गांव कोसी बराज के नीचे हैं, लेकिन इसमें नेपाल का नियंत्रण कहीं नहीं है। बराज की पूरी प्रवाह क्षमता 9.5 लाख क्यूसेक है। 18 अगस्त 2008 को जब तटबंध में दरार पड़ी, उस समय पानी का प्रवाह 1.44 लाख क्यूसेक था, जबकि तटबंध और बराज की डिजाइन 9.5 लाख क्यूसेक क्षमता के अनुरूप बना है। इतने कम प्रवाह पर तटबंध का टूटना यह साबित करता है कि कोसी नदी की पेटी में गाद जमाव काफी ज्यादा है और तटबंध का रखरखाव बहुत बुरी अवस्था में है। तटबंध के दरार वाले हिस्से से बाहर जाने वाला पानी कोसी नदी में फिर से प्रवेश नहीं कर सका क्योंकि नदी पर दरार वाली जगह से 125 किमी आगे तक तटबंध बना हुआ है। इससे यह बात साबित होती है कि तटबंधों की वजह से नदी के स्वाभाविक जलग्रहण की प्रक्रिया बाधित होती है। बारिश का पानी भी तटबंध के बाहर जमा हो जाता है। इससे छोटी नदियों का संगम भी बाधित हो जाता है। स्लुइस गेट बनाकर इसके हल की कोशिश की गई, लेकिन वह भी सफल नहीं हो सका। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि मुख्य नदी में ज्यादा प्रवाह हो और सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में ज्यादा बारिश हो तो भी उसका पानी नदी में नहीं जा पाएगा। और फिर धीरे-धीरे नदी के पेटी में गाद भर जाता है और नदी का तल ऊपर उठ जाता है और तटबंध काम करना बंद कर देते हैं। इसके अलावा तटबंध की भी एक निर्धारित उम्र होती है। तटबंध बनने के बाद यदि उनके असर का मूल्यांकन करें तो सही स्थिति स्पष्ट हो जाती है।

कई बार कहा जाता है कि स्थानीय लोग ही तटबंध काट देते हैं। लेकिन यदि वे ऐसा करते हैं तो सच में वे अपनी जान माल बचाने के लिए करते हैं। अब तक न ऐसा कोई तटबंध बना है और न भविष्य में बनेगा जिसमें कटाव न आए। देश में विभिन्न नदी घाटी में बने तटबंधों को लोग समय-समय पर काटते रहते हैं। लेकिन ज्यादातर मौकों में छोटे तटबंध जलजमाव से निजात पाने के लिए ही तोड़े जाते हैं। इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थिति की मांग है कि गाद और पानी को प्राकृतिक रूप से फैलने देना चाहिए और स्थानीय स्तर पर उसका मुकाबला करना चाहिए। जिससे जमीन की ऊर्वरा शक्ति बढ़ेगी और भूजल का स्तर भी कायम रहेगा। साथ ही विभिन्न ढांचागत निर्माण के दौरान नदियों की प्राकृतिक ड्रेनेज को कायम रखना चाहिए। तब तो तटबंधों की कोई जरूरत नहीं दिखती। लेकिन सरकार तटबंधों को क्यों हटाना चाहेगी? यदि सरकार तटबंध तोड़ना चाहेगी तो टेंडर के माध्यम से करना होगा और उसके लिए काफी पैसा चाहिए। लेकिन इसके लिए सैद्धान्तिक मंजूरी भी जरूरी है। लेकिन जो भी हो इसमें ठेकेदारों को ही लाभ होगा, वह भी शायद एक बार ही! लेकिन यदि तटबंध कायम रहता है तो उसके मरम्मत और रखरखाव में तो हर साल लाखों करोड़ों का वारा न्यारा होता है। लेकिन इसी इंजिनियरिंग हल ने बिहार के जीवनदाई बाढ़ को आपदा का स्वरूप दे दिया है। इस तरह खबर तलाशने वालों को हर साल एक मसाला मिल जाता है।


बाघ जीता और मनुष्य हारा!

बाघ जीता और मनुष्य हारा!

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

आपसे एक सवाल पूछा जाय कि यदि एक मनुष्य और एक बाघ दोनों पानी में डूब रहे हैं तो आप किसे बचाना चाहेंगे। शायद स्वाभाविक रूप से आप कहेंगे कि मनुष्य को बचाना चाहेंगे। लेकिन सवाल है कि बाघ हमारे देश के जंगलों से विलुप्त हो रहे हैं तो शायद आप बाघ के प्रति सहानुभूति रखेंगे। चलिए इस सवाल को जरा विस्तार से देखते हैं। यदि आपसे कहा जाय कि किसी परियोजना से करीब 1 लाख लोग विस्थापित होंगे और यही कोई 2 या 3 बाघ विस्थापित होंगे तो आपकी सहानुभूति किसके प्रति होगी। शायद विस्थापन की आर्थिक और समाजिक लागत के आधार पर देखें तो स्वाभाविक तौर पर आप मनुष्यों के पक्ष में सोचेंगे। हां, यह भी ध्यान रखें कि जब किसी परियोजना से लोग विस्थापित होते हैं तो उनके साथ उनके पालतू पशु भी काफी संख्या में विस्थापित होते हैं। लेकिन हमारे देश के मंत्रीगण आपसे कुछ अलग राय रखते हैं, जहां मनुष्यों के मुकाबले बाघ को ज्यादा तरजीह दी जा रही है।

जी हां, भारत की बहुचर्चित नदीजोड़ परियोजना के अंतर्गत प्रस्तावित केन बेतवा परियोजना के मामले में मनुष्यों के मुकाबले बाघ को ज्यादा तरजीह मिली है। ऐसा हमारे देश के केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री श्री जयराम रमेश कह रहे हैं। अभी हाल ही में उन्होंने कहा है कि, ‘‘मुझे यह जानकर धक्का लगा कि अभी तक जिस एकमात्र नदीजोड़ परियोजना ‘केन-बेतवा’ पर काम आगे बढ़ा है, उसमें पन्न्ना बाघ अभयारण्य भी शामिल है।’’ इस नदीजोड़ परियोजना से पन्ना बाघ अभयारण्य का कम से कम 140 हेक्टेयर क्षेत्र पानी में डूब जाने की आशंका है। वन्यजीव विशेषज्ञ पी. के. सेन का कहना है कि, ‘‘पन्ना वन्यजीव अभयारण्य की भूमि के कुछ हिस्सों को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव पर्यावरण मंत्रालय के समाने रखा जाना है, लेकिन वन्यजीवों के आवास के खतरे को देखते हुए इस पर किसी कीमत पर सहमति नहीं दी जानी चाहिए।’’ मध्य प्रदेश का पन्ना राष्ट्रीय अभयारण्य 974 वर्ग किमी. में फैला हुआ है और भारत का जाना माना अभयारण्य है। अब यह समाचार अधिकारिक है कि पन्ना राष्ट्रीय अभयारण्य में बाघ नहीं बचे हैं, जहां करीब 6 साल पहले 40 से ज्यादा बाघ थे। पन्ना में बाघ न होने की पुष्टि मध्य प्रदेश के वन मंत्री श्री राजेन्द्र शुक्ल ने कुछ माह पहले अधिकारिक रिपोर्ट में की थी। इससे पहले प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व प्रमुख पी. के. सेन के नेतृत्व में विशेष जांच दल ने पन्ना राष्ट्रीय उद्यान जाकर मामले की जांच की और दावा किया है कि पन्ना में एक भी बाघ नहीं बचे हैं। दल ने जून 2009 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। अब वन विभाग ने पन्ना अभयारण्य में मादा बाघ लाकर फिर से बाघ युक्त करने की कवायद शुरू की है। अभयारण्य में अब मात्र दो बाघिने हैं जो कि कान्हा राष्ट्रीय उद्यान एवं बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान से लाई गई हैं। अब इस अभयारण्य के अस्तित्व पर नदीजोड़ परियोजना का खतरा मंडरा रहा है।

मध्य प्रदेश में केन-बेतवा नदीजोड़ परियोजना के कारण लगभग 8,650 हेक्टेयर भूमि डूबने की आशंका है, जिसमें लगभग 6,400 हेक्टेयर वन भूमि और शेष 2,171 हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। इसमें कुछ भूमि पन्ना अभयारण्य की है। गौरतलब है कि ये डूब तो सिर्फ परियोजना के लिए प्रस्तावित मुख्य बांध से संभावित है। जबकि पूरी परियोजना के तहत 231 किमी लम्बी सम्पर्क नहर के अलावा 6 अन्य बड़े बांध भी बनाए जाने हैं। ये 6 बांध इसलिए प्रस्तावित हैं क्योंकि केन-बेतवा नदीजोड़ परियोजना से जो मौजूदा सिंचित क्षेत्र प्रभावित होंगे उनकी भरपायी की जा सके। लेकिन मजेदार बात यह है कि राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण (एनडब्ल्यूडीए) द्वारा प्रकाशित संभाव्यता रिपोर्ट में इन सहायक बांधो के बारे में विस्तार से जिक्र नहीं है, इसलिए इनसे प्रभावित होने वाले क्षेत्रों का भी ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। हालांकि इन सबकी विस्तृत जानकारी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) में होनी चाहिए। सूत्रों के अनुसार 15 करोड़ रुपये की व्यय वाली डीपीआर एनडब्ल्यूडीए द्वारा तैयार करके 31 दिसम्बर 2008 को केन्द्र सरकार को सौंप दी गई है। चूंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पर अपनी सहमति नहीं दी है इसलिए इसे संबंधित विभागों के सामने नहीं पेश किया गया है।

अगस्त 2005 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव एवं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल गौर ने प्रधामंत्री डा. मनमोहन सिंह को डीपीआर बनाने के लिए सहमति पत्र सौंपा था। उस समय चैतरफा हल्ला ऐसे मचा कि दोनों राज्यों के बीच परियोजना बनाने के लिए सहमति हो गई। माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश को प्रस्तावित परियोजना में कई आपत्तियां हैं। इसके अलावा यह भी स्पष्ट है कि परियोजना से मध्य प्रदेश के क्षेत्रों को ज्यादा फायदा होगा जबकि उत्तर प्रदेश का ज्यादा इलाका प्रभावित होगा। परियोजना के क्रियान्वयन के लिए केन्द्र सरकार ने एक बोर्ड के गठन का सुझाव दिया है, जिसमें केन्द्र के सदस्यों सहित मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश सरकार के सदस्य शामिल रहेंगे।

नदीजोड़ योजना के कार्यदल के स्रोत के अनुसार परियोजना के लिए मध्य प्रदेश में छतरपुर एवं पन्ना जिले की सीमा पर केन नदी पर डौढन में 73.2 मीटर ऊंचा मुुख्य बांध प्रस्तावित है। इस डौढन जलाशय से 10,200 लाख घनमी. पानी नहर में मोड़ा जाना है। सम्पर्क नहर की कुल लम्बाई 231 किमी होगी, जिसमें 2 किमी सुरंग शामिल है। सम्पर्क नहर के मार्ग में पड़ने वाले 6.45 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई के लिए 31,960 लाख घनमी. पानी इस्तेमाल होगा। इसमें 1.55 लाख हेक्टेयर उत्तर प्रदेश में एवं 4.90 लाख हेक्टेयर मध्य प्रदेश में सिंचित होना प्रस्तावित है। इस नहर से 120 लाख घनमी. पानी घरेलू एवं औद्योगिक उपयोग के लिए दिया जाएगा। नहर के मार्ग में रिसाव से 370 लाख घनमी. पानी का क्षति होगा।

इस परियोजना के सम्बंध में एक और विवादास्पद बात यह है कि इसकी संभाव्यता ही स्थापित नहीं हो सकी है। इस तरह जब किसी परियोजना की संभाव्यता स्थापित न हो तो उसके आधार पर बनने वाले डीपीआर की क्या प्रासंगिकता रहेगी? देश भर में कई प्रमुख विशेषज्ञों के अलावा दिल्ली स्थित संस्था सैण्ड्रप ने एक अध्ययन में परियोजना के संभाव्यता रिपोर्ट (फिजिबिलिटी रिपोर्ट) पर गंभीर सवाल उठाए हैं। सैण्ड्रप के समन्वयक हिमांशु ठक्कर का मानना है कि केन-बेतवा परियोजना के लिए किया गया जल संतुलन आकलन ही गलत है, इसके अलावा प्रस्तावित सिंचाई लाभ का वितरण भी असमानतापूर्ण है। जबकि पन्ना बाघ अभयारण्य का जो मामला केन्द्रीय मंत्री अब उठा रहे हैं उसके बारे में 5 साल पहले ही अध्ययन के माध्यम से अगाह किया गया था।

आखिर जो भी हो लेकिन अब सच खुलकर सामने आ रहा है। यह बात समझ से परे है कि जिस परियोजना में स्थानीय स्तर पर काफी विरोध एवं उत्तर प्रदेश सरकार की आपत्ति है उस पर आगे बढ़ते रहने का क्या औचित्य है? एक अनुमान के अनुसार बांध के डूब क्षेत्र में करीब 65,000 से ज्यादा लोग प्रभावित होंगे, जबकि अन्य सहायक बांधों एवं सम्पर्क नहर से प्रभावित होने वाले लोगों को जोड़ा जाय तो विस्थापितों संख्या काफी ज्यादा होगी। अब हमारे पर्यावरण मंत्री के संवेदनशीलता के बारे में क्या कहा जा सकता है कि उन्हें कुछ वन्यजीवों एवं उनके 140 हेक्टेयर क्षेत्र के डूब का संकट तो दिखता है लेकिन हजारो प्रभावित होने वाले लोगों एवं करीब 10,000 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन डूब का दर्द नहीं दिखता। शायद इसमें उनकी कोई गलती नहीं है, क्योंकि वे तो अपने विभाग से संबंधित बातों की ही चिंता करेंगे! तो फिर उन हजारों लोगों की चिंता कौन करेगा जो कि एक विवादास्पद परियोजना से विस्थापित होने वाले हैं?

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 21 दिसम्बर 2009)


छात्र राजनीति की प्रासंगिकता


छात्र राजनीति की प्रासंगिकता
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

देश की राजधानी में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय में हर साल की ही तरह इस साल भी छात्र संघ के चुनाव हुए। इस बार विश्वविद्यालय चुनाव में काफी उथल पुथल देखने को मिला। हमेशा से विश्वविद्यालय के छात्र संघ पर कब्जा जमाने वाले मुख्य धारा के दो छात्र संगठनों के प्रमुख प्रत्याशियों का नामांकन ही खारिज कर दिया गया। ऐसे में भारत में छात्र राजनीति पर एक नजर डालने की कोशिश करते हैं।
क्या दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ कोे छात्र राजनीति का स्वस्थ चेहरा कहा जा सकता है? कहने के लिए तो भारत के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में सबसे ज्यादा छात्र इस विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं। लेकिन विश्वविद्यालय के हरेक छात्र को मताधिकार हासिल नहीं है क्योंकि विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कई काॅलेजों ने खुद को इस प्रक्रिया से अलग किया हुआ है। ऐसा इसलिए कि उन काॅलेजों का प्रबंधन छात्र राजनीति को नकारात्मक मानता है। विश्वविद्यालय से सम्बद्ध महाविद्यालयों में नामाकित छात्रो में से सिर्फ 24 प्रतिशत ही मतदान कर सकते है। इस तरह यहां के प्रतिनिधियों को पूरे विश्वविद्यालय का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। इसके अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र संघ चुनाव किसी शिक्षण संस्थान के प्रतिनिधियों का चुनाव के बजाय किसी बड़ी राजनीति के लिए शक्ति प्रदर्शन का एक माध्यम दिखता है। तभी तो सन 2008 में हुए चुनाव में लिंगदोह कमेटी के सिफारिशों को मानने के बावजूद उसकी धज्जियां उड़ाते हुए धन-बल का खुला प्रदर्शन किया गया। आखिर ऐसा क्यों न हो जब इन चुनावों को क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय राजनीति के लिए एक सीढ़ी के रूप में देखा जाता है। इस तरह राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर के राजनैतिक दलों को ऐसे पिछलग्गू कार्यकर्ता मिल जाते हैं जो कि भविष्य में सक्रिय राजनीति की आस लगाए रहते हैं। उन पिछलग्गूओं में से कुछ का कल्याण भी हो जाता है यदि वे किसी नेता के वारिस होते हैं। लेकिन इस बार चुनाव अधिकारी का डंडा चला और एनएसयूआई और एबीवीपी के तीन-तीन प्रत्याशियों का नामांकन खारिज कर दिया गया। इस तरह छात्र राजनीति में धन बल के इस्तेमाल को रोकने की एक कोशिश तो हुई ही। लेकिन कुल मिलाकर देखा जाय तो पिछले 10 सालों में एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब यहां के छात्र नेताओं ने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ज्वलंत मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी हो या आंदोलन की आगुवाई की हो।

भारत के सबसे बड़े आवासीय केन्द्रीय विश्वविद्यालय ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ (बीएचयू) में पिछले पिछले तेरह सालों से छात्र संघ स्थगित है। वहां का प्रशासन छात्र संघ को विश्वविद्यालय के हित में नहीं मानता। इन सालों में बीएचयू में जिस किसी ने भी छात्र संघ की आवाज उठाई उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब तो हाल के सालों में विश्वविद्यालय में ऐसी पीढ़ी आ चुकी है जिन्हें छात्र राजनीति से कोई मतलब ही नहीं है। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन का मनमानापन जारी है। लेकिन यदि बीएचयू के छात्र संघ का इतिहास बताता है कि विश्वविद्यालय ने कई ऐसे नेताओं को पैदा किया है जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर विश्वविद्यालय का मान बढ़ाया है।

अब दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को ही लें, वहां पर लिंगदोह कमेटी के सिफारिशों को न मानने के कारण सन 2008 में छात्र संघ चुनाव स्थगित हो चुका है। मोटे तौर पर जेएनयू छात्र संघ में धन बल का बोलबाला नहीं दिखता है। इतना ही नहीं वहां के छात्र संघ को आदर्श माना जाता रहा है। जेएनएयू का छात्र समुदाय हमेशा राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखता रहा है। इसी वजह से वहां पर सभी सामयिक व ज्वलंत मुद्दों पर स्वस्थ चर्चा होती रहती है। इसके बावजूद भी प्रशासन को छात्र संघ हमेशा खटकता रहा है। अभी दो साल पहले ही जेएनयू में छात्रों ने वहाँ पर काम करने वाले निर्माण मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी तथा अन्य सुविधाएं दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया। तब विश्वविद्यालय प्रशासन ने कहा कि यह छात्रों का काम नहीं है और उन्हें इससे दूर रहना चाहिए। लेकिन छात्रों ने अपना आंदोलन जारी रखा तो प्रशासन 8 छात्रों का निष्कासन कर दिया।
इसके अलावा भारत के आईआईटी सहित ज्यादातर तकनीकी शिक्षण संस्थाओं में छात्र संघ मौजूद ही नहीं है। अब तो पिछले कुछ सालों से निजी शिक्षण संस्थान एवं विश्वविद्यालय काफी तेजी से खुले हैं, वहां भी छात्र संघ का कोई नामलेवा नहीं है। जिस प्रकार पिछले सालो में उत्तर प्रदेश सहित भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों और कालेजों में छात्र संघ चुनावों पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है यदि उसी सोच पर चला जाए तब हमें अपने सारे लोकतांत्रिक अधिकारों को छोड़ना पड़ेगा जिसे हमने लम्बे संघर्ष के बाद हासिल किया है। छात्र संघ न गठित करने के पीछे छात्रों में अपराधीकरण का बहाना बनाया जाता है। हालांकि छात्र राजनीति का अपराधीकरण कोई नई घटना नहीं है। जब पूरी भारतीय राजनीति में धन-बल का बोलबाला हो तब छात्र राजनीति अपराधीकरण से कैसे अछूती रह सकती है। तब क्या पूरे भारत में चुनावी प्रक्रिया को बंद कर दिया जाए।

क्या जिन काॅलेजों या विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनाव नहीं होते हैं वहां पर हर साल आने वाले नये छात्रों से इस बारे में राय ली जाती है? शायद नहीं! उन शिक्षण संस्थानों में छात्रों के मन में छात्र संघ के प्रति नकारात्मक भावना भरी जाती है। एक तरफ तो विश्वविद्यालयों को देश के भावी नागरिकों के निर्माण की पाठशाला कहा जाएगा वहीं दूसरी ओर आप यह भी सिखाएंगे कि केवल अपने बारे मंें सोचो, अपने आस-पास की हकीकत से आँखें मूंदे रहो। जो अपने आस-पास हो रहे शोषण और अन्याय से कोई सरोकार नहीं रखते वे अपनी भाषा में ‘‘समझदार’’ तो हो सकते हैं लेकिन एक बेहतर नागरिक कभी नहीं हो सकते।

आजकल गैर-राजनीतिक होना बहुत अच्छी बात मानी जाती है लेकिन हम अपने जीवन में क्या पढ़ेंगे, क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, किस प्रकार का रोजगार पाएंगे आदि बातें राजनीति से तय होती हैं। मसलन काॅलेजों में लड़कियों के पहनावे पर फरमान जारी किए जाएंगे, युवाओं द्वारा प्यार करने तथा दूसरे धर्म या जाति में जीवन साथी चुनने पर धार्मिक उन्माद फैलाया जाएगा, जाति पंचायत बुलाकर सजा सुनाई जाएगी। यह उन लोगों और संगठनों की राजनीति है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को नियंत्रित करना चाहते हैं, धार्मिक जकड़न तथा ऊंच-नीच पर टिकी जाति व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं। इस प्रकार वे प्रत्येक युवा को भारतीय संविधान में मिली निजी स्वतंत्रता व सम्मान के अधिकार पर हमला करते हैं। लेकिन इसके बावजूद क्या छात्र गैर-राजनीतिक बने रहेंगें?

बीते दो दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में भी निजीकरण व व्यवसायीकरण का बोलबाला हो गया है। यदि आपके पास पैसा है तो हर प्रकार की डिग्रियां मिल सकती हैं, यदि पैसे नहीं हैं तो बैंक से कर्ज की व्यवस्था है। यानी कि शिक्षा के इन दुकानदारों का मुनाफा जारी रहेगा। अब तो शिक्षा को घोषित रूप से मुनाफे का धंधा मान लिया गया है। उद्योगपतियों की ओर से सरकार को सौंपी गई बिरला-अम्बानी रिपोर्ट इसका नायाब उदाहरण है। सरकार इनको मुफ्त जमीन उपलब्ध कराती है, सुविधाएं देती है और ये लोगों की जेबों से लाखों की उगाही करते हैं। क्या शिक्षा अमीरों के लिए पैसे कमाने का व्यवसाय बनी रहेगी या यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वो सबको निःशुल्क एक समान एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराए। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान सरकार ने चुप्पे से देश के निजी विश्वविद्यालयों को अपने नाम के साथ ‘डीम्ड’ शब्द लगाने की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी है। इस तरह हाल ही में केन्द्र सरकार द्वारा घोषित ‘सबको शिक्षा का अधिकार’ सिर्फ दिखावा नजर आता है। अगर छात्र ये सब सवाल खड़े करने लगंे तो यह राजनीति हो जाएगी। यदि सही प्रश्न खड़ा करना राजनीति है तो यह राजनीति की जानी चाहिए।

छात्रों ने हमेशा समाज परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भमिका निभायी है। चाहे वो आजादी का आंदोलन हो या आजादी के बाद 70 के दशक में में नक्सलबाड़ी और जेपी आंदोलन हो। आजकल कभी-कभार छात्रों की किसी स्थानीय मांग के लिए छोटी-मोटी आवाज उठती है लेकिन कोई संगठित प्रतिरोध नहीं दिखता है। छात्र राजनीति के नाम पर एबीवीपी, एनएसयूआई सहित कुछ राष्ट्रीय राजनति से जुड़े दलों के छात्र संगठन जैसे व्यवस्था पोषक छात्र संगठन ही दिखायी पड़ते हैं। इन संगठनों ने ही छात्र राजनीति को पैसे और गुण्डों का पर्याय बना दिया है। बल्कि जब छात्र अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होंगे और सक्रिय हस्तक्षेप करेंगे तब छात्र राजनीति पैसे और गुण्डों का नहीं सामाजिक परिवर्तन का पर्याय बनेगी। इसके लिए जरूरी है कि देश के हरेक उच्च शिक्षण संस्थान में राजनैतिक बहस जारी रहे और स्वस्थ छात्र संघ कायम रहे।




भारत में बढ़ते पर्यटन से उभरते सवाल

भारत में बढ़ते पर्यटन से उभरते सवाल

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

अभी हाल ही में एक खबर पढ़ने को मिली कि ‘‘भारत में पर्यटन का भविष्य उज्जवल’’ है। खबर का लबो लुआब यह है कि पिछले सालों के मुकाबले इस साल पर्यटन द्वारा विदेशी मुद्रा आय में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है और यह प्रवृत्ति आगे भी जारी रहने की संभावना है। दुनिया भर में जहां में मंदी का साया है वहीं पर्यटन की संभावना काफी उम्मीद जगाने वाली है। लेकिन कुछ ही दिनों पहले केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक अश्विनी कुमार ने राजधानी दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान जानकारी दी थी कि भारत में यौन पर्यटन एवं मानव तस्करी की प्रवृत्ति हाल के दिनों में काफी बढ़ी है। क्या दोनों खबरों में कोई आपसी रिश्ता है? ऐसे सवालों का जवाब खोजना बहुत जरूरी हैं।

चलिए सीबीआई के खुलासे को ही आगे बढ़ाते हैं। यह तो सभी जानते हैं कि सीबीआई भाारत सरकार की एक अधिकारिक जांच एजेंसी है और इनके आंकड़े भी अधिकारिक माने जाते हैं। सीबीआई के अनुसार नशीले पदार्थों और हथियारों की तस्करी के बाद अपराधों की दुनिया में तीसरा स्थान मानव तस्करी का है। एशिया और विशेषकर भारत इस घिनौने अपराध के अड्डे के रूप में उभर रहा है। एक अनुमान के अनुसार सिर्फ नेपाल एवं बांग्लादेश से ही हरेक साल करीब 25,000 महिलाओं व बच्चों की तस्करी की जाती है। बच्चों को तस्करी के माध्यम से ले जाकर उन्हें भीषण यातनाएं देना, उन पर अत्याचार और बलात्कार जैसे अपराध किए जाते हैं। इसके अलावा गृह मंत्रालय के अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार सन 2007 में मानव तस्करी के सबसे ज्यादा 1,199 मामले तमिलनाडु में दर्ज हुए थे, जबकि पूरे देश में 3,568 केस दर्ज किए गए थे। सीबीआई का कहना है कि दुनिया भर में हर साल करीब 60 से 80 लाख लोगों की तस्करी होती है और इस कारोबार में करीब 5 से 9 अरब डाॅलर के वारे न्यारे होते हैं। पीड़ीतों में लगभग 80 प्रतिशत महिलाएं एवं बच्चियां होती हैं, जिनमें से 50 प्रतिशत अवयस्क होते हैं।

हालांकि इस बात के स्पष्ट आंकड़े मौजूद नहीं है कि इन मानव तस्करियों में से कितने प्रतिशत का पर्यटकों के मौज मस्ती लिए इस्तेमाल होता है। चूंकि भारत में यह कार्य गैरकानूनी है इसलिए इसके सही आंकड़े कभी भी हासिल नहीं हो सकते हैं लेकिन इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि पर्यटन स्थलों के आस पास यौन पेशा काफी फल फूल रहा है। दुनिया भर में पर्यटन के कई स्वरूप मौजूद हैं जिनमें एतिहासिक, धार्मिक, शैक्षणिक, एडवेंचर, इको पर्यटन आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा हाल के सालों में उन्नत चिकित्सा सुविधा वाले देशो में मेडिकल पर्यटन का भी प्रचलन बढ़ा है। स्वाभाविक तौर पर भारत में उपरोक्त सभी किस्म के पर्यटन मौजूद हैं लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सरकार किस किस्म के पर्यटन को बढ़ावा देना चाहती है? पर्यटन मुद्दे पर कार्यरत बंगलौर स्थित संस्था ‘‘इक्वेशंस’’ के मुताबिक सरकार की मौजूदा नीति इको पर्यटन को बढ़ावा देने की है और इसके लिए सबसे चहेता स्थल है भारत का ‘‘पूर्वोत्तर क्षेत्र’’। इस क्षेत्र को ‘‘अनछुआ स्वर्ग’’ कहकर प्रचारित किया जा रहा है। इसके लिए भारत के पूर्वोत्तर राज्यों सहित दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के प्रमुख पर्यटन क्षेत्रों को एक पैकेज के तौर पर विकसित करने और मुख्य रूप से इकोटूरिज्म और बौद्ध सर्किट विकसित करने की योजना है। इसके लिए एशियाई विकास बैंक कर्ज देने के लिए सैद्धांतिक रूप से सहमत भी है। लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि यह सब जहां किया जाना वहां के लोगों से कुछ राय ली जाय। शायद हमारी सरकार ऐसा जरूरी नहीं समझती।

जो लोग भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र की स्थिति से वाकिफ हैं वे इसकी तुलना थाइलैंड में 70 और 80 के दशक में विकसित हुए पर्यटन से कर सकते हैं। यह जगजाहिर है कि पर्यटन के नाम पर वहां सेक्स पर्यटन काफी फला फूला। उससे थाई समाज पर काफी नकारात्मक असर भी पड़ा। यहां तक कि थाइलैंड में बदनाम मनोरंजन स्थलों का समाप्त करने के थाइलैंड सरकार के प्रयासों पर सवाल उठाते हुए, ‘टाइम पत्रिका’ ने अपने एक लेख में अनुमान लगाया है कि बैंकाॅक बहुत जल्द ही सेक्स पर्यटकों का स्वर्ग बन जाएगा। इसके जवाब में प्रधानमंत्री थैकसिन हैर्सली ने टाइम पत्रिका की आलोचना करते हुए लोगों से आग्रह किया कि जो लेख थाइलैंड के लिए ‘‘रचनात्मक’’ नहीं हैं उस पत्रिका को न पढ़ें। लेकिन क्या इससे सच छुप सकता है? क्या पूर्वोत्तर क्षेत्र में ऐसी आशंका नहीं है? ऐसी आशंका सिर्फ हमारी नहीं है बल्कि पूर्वोत्तर के लोगों की भी है। सितंबर 2007 में दिल्ली में विश्व बैंक पर इंडिपेंडेंट पीपुल्स ट्राइब्यूनल आयोजित हुई थी उस समय नागालैंड निवासी एवं नेशनल कांउंसिल आफ चर्चेज आॅफ इंडिया के कार्यकारी सचिव रेव. अवला लौंगकुमेर ने थाइलैंड से लौटकर अपने अनुभवों के आधार पर क्षेत्र के बारे में आशंका व्यक्त की। उनका कहना था कि, ‘‘मैं सिर्फ उम्मीद कर सकता हूं कि पूर्वोत्तर के लोगों को वैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ेगा जैसा उत्तरी थाइलैंड के लोग कर रहे हैं। पर्यटन से उत्तरी थाइलैंड के लोगों को जो अपार क्षति हुई है उसे बताना सिहरन पैदा करने वाला है। सब कुछ और हर कोई एक वस्तु में तब्दील हो गया है। एक बालिका या एक महिला का मूल्य शून्य है। संस्कृति खरीददारी के लिए एक वस्तु रह गयी है जिसका मूल्य भी खरीददार ही निर्धारित करता है। एकदम असमान माहौल में पर्यटक हमेशा विजयी रहता है। मेजबान की स्थिति कमजोर हो जाती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किस प्रकार नव उदारवादी अर्थव्यवस्थाओं ने थाइलैंड को प्रभावित किया और एक मजबूत अर्थव्यवस्था तैयार की लेकिन आम लोगों को सिसकने के लिए छोड़ दिया। वह विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष था जिन्होंने उनका विनाश कर दिया।’’

क्या हमारी सरकार ऐसी स्थिति के लिए सजग है? कम से कम सरकार को इतना तो करना चाहिए कि हरेक क्षेत्र की सामाजिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक स्थिति का अकलन किए बगैर इको टूरिज्म को मनमाने ढंग से बढ़ावा न दिया जाय। हाल ही में विश्व बैंक और एडीबी ने फिर से पर्यटन में दिलचस्पी लेनी शुरू की है और उनकी योजना फिर से ठीक उन्हीं बातों में वित्तपोषण शुरू करने की है जो हमारे लोगों, संस्कृति, हमारी पारिस्थितिकी, युवा और महिलाओं के लिए काफी घातक साबित हो सकते हैं। सवाल है कि क्या हमें पर्यटन की कोई आवश्यकता है? हां, यदि स्थानीय लोगों की सहमति हो तभी। किसी भी प्रकार की पर्यटन गतिविधि वाशिंगटन या नयी दिल्ली केंद्रित व्यवस्था की नीतियों और रणनीति पर आधारित नहीं हो सकती। उन्हें साफ तरह से एवं बिना किसी समझौता के लोकतांत्रिक तरीके से तैयार एवं कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।

पर्यटन को ‘‘आनंद एवं छुट्टी‘‘ के रूप में प्रमुखता से परिभाषित किया जाता है तो हमारे मन में एक भय पैदा होता है कि पर्यटन के साथ यौन पर्यटन, बाल दुव्र्यवहार, बाल यौनशोषण तथा बुराइयां भी साथ आएंगी। हमारे पहाड़ी क्षेत्र महत्वपूर्ण हैं और वे हमारी जैव विविधता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन इलाकों को अनिवार्य रूप से संरक्षित क्षेत्र रहने देना चाहिए तथा इन्हें अनियंत्रित पर्यटन के लिए नहीं खोला जाना चाहिए। मैं चेतावनी की घंटी बजाने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। यह कहना भ्रम है कि पर्यटन से स्थानीय समुदाय को फायदा होता है। वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। पर्यटन समीकरण में असली लूटने वालो में पर्यटकों के अलावा भेजने वाले देश, बहुराष्ट्रीय कंपनियां एवं बड़े व्यवसायी होते हैं जो धनी देशों से पर्यटक भेजते हैं।





जलवायु सुधार या कुछ और?


जलवायु सुधार या कुछ और?

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

9 जुलाई को इटली के ला‘अकीला शहर में चल रहे जी-8 देशों के सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन एक व्यापक समझौते को मंजूरी दी गई। समझौते के तहत विकासशील देशों पर कार्बन उत्सर्जन 2050 तक आधा करने को लेकर किसी तरह की पाबंदी शामिल नहीं है। सम्मेलन में उपस्थित जी-5 के अन्य सदस्य देशों के लिए इसे एक उपलब्धि बताई जा रही है। लेकिन क्या वाकई यह खुश होने वाली बात है? आइए इस पर गौर करते हैं।

वास्तव में देखा जाय तो इटली में चल रहे सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा है लेकिन केन्द्रीय मुद्दा तो नहीं है। तो फिर यह महत्वपूर्ण समझौता क्यों हुआ? इसके पीछे की खास बात यह है कि सम्मेलन की शुरूआत में ही जी-5 देशों के सदस्यों ने मांग की थी कि विकसित देशों को 2020 तक अपना उत्सर्जन लक्ष्य 40 प्रतिशत तक घटाना होगा। साथ ही वर्ष 2025 तक इसे 80 से 85 प्रतिशत तक घटाने की प्रतिबद्धता दिखानी होगी। यह कोई नई मांग नहीं थी बल्कि यह तो ‘‘यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लाइमेट चेंज कांफ्रेंस’’ एवं उसके क्योटो प्रोटोकाल के तहत यह विकसित देशों की जिम्मेदारी है। इसके तहत विकसित देशों को 1990 के उत्सर्जन स्तर को 2020 तक कायम करना होगा। लेकिन विकसित औद्योगिक लाभ हासिल करने की हेकड़ी में इसे मानने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन अब वैश्विक मंदी के दौर में विकासशील देशों की मांग को इनकार कर पाना उतना आसान नहीं रहा। वास्तव में जी-5 देशों के इस मांग की नींव 2007 दिसंबर में ही पड़ गई थी जब इंडोनेशिया में अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन में कोई महत्वपूर्ण सहमति नहीं बन पाई थी। उसकी वजह यह थी कि हमेशा की तरह विकसित देशों पर विकासशील देश दबाव नहीं बना पाए थे। समझौते के अंदर संपन्न औद्योगिक देशों ने दक्षिणी देशों पर उत्सर्जन कम करने का अतार्किक दबाव डाला। जबकि वहीं, उन देशों ने बुनियादी तौर पर उत्सर्जन में कमी करने और विकासशील देशों को उत्सर्जन कम करने में सहयोग करने और वातावरण के असरों के अनुकूल होने के लिए अपनी कानूनी एवं नैतिक जिम्मेदारी वहन करने से इनकार किया था। एक बार फिर, बहुसंख्यक दुनिया पर थोड़े से लोगों के सुख के लिए दबाव डाला गया था।

उसी दौरान दुनिया भर के विभिन्न जन संगठनों के कार्यकर्ता भी सम्मेलन स्थल पर उपस्थित थे। उन लोगों का कहना था कि क्लाइमेट सम्मेलन में न्याय नहीं हुआ है। उसी पृष्ठभूमि में बाली में एक साथ आए कई सामाजिक आंदोलनों एवं समूहों ने वातावरण बदलाव को रोकने एवं उसके हल के लिए कार्यवाही को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से आपस में समूह के बीच सूचना के आदान-प्रदान और सहयोग के लिए एक समन्यव - क्लाइमेट जस्टिस नाऊ - स्थापित करने के लिए सहमति जताई थी। इस तरह अधिकारिक समझौतों के परिणाम के मुकाबले बाली की बड़ी सफलता यह रही कि क्लाइमेट जस्टिस के लिए विविध, वैश्विक आंदोलन के लिए एक आधार तैयार हुआ। उस समय सम्मेलन केन्द्र के अंदर एवं बाहर, कार्यकर्ताओं ने उन वैकल्पिक नीतियों एवं व्यवहारों की मांग की जो कि आजीविका और पर्यावरण की रक्षा करे। सम्मेलन के दौरान दर्जनों समान्तर कार्यक्रमों के माध्यम सरकारों, वित्तीय संस्थानों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बढ़ावा दिए जा रहे कार्बन आॅफसेटिंग, वनों के लिए कार्बन व्यापार, एग्रोफ्यूल, व्यापार उदारीकरण एवं निजीकरण जैसे वातावरण बदलाव के खोखले हलों को उजागर किया गया।

इसके बाद जुलाई 2008 में दुनिया भर के 31 देशों के सामाजिक आंदोलनों, नागरिक समाज संगठनों, मछुआरों, किसानों, वन समुदायों व आदिवासी लोगों, महिलाओं, युवाओं एवं अन्य संगठनों के 170 से ज्यादा लोग थाइलैंड के बैंकाॅक शहर में ‘‘क्लाइमेट जस्टिस सम्मेलन’’ में शामिल हुए। सम्मेलन में शामिल सदस्यों ने क्लाइमेट जस्टिस के सिद्धांतों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की। सम्मेलन में आह्वान किया गया कि वातावरण के संकट का बोझ उनके द्वारा वहन किया जाना चाहिए जिन्होंने इसे पैदा किया है, न कि उनके द्वारा जो कि इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं। हालांकि, मौजूदा वास्तविकता यह है कि वातावरण बदलाव में वे लोग सबसे ज्यादा पीड़ीत हो रहे हैं जिन्होंने इसे पैदा नहीं किया है। इस संकट का न्यायपूर्ण हल उत्तरी देशों में एवं दक्षिणी देशों के संपन्न लोगों के अति उपभोग की समस्याओं के विरोध में होनी चाहिए। अति उपभोग की समस्या पूंजीकरण की देन है, एवं वातावरण को अस्थिर करना ही पूंजीवाद की नींव है। सम्मेलन में उत्तरी सरकारों द्वारा ग्रीनहाउस गैस में बुनियादी रूप से एवं बाध्यकारी तौर पर कमी किए जाने के लिए मानने से इनकार किए जाने की निंदा की गई। उनके द्वारा कार्बन व्यापार जैसे खोखले हलों; एग्रोफ्यूल, बड़े बांध व परमाणु ऊर्जा जैसे तकनीकी व्यवस्थाओं; एवं कार्बन विलगाव व संग्रहण जैसे वैज्ञानिक खोजों को बढ़ावा दिए जाने की भी निंदा की गई। ये तथाकथित हल वातावरण संकट को न सिर्फ बढ़ाएंगे बल्कि वैश्विक असमानता को भी बढ़ाएंगे।

सम्मेलन में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनी जिसके तहत कार्बन व्यापार का विरोध करने एवं वनों की कटाई एवं विनाश योजना से उत्सर्जन घटाने का विरोध करने पर जोेर दिया गया। यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेशंन आॅन क्लाइमेट चेंज एवं अन्य स्थलों पर चर्चाओं एवं समझौते में हस्तक्षेप एवं ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता दर्शाई गई। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानो एवं उत्तरी सरकारों द्वारा वातावरण अनुकूलन एवं दुष्प्रभाव समाप्त करने के लिए कर्ज का विरोध करना एवं उनके द्वारा अनुदान, सहायता, एवं कर्ज निरस्त्रीकरण के माध्यम से शर्तें थोपने का विरोध करने का निर्णय लिया गया। वातावरण बदलाव के अनुकूलन एवं दुष्प्रभाव कम करने के लिए किए जाने वाले समस्त सार्वजनिक वित्तपोषण में आदिवासी लोगों, मछुआरों, किसानों, महिलाओं आदि सहित प्रभावित व दरकिनार किए गए लोगों के अधिकारों को मान्यता देने की मांग पर सहमति जताई गई। विश्व व्यापार संगठन के दोहा दौर के समझौतों को निरस्त करना और खेती को डब्ल्यूटीओ से बाहर करने की मांग की गई। पर्यटन के लिए या प्राकृतिक विभीषिका से सुरक्षित करने के नाम पर तटीय समुदाय के बेदखली का विरोध करने एवं समुद्री समुदायों एवं मछुआरों को नुकसान पहुंचा सकने वाले समुद्री दीवाल, बायो-शील्ड, यूरिया एकत्रीकरण एवं कृत्रिम झाड़ियों का विरोध करने पर सहमति बनी। प्रस्तावित ‘‘ग्रीनहाउस विकास अधिकार’’ के संबंध में संगठनों एवं नेटवर्क के सदस्यों के बीच व्यापक चर्चा एवं सलाह-मशविरे की आवश्यकता एवं संयुक्त राष्ट्र वातावरण वार्ता पर उत्तरी एवं दक्षिणी अभियानों को जोड़ने की आवश्यकता जताई गई। इन सहमतियों के लिए दिसंबर 2009 में कोपेनहेगेन में होने वाले यूएन फ्रेमवर्क कन्वेशंन आॅन क्लाइमेट चेंज सम्मेलन के लिए एवं घरेलू देशों में लामबंदी करने का निर्णय लिया गया। साथ ही यह तय किया गया कि व्यापार आधारित मांगो में वातावरण की चिंता को शामिल करने एवं क्लाइमेट जस्टिस के विचारों को व्यापार अभियान से जोड़ने; यह सुनिश्चित करना कि ‘‘व्यापार जस्टिस’’ कोपेनहेगन में होने वाले यूएनएफसीसीसी सम्मेलन में विश्लेषण का केन्द्र बिंदु बने।

इस सम्मेलन के बाद इसमें शामिल सदस्यों ने अपने-अपने देशों में व्यवस्थित रूप से अभियान चलाना शुरू किया। इन अभियानों का असर कितना हुआ है इस पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी लेकिन एक बात तो साफ है कि वैश्विक मंदी से जूझ रहे विकसित देश व्यापार एवं निवेश संबंधी किसी भी समझौते तक पहुंचने के लिए जल्दबाजी में वातावरण समझौते को मंजूरी दे दी है। इसके बावजूद भी उन देशों की नियत पर शंका कायम है। यह भी हो सकता है कि व्यापार संबंधी किसी महत्वपूर्ण सहमति पर पहुंचने के बाद वातावरण समझौते के क्रियान्वयन को ठेंगा दिखा दें। आखिर जो भी हो इस सच को उजागर होने में बहुत ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। दिसंबर 2009 में कोपेनहेगन में होने वाले वातावरण सम्मेलन में औद्योगिक देशों की मंशा की कलई खुलेगी। यदि इस नये समझौते पर विकसित देश वास्तव में गंभीर हैं तो भी बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं बल्कि यह पुराने भूल को सुधारने की कोशिश मात्र है।




आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

खेती अब फायदे का सौदा नही रहा, ऐसी आम धारणा है। किसान गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। भारत जैसे देश में अब तो मौसम और पानी की स्थिति भी बहुत अनिश्चित हो गई है। देश के कई हिस्सों में किसान खुदकुशी तक कर रहे हैं। ऐसे दौर में महानगर में पला-बढ़ा कोई युवक गांव जाकर खेती करना चाहे तो उसे लोग पागल ही कहेंगे। लेकिन एक युवा ऐसा है जो दिल्ली से वापस गांव जाकर न सिर्फ खेती बल्कि जैविक खेती का प्रयोग कर रहा है जिसमें पारंपरिक खेती के मुकाबले लागत भी ज्यादा आती है।

वह युवा ‘आशीष’ जिसे खेती का व्यावहारिक ज्ञान कुछ नहीं, फिर भी खेती करने की इच्छा थी। बस इसी चाहत के साथ पहुंच गए जैविक खेती विशेषज्ञ भास्कर सावे के पास। आशीष ने बताया कि उसे खेती के बारे में कुछ नहीं मालूम लेकिन वह जैविक खेती करना चाहता है। भास्कर भाई ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘एक नर्सरी क्लास का बच्चा एक प्रोफेसर के पास पहुंच गया है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘जाओ और खेती शुरू करो। जब समस्या आए तो उसका निदान खोजो, और निदान तलाशना ही वास्तविक सीख है। खेती सिद्धांत के आधार पर नहीं की जा सकती। यदि सही अर्थ में खेती करना सीखना है तो कम से कम तीन साल इसके लिए समय देना होगा।’’

सवालों में उलझा आशीष बचपन में चाहता था कि बड़ा होकर सेना में भर्ती होकर देश सेवा करे। लेकिन बड़े होकर जब दुनिया की सच्चाई देखा तो विचार बदल गए। आशीष एक संस्था के साथ जुड़कर दिल्ली एवं फिर फरीदाबाद में गरीब बच्चों को पढ़ाने लगे। इस दौरान उन्होंने देखा कि विकास के नाम पर उपजाऊ जमीनों को उद्योगों के हवाले किया जा रहा है। मन में डर सताने लगा कि भविष्य में इससे भोजन का संकट पैदा हो सकता है। सवाल उठा कि किसान खेती के बल पर आत्मनिर्भर क्यों नहीं हो रहे हैं और इस पारंपरिक पेशे को क्यों छोड़ रहे हैं?

सवालों का जवाब खोजना शुरू किया तो मालूम हुआ कि खेती के लिए ज्यादा रासायनिक खाद एवं कीटनाशक प्रयोग से जमीने बंजर होती जा रही हैं। उनसे उत्पादित खाद्यान्नों में पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं जो कि मानवीय स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए गहरा संकट पैदा कर सकते हैं। किसान दिनो-दिन कर्ज में डुबते जा रहे हैं, और यहां तक कि आत्महत्या भी कर रहे हैं। तमाम सच्चाईयों से रूबरू होने के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि वे गांव जाकर जैविक खेती करेंगे और किसानों एवं उनके बच्चों की बेहतरी के लिए काम करेंगे। लेकिन ऐसे कामों के लिए संसाधनों की व्यवस्था करना कठिन चुनौती थी। इसी बीच युवाओं में नेतृत्व क्षमता विकास के लिए कार्यरत संस्था ‘कम्यूटिनी’ ने आशीष के मार्गदर्शन का प्रस्ताव स्वीकार किया। फिर आशीष ने उत्तर प्रदेश में सुल्तानपुर जिले में अपने मूल गांव की ओर रूख किया।

आशीष कुछ महीनों भारत भूषण त्यागी एवं भास्कर भाई जैसे विशेषज्ञों से खेती की बारीकियां सीखते रहे। बात समझ में आई कि कृषि विश्वविद्यालय में खेती को सिर्फ फायदेमंद बनाना सिखाया जाता है। दीर्घकाल में जैविक खेती केमिकल आधारित खेती के मुकाबले किफायती होती है और खेती को सिर्फ उत्पादन के आधार पर ही नहीं बल्कि लागत के आधार पर भी आकलन करना चाहिए। उसने जो देखा-सीखा, जब आजमाने निकला तो गांव में युवाओं ने मजाक उड़ाया। देखा कि गांव के लोग खेती शौक से नहीं बल्कि मजबूरी में करते हैं। कहा जाता है कि जैविक खेती मौजूदा खेती व्यवस्था के मुकाबले महंगी पड़ती है। लेकिन व्यावहारिक प्रयोग से सच का दूसरा पहलु सामने आया।

आशीष ने सन 2008 के मानसून में धान की खेती के लिए केमिकल खाद युक्त और जैविक खेती का समानान्तर प्रयोग किया। धान के पौधे तैयार करने के बाद उन्हें तीन अलग-अलग तरीके से रोपा गया। पहले में डीएपी व यूरिया, दूसरे में सिर्फ डीएपी और तीसरे (जैविक) में सिर्फ कंपोस्ट खाद डाला गया। पहले हिस्से के लिए 1271 रुपये की लागत से 70 किलो, दूसरे हिस्से में 1211 रुपये की लागत से 70 किलो जबकि तीसरे में 1187 रुपये की लागत से 65 किलो धान उत्पादन हुआ। इस तरह उत्पादन के आधार पर केमिकल युक्त खेती में करीब 7 प्रतिशत ज्यादा उत्पादन हासिल हुआ, लेकिन लागत के आधार पर केमिकल युक्त खेती प्रति किलो मात्र 10 पैसे ही सस्ता पड़ा। लेकिन यदि केमिकल से होने वाले दुष्प्रभावों का आकलन किया जाय तो जैविक खेती ज्यादा फायदेमंद नजर आती है। उन्हें एक और बात समझ में आई कि खेती में सबसे ज्यादा लागत सिंचाई की वजह से होता है। मिट्टी एक जीवित वस्तु है और इसे केमिकल डालकर मृत नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही मिट्टी को पानी नहीं सिर्फ नमी की जरूरत होती है। आशीष ने जाना कि बहुत सारे कीड़े मकोड़े वास्तव में न सिर्फ फसलों को फायदा पहुंचाते हैं बल्कि दीर्घकाल में मिट्टी के लिए काफी फायदेमंद होते हैं।

आशीष मानते है कि उनके प्रयोगों से वास्तविक परिणाम का आकलन तीन साल बाद ही किया जा सकता है, क्योंकि तीन साल बाद जैविक खेती में सिंचाई लागत भी कम आएगी। आखिर उनका मुख्य उद्देश्य है कि टिकाऊ एवं सजीव खेती के प्रति लोगों का विश्वास बढ़े एवं किसान इसे अपनाकर आत्मनिर्भर बने। आशीष का मानना है कि यदि उनका प्रयास सफल होता है तो वे युवाओं के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। इस तरह वे गांव से पलायन करने वाले किसानों को विश्वास दिलाते हुए कह सकते हैं कि, ‘‘आ अब लौट चलें’’।


आत्मविश्वास की ताकत

आत्मविश्वास की ताकत

  • बिपिन चन्द चतुर्वेदी
गत दिनों भीलवाड़ा में युवा अधिवेशन के समापन समारोह में कार्यक्रम संचालक ने मंच पर बैठे करीब दो दर्जन युवाओं की ओर इशारा करते हुए कहा कि ये हमारे ‘समापन समारोह के योद्धा’ हैं। अधिवेशन में देश भर से आए करीब 1200 युवाओं में से दो दर्जन नवोदित सामाजिक कार्यकर्ता मंच पर बैठे थे। देश के विभिन्न इलाकों में सामाजिक बदलाव के काम में लगे उन युवा नेतृत्वकर्ताओं में से एक थी ‘ममता’।

ममता देश के उन युवाओं की प्रतीक है जो कि बचपन से समाज में अन्याय देखते व उसे झेलते हुए बड़े होते हैं, लेकिन परिस्थितियों के आगे बेबस नहीं होते हैं। गरीबी और बेबसी का आपस में गहरा रिश्ता होता है। मनुष्य के जीवन में बेबसी अलग-अलग तरीके से दखल देती है। कई बार तो बेबसी बच्चों के मन पर गहरा असर कर जाती है। जब माता-पिता की बेबसी का असर बच्चों पर पड़ता है तो उनका विकास प्रभावित होता है और कई बार बच्चे समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में पली-बढ़ी ममता के बचपन मन में हजारो सवाल उठते थे। मन में हजारो सवाल लिए वह खुद से लड़ती रहती थी, लेकिन जवाब नहीं मिलता था। इस तरह समय से पहले बड़ी बन चुकी ममता खुद को कभी बेबस बेटी के रूप में तो कभी नासमझ इंसान के रूप में देखती थी, तो कभी बंधनों से बंधी एक लड़की के रूप में। दिन-प्रतिदिन होने वाले अन्याय को देखते-देखते बचपन की ऊंची उड़ान तो कब की थम चुकी थी, लेकिन हिम्मत फिर भी बाकी थी। लेकिन बेबसी ने बार-बार दस्तक दी और एक बार तो अपनों ने ही पिता को चन्दन की लकड़ी चोरी के झूठे मुकदमे में फंसा दिया। परिवार की हालत दर्दनाक थी, लेकिन रिश्तेदार ने कहा कि तुम मुझे अपनी जमीन दे दो तो मैं केस वापस ले लूंगा। पुलिस अधिकारी ने भी भारी रिश्वत मांगी। मजबूरन 3000 रुपये और चार बोरी गेंहू रिश्वत में देकर बाकी रकम बाद में देने का वादा किया तो जमानत मिली। लेकिन अगली सुबह वही पुलिस अधिकारी दूसरे मामले में रिश्वत लेते पकड़ा गया और उसके पिता के खिलाफ कोई सबूत न होने के कारण वे बरी हो गए। इस घटना के बाद ममता के मन की बेबसी ने आत्मविश्वास का स्वरूप ले लिया।

राजस्थान में राजसमन्द जिले के देलवाड़ा तहसील की रहने वाली ममता ने उस घटना के बाद अन्याय के खिलाफ लड़ने की ठान ली। उसने महसूस किया कि ऐसी परिस्थितियों का सामना करने वाली वह अकेली नहीं है और संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में एम.ए. की पढ़ाई भी पूरी की। इस दौरान एक सामाजिक समूह के साथ जुड़कर ममता ने सामुदायिक सशक्तीकरण के मुद्दे पर काम करना शुरू किया। वह समुदायों के बीच और खासकर महिलाओं को पंचायत से जोड़ने का काम करते हुए स्थानीय स्तर के घोटालों पर कड़ी नजर रखने लगी। ऐसे प्रयासों में उसे सूचना के अधिकार कानून से काफी मदद मिली। अपने इलाके में पंचायत, सरकारी संगठनों एवं नागरिक समाज के समन्वय से लोकतांत्रिक व्यवस्था के सही क्रियान्वयन एवं भ्रष्टाचार निवारण के उद्देश्य पर काम करने लगी। इसी बीच उसे एक मंच ‘कम्यूटिनी-दि यूथ कलेक्टिव’ मिला जहां उसे अपने इलाके में सामाजिक बदलाव के लिए मार्गदर्शन व प्रशिक्षण मिले। भले ही यूथ कलेक्टिव एवं मजदूर किसान शक्ति संगठन ने ममता का मार्गदर्शन किया लेकिन बदलाव के तौर-तरीके एवं रास्ते उसने स्वयं तय किए।

राजस्थान के सामंती माहौल में ममता ने स्वयं संघर्ष की शुरूआत तो की लेकिन शुरू में कोई साथ देने को तैयार नहीं हुआ। तभी उसने देखा कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) में स्थानीय स्तर पर फैली अनियमितता के खिलाफ संघर्ष करके स्थानीय ग्रामीणों को साथ लिया जा सकता है। लेकिन प्रयासों का ज्यादा परिणाम न मिलते देख ममता ने खुद नरेगा में शामिल होने का फैसला करके अपना भी जॉब कार्ड बनवाया। स्नातकोत्तर तक शिक्षित ममता ने स्वयं मेट बनकर काम करने में कोई शर्म महसूस नहीं की। खुद फावड़ा और कुदाल पकड़ कर काम किया तो श्रम के महत्व और बेहतर ढंग से समझ पाई। जिस काम को शुरू करते समय मन में आशंका थी उसी से आत्मविश्वास बढ़ा और जीवन में अगुआई और पहल के महत्व को समझ पाई। साथ ही पंचायत व्यवस्था व लोगो के प्रति खुद के नजरिए में बदलाव आया। उस इलाके में नरेगा से जहां ग्रामीण गरीबों को 100 दिन का रोजगार मिल पाता था वहीं उन्हें गांव के दबंग लोगों के बदले भी काम करना पड़ता था। लेकिन खुद मेट बनकर काम करने के बाद सबसे बड़ा सुधार यह हुआ कि राजनतिक ताकत वालों की मनमानी के बल पर डंडा मेट का काम करके मुफ्त में पैसा पाने वालों के रास्ते बंद हो गए। यहां तक कि लोगों को पहले दिहाड़ी कम मिलती थी और काम छूट जाने के डर से लोग शिकायत नहीं करते थे। ममता के प्रयास से ग्रामीण महिलाओं में आत्मविश्वास तो बढ़ा ही बल्कि 100 दिन का रोजगार पूर्ण करने पर उन्हें प्रोत्साहन राशि भी हासिल हुई। आज ममता के हिम्मत से उसके साथ लोग जुड़ते गए और कई ऐसी महिलाएं तैयार हुई हैं और समूह में लीडरशिप ले रही हैं। उस इलाके में सुशीला, सीताबाई, पुष्पा, चंदा, कलावतीबाई एवं दुर्गा आदि लोग नरेगा में काम करने के साथ निगरानी भी करती हैं और परेशानी होने पर आवाज उठाती हैं।

हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान ममता से कोलकाता में फिर मुलाकात हुई। आत्मविश्वास से सराबोर वह अल्हड़ बाला गुरू रविन्द्रनाथ टैगोर के बांग्ला गीत ‘‘जोदि तोर डाक सुने केउ ना आशे, तोबे एकला चोलो रे’’ गाने की कोशिश कर रही थी। हमारे एक अन्य राजस्थानी साथी गोपाल को कुछ साथियों ने कहा कि कोलकाता में राजस्थान की पहचान है ‘बालिका वधु’। भारत में सास-बहु सीरियलों पर आधारित कार्यक्रम ‘बालिका वधु’ एक चहेता टीवी कार्यक्रम है, जो राजस्थान में बालिकाओं की छोटी उम्र में होने वाले विवाहों की पृष्ठभूमि पर बना है। यह बात भी सही है कि राजस्थान के गांवों एवं कस्बों में आज भी काफी संख्या में बाल विवाह होते हैं। लेकिन ममता को देखकर लगा कि ममता राजस्थानी है, गरीबी में पली है लेकिन उसकी पहचान ‘बालिका वधु’ नहीं है। ममता स्वयं अपनी पहचान है। मेरा मानना है कि ममता जैसे लोग समापन समारोह के योद्धा नहीं बल्कि स्वागत समारोह के योद्धा होने चाहिए। भले ही ममता ने सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में अभी शुरूआत ही की है और शायद उसे एक लम्बी यात्रा करनी है। लेकिन एक बात तो उसने साबित की है कि ‘‘बेबसी से बड़ा होता है आत्मविश्वास।’’


(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 8 जून 2009)

बेहतर विकल्प है जैविक खेती


बेहतर विकल्प है जैविक खेती
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

जैविक खेती से होने वाले फायदे के बारे में नित नये तथ्य उभरकर आ रहे हैं। जिससे यह बात साबित होती जा रही है कि जैविक खेती न सिर्फ दीर्घकाल में बल्कि तात्कालिक तौर पर भी फायदेमंद है। जैविक खेती से जहां एक ओर रासायनिक खाद और कीटनाशक के प्रयोग न होने से जमीन की उत्पादक क्षमता में लगातार बढ़ोतरी होती है वहीं जमीन में नमी बरकरार रहने से यह सूखा प्रभावित क्षेत्रो के लिए काफी व्यावहारिक है। जैविक खेती को ज्यादा व्यवहारिक बनाने के लिए नित नये प्रयोग भी हो रहे हैं। जब कोई प्रयोग या फिर कोई अध्ययन कोई प्रतिष्ठित संस्था करती है तो उस पर लोगों का विश्वास और भी प्रबल होता है। इस बार संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी महत्वपूर्ण संस्था ने संकटग्रस्त पूर्वी अफ्रीका में एक अध्ययन करवाया है, जिसके नतीजे काफी उत्साहवर्द्धक हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा किए गए अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि यदि पूर्वी अफ्रीका में जैविक खेती को अपनाया जाय तो पूरे देश में भूखमरी की समस्या से निपटा जा सकता है।

अध्ययन ने साबित किया है कि जैविक खेती से अनाज के पैदावार में तो बढ़ोतरी हुई ही साथ में मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार से छोटे किसानों की परोक्ष आमदनी में भी बढ़ोतरी हुई। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के प्रमुख श्री अचिम स्टेनर का तो यहां तक कहना है कि जैविक खेती द्वारा पूरे विश्व को जितना अनाज उपलब्ध कराया जा सकता है वह उम्मीद से कहीं ज्यादा होगा।

साठ के दशक में हुई हरित क्रांति का लाभ अफ्रीका के निवासियों को नहीं मिला था। जिन देशों में हरित क्रांति का फायदा हुआ था वहां एक मोटे आकलन के अनुसार एक व्यक्ति को पहले के मुकाबले करीब 25 प्रतिशत ज्यादा खाद्यान्न उपलब्ध हुआ है। जबकि अफ्रीकी देशों में प्रति व्यक्ति खाद्यान्नों की उपलब्धता 10 प्रतिशत घट गई। हालांकि अफ्रीकी महाद्वीप में बढ़ती आबादी, घटती वर्षा, जमीनों की घटती उत्पादकता, और खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतें भी इसके महत्वपूर्ण कारक रहे हैं। अफ्रीकी सरकारों की पारंपरिक सोच यह रही है कि इस कमी को पूरा करने के लिए आधुनिक और तकनीकी खेती ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन अफ्रीकी सरकारें अपने पारंपरिक तरीके से खाद्यान्नों की कमी पूरा कर पाने में नाकाम रही हैं।

अब वैश्विक स्तर पर खाद्यान्नों की कमी ने सरकारों और विशेषज्ञों को खेती के तौर तरीके में बदलाव के प्रति सोचने को मजबूर किया है। कुछ देशों की सरकारें तो वैज्ञानिकों को जीन परिवर्द्धित (जीएम) खाद्यान्नों के लिए शोध करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं। जीएम खाद्यान्नों के मामले में दावा किया जाता है कि इससे खाद्यान्न उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ कई अन्य फायदे भी हैं। लेकिन इन खाद्यान्नों के व्यवहारिक प्रयोग इस बात को साबित कर रहे हैं कि इससे खेती और मनुष्यों के स्वास्थ्य संबंधी नई परेशानियों का न्यौता दिया जा रहा है। फिर उनसे कैसे निपटा जाएगा? यह तो वहीं बात हुई जैसे भेड़िये के आतंक से निपटने के लिए शेर को बुलाया जा रहा है, लेकिन शेर के आतंक से निपटने के लिए किसे बुलाया जाएगा? इसलिए पूरे विश्व में विशेषज्ञों द्वारा इसका व्यापक विरोध भी हो रहा है। इंग्लैण्ड में सरकार और विशेषज्ञों ने तो इसे पूरी तरह नकार दिया है। जीएम खेती के लिए पेटेंट वाली महंगी बीज की आवश्यकता होने के कारण खेती की लागत भी ज्यादा आती है। हालांकि पारंपरिक खेती के समर्थकों का मानना है कि जैविक या जीएम खेती के बजाय यदि बेहतर बीज, फसल चक्र परिवर्तन, अच्छी सिंचाई और अच्छे बाजार की उपलब्धता हो तो अच्छी खेती संभव है। लेकिन अफ्रीकी देशों में सूखा एक समस्या है वहां अच्छी सिंचाई व्यवस्था बहुत खर्चीली है और कई जगहों पर तो असंभव है। ऐसे में सूखे इलाकों में पारंपरिक खेती के प्रति भी हमेशा जोखिम कायम रहता है।

जबकि इसके विपरीत संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा कराए गए मौजूदा शोध का निष्कर्ष है कि छोटे स्तर पर की जाने वाली जैविक खेती से बगैर कोई पर्यावरणीय व सामाजिक क्षति के उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है। अध्ययन के लिए अफ्रीकी देशों में उन इलाकों का चयन किया गया जहां निजी या सहकारी स्तर पर जैविक खेती की जाती है। इस तरह चैबीस अफ्रीकी देशों में 114 फार्मो में पूरे साल किए गए विश्लेषण में यह बात साबित हुई कि जहां जैविक या कम केमिकल वाली खेती की गई वहां उत्पादन में लगभग दोगुनी वृद्धि हुई। इससे पूर्वी अफ्रीका में औसत उत्पादन बढ़कर 128 प्रतिशत तक हो गई है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि जैविक खेती पारंपरिक खेती और केमिकल आधारित खेती के मुकाबले बेहतर परिणाम देते हैं। इससे कई पर्यावरणीय फायदे भी हैं, जैसे कि इससे भूमि की उत्पादकता बढ़ती है, भूमि में नमी बरकरार रहती है और इस तरह इसमें सूखे से लड़ने की क्षमता होती है।

अफ्रीकी देशो में हुए अध्ययन के नतीजे भारत के लिए काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं। भारत में जो इलाके नियमित सूखे से प्रभावित रहते हैं उन इलाकों में इसे अपनानाा काफी फायदेमंद हो सकता है। भारत सरकार द्वारा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार सन 2005 में लगभग 77,000 हेक्टेअर जमीन में जैविक खेती हुई थी। इन जमीनों पर 120,000 टन जैविक खाद्यान्नों का उत्पादन हुआ था। केन्द्रीय कृषि और सहकारिता मंत्रालय के अनुसार सन 2003-04 में कुल 1408.80 लाख हेक्टअर जमीन में खेती हुई थी। इसमें से 551 लाख हेक्टेअर जमीन में विभिन्न स्रोतो से सिंचाई उपलब्ध हो पाई थी। इस तरह 857.8 लाख हेक्टेअर जमीन वर्षा पर ही आधरित हैं। इनमें से बहुत सारे इलाके काफी दुर्गम हैं जहां पारंपरिक सिंचाई के साधन उपलब्ध कराना काफी खर्चीला है। यदि सरकार इनमें से सूखा प्रभावित व दुर्गम क्षेत्रों को ध्यान में रखकर जैविक खेती को प्रोत्साहन दे तो इसके बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। लेकिन जो भी हो यूएनइपी की मौजूदा रिपोर्ट का मानना है कि इससे विश्व की खाद्यान्न समस्या का हल हो सकता है और इस तरह गरीबी निवारण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। तो भारत को भी इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान देने से पीछे नहीं रहना चाहिए।

(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 25 मई 2009)

भारत में अलोकतांत्रिक कानून - कितना जायज?


(डा. बिनायक सेन की गिरफ्तारी के दो साल पूरा होने पर विशेष)

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम 2005 के तहत छत्तीसगढ़ के रायमुर जेल में बंद डा. बिनायक सेन को गिरफ्तार हुए 14 मई 2009 को दो साल पूरे हो जाएंगे। इस तरह न जाने कितने साल और बीतेंगे? राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित गवाहों द्वारा डा. सेन का गुनाह साबित नहीं हो पाया है फिर भी उन्हें उच्चतम न्यायालय ने जमानत नहीं दी, क्योंकि कानूनी प्रावधानों के तहत उनकी जमानत संभव नहीं है। हाल ही में अप्रैल 2009 में राज्य उच्च न्यायालय ने जन सुरक्षा कानून 2005 को चुनौती देने वाली पीयूसीएल की याचिका को स्वीकार करे उस पर संज्ञान लेते हुए केन्द्र तथा राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है। ऐसे में यह समीक्षा आवश्यक है कि ऐसे कानून के तहत डा. सेन की गिरफ्तारी कितना जायज है और ऐसे कानूनों का क्या औचित्य है?

पेशे से डाक्टर डा. बिनायक सेन पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं और पिछले 30 सालों से छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के तौर काम करते रहे हैं। अपने पेशे के नाते वे कैदियों के स्वास्थ्य की जानकारी लेने के दौरान जेल में बंद नक्सलवादी नेता नारायण सन्याल से भी स्वास्थ्य जांच के लिए मिले थे। बस राज्य सरकार ने उन्हें नक्सलियों का सहयोगी बताकर बंदी बना लिया। तो क्या कोई चिकित्सक कानूनी दायरे में भी किसी कैदी से नहीं मिल सकता? डा. सेन की गिरफ्तारी के माध्यम से सरकार शायद यही संदेश देना चाहती है। सवाल है कि बगैर कोई आपराधिक रिकार्ड वाले एक ख्याति प्राप्त डाक्टर को कड़े कानून के माध्यम बंदी बनाने की जरूरत क्यों आ पड़ी?

डा. सेन राज्य सरकार द्वारा नक्सलियों के नियंत्रण के नाम पर चलाए जा रहे सलवा जुड़ुम अभियन से काफी चिंतित थे। उनका कहना है कि इस अभियान के माध्यम से सरकार ने आदिवासियों को खुलेआम हथियार थमाकर उन्हें आपस में बांटने का काम किया है। इससे आदिवासी लोग सरकार एवं माओवादियों के बीच पिस रहे हैं। वे सलवा जुड़ुम के नाम पर गैरकानूनी इनकाउंटर की भी तीव्र आलोचना करते रहे हैं। क्षेत्र के तमाम संगठनों का आरोप है कि आदिवासी इलाकों में कोयला, लौह एवं बाक्साइट जैसे खनिज पदार्थो की भरमार होना इसके पीछे प्रमुख कारण है। आदिवासी बड़ी निजी कंपनियों को उन इलाकों में प्रवेश देने के खिलाफ हैं तो सरकार ने सलवा जुड़ुम के माध्यम से पुलिस के बल पर एवं ग्रामीणों को माओवादियों का डर दिखाकर गांव के गांव खाली कराने का कुचक्र चला। इस अभियान से पिछले कुछ सालों में हजारों लोग मारे गए हैं एवं लाखो पलायन कर गए हैं या सरकारी शिविरों में रह रहे हैं।

एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित कई अन्य संगठनों का मानना है कि डा. सेन पर लगाए गए आरोप तथ्यहीन और राजनीति प्रेरित हैं। करीब एक साल पहले विश्व भर के 22 नोबल सम्मान पाए लोगों ने बिनायक सेन की रिहाई की मांग की थी, ताकि वे वाशिंगटन जाकर जोनाथन स्वास्थ्य एवं मानव अधिकार अवार्ड प्राप्त कर सकें। लेकिन सरकार नहीं मानी। इस सम्मान के लिए चुने जाने वाले वे पहले भारतीय हैं। डा. सेन के शहीद अस्पताल स्थापित करने एवं इंदिरा स्वैच्छिक स्वास्थ्य योजना मंे महत्वपूर्ण योगदान को सरकार शायद भूल चुकी है! छत्तीसगढ़ पीयूसीएल ने डा. सेन की रिहाई के लिए एक लंबा अभियान भी चलाया है। डा. सेन की लम्बी गिरफ्तारी से यह बात साबित होती है कि किस तरह सरकारें सुरक्षा कानूनों का दुरूपयोग अपने राजनैतिक विरोधियों के लिए करती हैं। छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम मार्च 2006 से लागू है, जिसका घोषित उद्देश्य राज्य में नक्सली गतिविधियों को काबू करना है। लेकिन इस अलोकतांत्रिक कानून के तहत सलवा जूड़ुम के तमाम विरोधियों को सबक सिखाने की भी कोशिश की जा रही है और शायद इसके ही शिकार हैं डा. बिनायक सेन।

भारत में आजादी के बाद से आज तक दर्जनों ऐसे कानून बन चुके हैं जिससे किसी को लम्बे समय तक कैद रखा जा सके। मणिपुर एवं उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यो में लागू आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (आफ्सपा) सबसे विवादास्पद कानून है। शुरू में इसे सितम्बर 1958 में कुछ क्षेत्रों में नागा विद्रोह से निपटने के लिए इसे लागू किया गया था। धीरे-धीरे विस्तार करके इसे सात उत्तर-पूर्वी राज्यों में लागू कर दिया गया है। इसके तहत किसी भी आयुक्त, अधिकारी या एन.सी.ओ. तक को किसी को शक के आधार पर गोली मारने का अधिकार है। सन 2004 में एक गिरफ्तार महिला की मौत का विरोध कर रहे लोगों पर सेना की गोलीबारी से 10 लोगों की मौत हो गई थी। तब 4 नवंबर 2004 से राज्य की एक महिला इरोम शर्मिला चानू इस कानून के खिलाफ आमरण अनशन पर हैं। जम्मू एवं कश्मीर में भी यह कानून सन 1990 से लागू है। 1998 में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया था कि इस कानून की हर 6 महीने में समीक्षा की जानी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। ‘मीसा’ कानून के तहत आपातकाल में 20,000 से ज्यादा राजनैतिक लोगों को जेल में डाल दिया गया था, जिसे 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने समाप्त कर दिया गया। सन 1980 में लागू राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम जिसे एनएसए नाम से भी जाना जाता है। इस कानून के तहत अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने भाजपा नेता वरूण गांधी को भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार किया था। सन 1985 में आतंकवादी गतिविधि नियंत्रित करने के लिए टाडा लागू किया गया था, जिसे 1995 में समाप्त किया गया। सन 1976 में लागू अशांत क्षेत्र (विशेष न्यायालय) अधिनियम के तहत कोई राज्य सरकार शांति व सद्भावना भंग होने के नाम पर किसी क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित कर सकती है। यह जम्मू कश्मीर के अलावा पूरे देश में प्रभावी है। जबकि सन 1978 में लागू जम्मू एवं कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत राज्य में सेना को विशेष अधिकार दिया गया है। इनके अलावा असम में ‘असम प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट’, गुजरात में ‘पासा’ व ‘गुजकोक’, महाराष्ट्र, दिल्ली व कर्नाटक में ‘मकोका’ कानून प्रभावी हैं। मध्य प्रदेश में नक्सली गतिविधि रोकने के नाम पर बने ‘विशेष क्षेत्र सुरक्षा अधिनियम’ के तहत आदिवासी इलाकों में कार्यरत कई जनसंगठनो को प्रतिबंधित कर दिया गया है। अस्सी-नब्बे के दशक में पंजाब, हरियाणा एवं चंडीगढ़ में भी कई कठोर कानून लागू थे, जो कि अब अस्तीत्व में नहीं हैं। आतंकवादी गतिविधि रोकने के नाम पर मार्च 2002 में पोटा लागू किया गया था, अक्तूबर 2004 में इसे समाप्त कर दिया गया। सन 2004 में संशोधित अनलाॅफुल एक्टीविटिज (प्रिवेंसन) एक्ट का उपयोग वर्तमान में आतंकवादी गतिविधियों के रोकथाम के लिए किया जाता है। जबकि नवंबर 2008 में मुम्बई के आतंकवादी हमले के बाद केन्द्र सरकार ने इसमें संशोधन करके ‘राष्ट्रीय जांच एजेंसी’ बनाने का प्रस्ताव किया है। कानून के अंतर्गत आरोपी को बगैर दोष साबित हुए 180 दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी के तहत विशेष न्यायालय को यह अधिकार होगा कि वह किसी मुकदमे की सार्वजनिक सुनवाई बगैर कारण बताए स्थगित कर दे। इस तरह देखा जाय तो किसी केन्द्रीय एजेंसी का राज्य के इच्छा के बगैर दखल देना देश के संघीय ढांचे के स्वभाव के विपरीत है।

दिसंबर 2001 में संसद पर आतंकवादी हमले के बाद लागू ‘पोटा’ अधिनियम के तहत केन्द्र सरकार ने कुल 32 संगठनों को आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त या समर्थक कहकर प्रतिबंधित कर दिया था। जबकि इस कानून के जारी रहने के दौरान राजनैतिक विद्वेष के तौर पर भी इसका उपयोग किया जाता रहा है। सन 2003 में एक मानवाधिकार तथ्य अन्वेषण दल ने झारखंड में पोटा मुकदमों की समीक्षा करके बताया कि इस कानून तहत हिरासत में लिए गए 3,200 लोगों में ज्यादातर गरीब व अशिक्षित आदिवासी थे। अगस्त 1994 में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री श्री राजेश पायलट ने संसद में बताया था कि टाडा के अंतर्गत गिरफ्तार 67,000 लोगों में से सिर्फ 8,000 लोगों पर ही मुकदमा चलाया गया। जबकि उनमें से सिर्फ 725 लोग ही दोषी पाए गए।

भारतीय संविधान के अंतर्गत आम नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकार इन कड़े कानूनों के माध्यम से घोषित या अघोषित तौर पर निलंबित कर दिये जाते हैं। उदाहरण के तौर पर संविधान में 59वें संशोधन के तहत पंजाब में दो साल के लिए आम नागरिकों के लिए इन अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। इन कानूनों को लागू करके केन्द्र व राज्य संविधान के भावनाओं का उल्लंघन कर रही हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 में स्पष्ट किया गया है कि सरकार अंतरराष्ट्रीय कानूनों एवं सहमतियों का पालन करेगी। भारत सरकार ने 1979 में आईसीसीपीआर के प्रति अपनी सहमति प्रदान की है, जिसके अंतर्गत व्यवस्था है कि कुछ खास नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों से विचलित नहीं हुआ जा सकता है, क्योंकि वे जीवन व स्वतंत्रता के लिए अति आवश्यक हैं। लेकिन यह राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर कुछ अधिकारों को सीमित करने की अनुमति देती है, जबकि मानव अधिकारों को संकुचित करने का अधिकार इसके अंतर्गत नहीं हैं। जबकि प्रेस और आम लोगों को इससे मुक्त रखा जाना चाहिए। लेकिन सरकारें इन विचलनों का लाभ उठाकर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर कठोर कानून लागू कर देती हैं। इसके अलावा भारत ने ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन आॅफ ह्यूमन राइट्स (यूडीएचआर)’ सहित कई अन्य सहमतियों पर भी हस्ताक्षर किए हैं। इनके अंतर्गत स्वतंत्रता व समान अधिकार, गैर-भेदभाव, व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार, प्रताड़ना से रक्षा का अधिकार, समान कानून का अधिकार, मनमाने ढंग से गिरफ्तार न किये जाने का अधिकार, संपत्ति की रक्षा का अधिकार पर जोर दिया गया है। जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों को इन अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

डा. बिनायक सेन तो इन कानूनों के दुरूपयोग के प्रतीक मात्र हैं, जबकि इनके शिकार हजारो गुमनाम लोगों का तो कोई नामलेवा नहीं है। न्याय का अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत यह है कि जब तक किसी आरोपी का दोष सिद्ध नहीं हो जाता है उसे निर्दोष माना जाना चाहिए, लेकिन भारत के ज्यादातर कड़े कानून के अनुसार जब तक कोई गिरफ्तार व्यक्ति स्वयं को निर्दोष न साबित कर दे तब तक वह दोषी ही माना जाएगा। इस तरह देखा जाय तो केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने आतंकवाद व अलगाववाद से निपटने के नाम पर मानव अधिकारों एवं सिद्धान्तों को दरकिनार कर दिया है। इन सभी कानूनों में एक खास बात यह है कि इनके अंतर्गत सेना, स्थानीय पुलिस या अधिकारियों को न्यायेत्तर अधिकार दिया गया है, जो कि न्याय के अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत के खिलाफ है। यहां तक कि सेना द्वारा होने वाली मौतों को न्यायिक जांच के दायरे से मुक्त रखा जाता है, जबकि अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों के अनुसार किसी भी अस्वाभाविक मौत के मामले को न्यायिक दायरे में रखा जाना चाहिए। इस तरह यह भारत की न्याय व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह है। इस तरह कहा जा सकता है कि भारत में सुरक्षा के नाम पर न्यायविहीन व अलोकतांत्रिक कानूनों का बोलबाला है।

(प्रकाशित: जनसत्ता, 19 मई 2009)
(प्रकाशित: आफ्टर ब्रेक, 11 मई 2009)

Friday, December 18, 2009

औद्योगिक ईकाई भी सहेज सकते हें वर्षाजल

औद्योगिक ईकाई भी सहेज सकते हें वर्षाजल

  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

बारिश के पानी से देश के जिन इलाकों में बाढ़ का कहर बरपता है उनमें पश्चिम बंगाल भी प्रमुख है। लेकिन राज्य के बर्दवान जिले के औद्योगिक क्षेत्र में एक संयंत्र ने बारिश के पानी का उपयोग करके संयंत्र के लाभ में बढ़ोतरी की है। सोचने वाली बात है कि क्या बारिश के पानी से औद्योगिक उत्पाद की लागत कम की जा सकती है? बात कुछ अजीब सी लगती है लेकिन है बिल्कुल सच, और यह उदाहरण पेश किया है पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में दुर्गापुर में स्थित एक इस्पात ईकाई ने। जिले में स्थित एक द्वितीयक इस्पात ईकाई के 200 तापीय डिपोलीमेराइजेशन संयंत्र साल के सात महीने पूरी तरह वर्षाजल पर ही निर्भर रहते हैं। यह उपलब्धि तब हासिल हुई है जबकि बर्दवान जिले में पिछले तीन सालों में वर्षा दर में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है। दुर्गापुर पश्चिम बंगाल का एक प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र है। दुर्गापुर शहर पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में स्थित है, जो कि दिल्ली से कोलकाता के मुख्य रेलवे लाइन में पड़ता है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 2 से जुड़ा हुआ है और कोलकाता महानगर से 158 किमी की दूरी पर है। यहां का मौसम उष्णीय है और साल के तीन महीने जुलाई, अगस्त एवं सितंबंर में कुल बारिश का 80 प्रतिशत से ज्यादा बरसता है। जिले में औसत सलाना वर्षा लगभग 1330 मिमी होती है।

इस औद्योगिक ईकाई के सकारात्मक पहल को देखते हुए आसनसोल दुर्गापुर विकास प्राधिकरण ने राष्ट्रीय राजमार्ग-2 के पास दुर्गापुर नगर निगम के वार्ड संख्या 28 की चार एकड़ परती जमीन को वर्षा जल संचयन के प्रयोजन के लिए मुफ्त में उपलब्ध कराया है। इस जमीन पर ‘एलिगेंट स्टील रोलिंग मिल्स’ ने 172000 वर्गफुट क्षेत्रफल का तालाब खुदवाया है। कंपनी के महाप्रबंधक श्री सुमंत भट्टाचार्य का दावा है कि उनके संयंत्र में प्रतिमाह रुपये 9 लाख पानी के बिल की बचत होती है। इस नयी प्रणाली से संयंत्र को प्रतिदिन 400 किलोलीटर पानी आपूर्ति की जाती है। उनका कहना है कि इस प्रक्रिया से हमारे संयंत्र संचालन का विचार पूरी तरह बदल चुका है। इससे हमें दोतरफा फायदा हो रहा है। एक तो अब संयत्र पूरे साल काम करता है और कंपनी को पानी का बिल भी कम चुकाना पड़ता है। इस तरह कंपनी के उत्पाद की लागत भी पहले के मुकाबले कम हुई है।

असल में इस विचार की शुरूआत तब हुई जब दो साल पहले तक हर साल माॅनसून के दौरान संयंत्र का एक हिस्सा पानी से डूब जाता था। संयंत्र ऐसे स्थल पर स्थित है जो कि थोड़ा निचला इलाका है। इस तरह निकट के इलाके बिधाननगर एवं विश्वकर्मा नगर में बरसने वाले पानी का काफी हिस्सा बहकर संयंत्र में प्रवेश कर जाया करता था। बारिश के पानी से हर साल संयंत्र के काफी कीमती उपकरण पानी में डूब जाया करते थे और काफी नुकसान हो जाया करता था। इससे साल के करीब 4 महीने उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होता था। इससे निपटने के लिए संयंत्र के प्रबंधकों ने बारिश के पानी को संयंत्र में आने से रोकने की योजना बनायी। साथ ही उस पानी को सहेजकर उपयोग करने की भी योजना बनी। इसके बाद संयंत्र के पास में खाली पड़े जमीन को उपयोग करने के लिए कंपनी ने नगर निगम से गुहार लगायी। नगर निगम ने कोई स्थायी निर्माण न करने के शर्त पर कंपनी को मुफ्त में 4 एकड़ जमीन उपलब्ध करा दी। इस 4 एकड़ जमीन में वर्षा जल संचयन के लिए एक तालाब की खुदाई की गई। इस तरह कंपनी ने दोहरे फायदे का भरपूर लाभ उठाना शुरू किया। कंपनी का दावा है कि इस तरह की पहल करने वाली वह क्षेत्र की पहली कंपनी है।

बारिश के एकत्र पानी को ट्रीटमेंट करके संयंत्र के भट्ठियों एवं कूलिंग प्रणाली में उपयोग लायक बनाया जाता है। वर्षाजल में खनिज की मात्रा न्यूनतम होने के कारण ट्रीटमेंट के दौरान पानी का पीएच मान का नियंत्रित करना कराना भी आसान होता है। वर्षाजल को ट्रीटमेंट करने की लागत भी कम आती है। कंपनी के अध्यक्ष ऋषि कुमार का कहना है कि, सरकारी नियंत्रण वाली दुर्गापुर प्रोजेक्ट्स लिमिटेड से पहले संयंत्र को एवं घरेलू उपयोग के लिए पानी की आपूर्ति होती थी। लेकिन अब साल के सात महीने में कंपनी को सिर्फ पेयजल के लिए ही पानी लेना पड़ता है। जबकि इस अवधि में संचित वर्षा जल से औद्योगिक उपयोग की आवश्यकता पूरी हो जाती है और इससे करीब रुपये 60 लाख की बचत होती है। इस तरह अब माॅनसून के दौरान भी उत्पादन प्रक्रिया प्रभावित नहीं होती है और बारिश के पानी का पूरा उपयोग भी हो जाता है। हालांकि तालाब का जलग्रहण क्षेत्र काफी ज्यादा है और भविष्य में इसकी संग्रहण क्षमता बढ़ाने की पूरी गुंजाइश मौजूद है। लेकिन अभी फिलहाल उसमें करीब 100,000 किलोलीटर पानी संचय हो पाता है। जबकि एकत्र होने वाले पानी में से प्रति वर्ष करीब 85,000 किलोलीटर का ही उपयोग हो पाता है। इस तरह संयंत्र में जल आपूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भरता भी कम हुई है।

इस इस्पात ईकाई की उपलब्धि से दुर्गापुर नगर निगम भी काफी उत्साहित है। निगम के जल आपूर्ति के प्रभारी श्याम प्रसाद कुंडू का कहना है कि यह प्रयास काफी काबिले तारीफ है और उम्मीद करते हैं कि यहां की अन्य कंपनियां भी एलिगेंट स्टील्स के उदाहरण को अपनाएंगी। यदि इस अनूठे उदाहरण को देश भर के ज्यादातर औद्योगिक क्षेत्र में आजमाया जाय तो संभव है कि औद्योगिक जल आपूर्ति लागत का एक बहुत बड़ा हिस्सा प्रतिवर्ष बचाया जा सकता है।

प्रकाशित: 19.09.09 /http://hindi.indiawaterportal.org

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निहित स्वार्थ का पर्याय ‘नदी जोड़ परियोजना’

निहित स्वार्थ का पर्याय ‘नदी जोड़ परियोजना’
  • बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

अभी हाल ही में कांग्रेस पार्टी के सबसे चहेते नेता राहुल गांधी ने चेन्नई में एक प्रेस सम्मेलन में कहा कि नदी जोड़ योजना भारत के पर्यावरण के लिए बहुत ही विनाशकारी है। राहुल गांधी के बयान के अगले ही दिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री श्री के करूणनिधि ने इस परियोजना के पक्ष में दलील दी। इस तरह यह मुद्दा एक बार फिर जीवंत हो गया है। अब यदि प्रमुख सत्ताधारी दल के एक प्रमुख नेता की ओर से ऐसे बयान आ रहे हैं तो इसका निहितार्थ जानना भी जरूरी है। यह तो जानी हुई बात है कि नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजना भारत में जल संसाधन क्षेत्र में अब तक की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना है। सन 2001 के कीमत स्तर पर इस पूरी परियोजना की प्रस्तावित लागत ‘पांच लाख साठ हजार करोड़’ आंकी गई थी। हालांकि वास्तविक लागत इससे कई गुना ज्याादा होने की संभावना है। परियोजना के अंतर्गत कुल 30 नदी जोड़ प्रस्तावित हैं, जिनमें से 14 हिमालयी भाग के और 16 प्रायद्वीपीय भाग के हैं। इस प्रस्तावित परियोजना पर तमाम विशेषज्ञ पहले से ही अपनी आपत्ति जाहिर करते रहे हैं। यह अजीब विरोधाभास है कि एक तरफ तो भारत सरकार की केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय इस परियोजना पर आगे बढ़ने की बात कहती है तो दूसरी तरफ सत्ताधारी दल के ही राहुल गांधी एवं जयराम रमेश सरीखे प्रमुख नेता इसे विनाशकारी बताते हैं। चाहे जो भी हो, जब प्रस्तावित 30 जोड़ों में से एक की भी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार न हो तो इस परियोजना के पक्ष में दावे खोखले नजर आते हैं।

पूरी परियोजना का मूल आधार है कि जल आधिक्य वाली नदियों का पानी जलाभाव वाली नदियों में डाला जाएगा। लेकिन सच यह है कि भारत में अभी तक किसी भी अधिकृत एजेंसी ने इस तथ्य का वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया है। यह बात साफ है कि ये परियोजनाएं विभिन्न राज्य सरकारों के आपसी समझौते से ही आगे बढ़ सकती हैं। तो फिर राज्यों के आपसी खीचातान की वजह से सरकारों का निहित स्वार्थ भी शामिल हो जाता है। राज्य सरकारों के ऐसे ही मोलभाव का उदाहरण है ‘केन-बेतवा नदी जोड़’। इसी परियोजना पर सबसे पहले आगे बढ़ने का सरकार का इरादा है। ‘केन-बेतवा नदी जोड़’ उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के बीच का मामला है और इस पर डीपीआर बनाने का काम जारी है। मध्य प्रदेश में छतरपुर व पन्ना जिलों के सीमा पर केन नदी पर मौजूदा गंगऊ बैराज के अपस्ट्रीम में 73.2 मीटर ऊंचा बांध प्रस्तावित है। इस बांध से रोके जाने वाले पानी को 231 किमी लम्बी नहर के माध्यम से बेतवा नदी में डाले जाने का प्रस्ताव है। परियोजना में सिर्फ एक बांध से करीब 10 हजार हेक्टेअर से भी ज्यादा जमीन डूब में आएगी जबकि परियोजना में कुल 7 बांध बनने वाले हैं। परियोजना से 6.5 लाख हेक्टेअर जमीन में सिंचाई एवं 72 मेगावाट बिजली उत्पादन का प्रस्ताव है। कथित तौर पर इससे मध्य प्रदेश को ज्यादा लाभ होने वाला है, लेकिन उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से डूब में आएंगे। लेकिन यदि यहां पर उत्तर प्रदेश सरकार समझौता करती है तो दूसरी तरफ से उसे लाभ भी चाहिए।

दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश सरकार एक महत्वाकांक्षी परियोजना ‘पंचनंदा बांध’ के माध्यम से लाभ लेना चाहती है। इस परियोजना को उत्तर प्रदेश की पिछली मुलायम सिंह सरकार ने आगे बढ़ाने की भरसक कोशिश की थी। इस परियोजना के तहत यमुना, चंबल, क्वारी, सिंध और पाहुज नदियों के संगम के नीचे यमुना नदी पर 25 मीटर ऊंचा हाई ग्रेविटी बांध बनाए जाने का प्रस्ताव है। परियोजना से उत्तर प्रदेश की 33,812 हेक्टेअर एवं मध्य प्रदेश की 17,201 हेक्टेअर जमीन डूब में आएगी। इस परियोजना से 4.42 लाख हेक्टेअर जमीन की सिंचाई एवं 20 मेगावाट बिजली उत्पादन का प्रस्ताव है। हालांकि मध्य प्रदेश का दावा है कि केन्द्रीय जल आयोग के दावे के विपरीत इस परियोजना से 15 के बजाय 21 गांव डूब में आएंगे।

जिस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार एवं मध्य प्रदेश में बाबूलाल गौड़ की सरकार थी उस समय दोनों ने पंचनंदा बांध पर आगे बढ़ने की सैद्धांतिक सहमति दी थी। लेन-देन का मामला साफ था कि केन-बेतवा नदी जोड़ में थोड़ा नुकसान उत्तर प्रदेश को तो पंचनंदा बांध में मध्य प्रदेश सरकार को नुकसान हो रहा था। लेकिन सोचने बाली बात तो यह है कि ‘केन-बेतवा’ परियोजना से उत्तर प्रदेश के जिन इलाकों के लोगों का नुकसान होने वाला है उन्हें तो ‘पंचनंदा’ बाध से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। इसी तरह ‘पंचनंदा’ बांध से मध्य प्रदेश के जिन इलाकों का नुकसान हो रहा है उन्हें तो ‘केन-बेतवा’ परियोजना से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। हां, एक बात साफ है कि इन दोनो परियोजनाओं से मुलायम सिंह एवं बाबूलाल गौड़ के चहेते इलाकों को जरूर फायदा होने वाला है। लेकिन अब दोनों ही मुख्यमंत्री की सीट पर काबिज नहीं हैं। बदली हुई परिस्थितियों में अब मध्य प्रदेश सरकार की आपत्ति के कारण केन्द्र सरकार ने फिलहाल इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है।

हालांकि दोनों ही परियोजनाएं राज्यों के आपसी विवादों से घिरी हुई हैं। इतना ही नहीं इस मामले में एक तीसरी नदीजोड़ परियोजना ‘पार्बती-कालीसिंध-चंबल’ का विवाद भी जुड़ा हुआ है। एक परियोजना से होने वाली पानी की कमी को दूसरी परियोजना के मोलभाव से पूरा करने का निहित स्वार्थ तो जागजाहिर हो ही रहा है। अब कोई परियोजना आगे बढ़े या स्थगित हो, एक बात तो साफ है कि इससे सरकारों के निहित स्वार्थ का उदाहरण तो जगजाहिर होता ही है।

प्रकाशित: 19.09.09/ http://hindi.indiawaterportal.org

‘‘सूचना के अधिकार’’ का कमाल


मौसम विभाग को नीति बदलने का आदेश

जी हां, भारत के मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) को अपनी नीति बदलनी होगी। खास बात यह है कि यह कमाल है ‘‘सूचना के अधिकार का’’। जो मौसम विभाग अब तक देश भर के विभिन्न इलाकों में वर्षा के आंकड़ों को बेचकर पैसे कमाता रहा है अब वे आम लोगों को सार्वजनिक रूप से बगैर कीमत के उपलब्ध हो सकेंगे। इस संबंध में यह आदेश अभी हाल ही में केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया।
मामला काफी दिलचस्प है, हुआ यूं कि दिल्ली स्थित संस्था ‘‘सैण्ड्रप’’ की ओर से बिपिन चन्द्र ने मार्च 2008 में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के समक्ष सूचना के अधिकार के तहत एक याचिका दाखिल की। याचिका में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के 6 जिलों के 5 साल के लिए वर्षा के मासिक आंकड़ों सहित अन्य आंकड़ों की मांग की गई। लेकिन याचिका के जवाब में विभाग के मुख्य सूचना अधिकारी टी. ए. खान ने कहा कि, ‘‘मौसम के आंकड़ों की आपूर्ति करना सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में नहीं आता है।’’ सैण्ड्रप को यह जानकर काफी अचम्भा हुआ, लेकिन मामले में दिलचस्पी बढ़ गई। इसके बाद विभाग के अपील प्राधिकारी के पास अपील करने पर भी नतीजा शून्य रहा। मामला आगे बढ़ते हुए सीआईसी के पास पहुंचा, जहां, सुनवाई की तारीख 6 जनवरी 2009 तय हुई।

सीआईसी के समक्ष सैण्ड्रप की ओर से हिमांशु ठक्कर मामले की सुनवाई के लिए उपस्थित हुए, जबकि आईएमडी की ओर से एडीजीएम ए. के. भटनागर एवं डीडीजीएम टी. ए. खान उपस्थित हुए। सूचना आयुक्त श्री ए. एन. तिवारी के सामने हिमांशु ठक्कर ने दलील दी कि आईएमडी को भारत के सभी जिलों के वर्षा के मासिक और सालाना आंकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने चाहिए, और इसके लिए कीमत अदा करने जैसी कोई शर्त नहीं होनी चाहिए। सवाल यह है कि जनता के पैसे से चलने वाली एक संस्था वर्षा जैसे प्राथमिक और आवश्यक आंकड़े देने से कैसे मना कर सकती है? इतना ही नहीं, जहां कई राज्य सरकारें अपने वेबसाइट पर तहसील वार दैनिक आंकड़े उपलब्ध कराती हैं वहीं आईएमडी अब तक किसी भी स्तर पर इन प्राथामिक आंकड़ों को सार्वजनिक रूप से नहीं उपलब्ध कराती थी।

मामले की सुनवाई के 10 दिन बाद सूचना आयुक्त ने अपने आदेश में कहा कि याचिकाकर्ता का आवेदन सुनवाई योग्य है....। निःसंदेह इन आंकड़ों के प्रसार से सार्वजनिक हित जुड़ा हुआ है, और इन्हें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक सार्वजनिक प्राधिकरण होने के नाते मौसम विभाग को ये आंकड़े नियमित रूप से वेबसाइट पर उपलब्ध कराना चाहिए ताकि जिन्हें आवश्यकता हो वे उसे हासिल कर सके। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका है और विभाग ने अपने जवाब से मामले को और भी जटिल बना दिया है। आयुक्त ने मौसम विभाग को तीन सप्ताह में बगैर किसी कीमत के सैण्ड्रप को आंकड़े उपलब्ध कराने का आदेश दिया। साथ ही आईएमडी के महानिदेशक को आदेश दिया कि वे इस संदर्भ में अपनी नीति की समीक्षा करके एक माह में जवाब प्रस्तुत करें।

सैण्ड्रप ने इस आदेश पर खुशी जताते हुए उम्मीद जतायी कि भविष्य में मौसम विभाग के ये आवश्यक आंकड़े आम लोगों को उपलब्ध हो पाएंगे! पूरी प्रक्रिया में लगभग एक साल लग गए लेकिन नतीजा सकारात्मक रहा। मांगे गए सभी आंकड़े सैण्ड्रप को उपलब्ध हो चुके हैं और अब ये सैण्ड्रप की वेबसाइट (www.sandrp.in/news) पर उपलब्ध हैं।

प्रकाशित: 17.07.09/http://hindi.indiawaterportal.org/